अखिलेश यादव की तारीफ करने वाले उनके चमचे पत्रकार और बुद्धिजीवी यह जरूर पढ़ें…

logobChandan Srivastava : यूपी के बेहाल हाल के लिए अखिलेश यादव के पास दो बहाने होते हैं। एक वह खुद बोलते हैं, दूसरा उनके टुकड़ों पर पल रहे चमचे पत्रकार, बुद्धिजीवी आदि बोलते हैं। अखिलेश कहते हैं कि यूपी के आपराधिक वारदातों की कवरेज ज्यादा ही होती है जबकि चमचे कहते हैं अखिलेश के काम में मुलायम, शिवपाल वगैरह अड़ंगा लगाते रहते हैं, समस्या वहीं है। कुल मिलाकर अखिलेश पाक-साफ। आपको ढाई साल पहले ले चलता हूं जब हमारे मुख्यमंत्री के दोस्ताना ने प्रदेश में सैकड़ों लोगों की जान ले ली।

कानपुर में एक एसएसपी हुआ करते थे तब यशस्वी यादव। महाराष्ट्र कैडर के आईपीएस थे। सीएम साहब से याराना था। इसलिए उन्हें विशेष रूप से यूपी लाया गया। सब चर ही रहे हैं तो यार क्यों छूट जाए? तू भी आजा थोड़ा तू भी चर ले। तो सीएम के यह दोस्त किसी की नहीं सुनते थे। आईजी-डीआईजी छोड़िये, डीजीपी की क्या बिसात कि उन्हें कुछ कह सके। बहरहाल कानपुर में कुछ जुनियर डॉक्टरों का सपा के एक विधायक से तूतूमैंमैं हो गया। एसएसपी साहब ने आव देखा न ताव रात में मेडिकल कॉलेज के हॉस्टल में घुस-घुसकर डॉक्टरों पर पुलिसिया लठ्ठ बरसवाया। जो भी सफेद गाउन में दिखा सब पीटे गए। अधेड़ और बुजूर्ग प्रोफेसर भी गिरा-गिरा के थूरे गए। कईयों को गिरफ्तार करके लॉकअप में भी ठूसा गया। पिटाई भी खाए और 7-criminal law amendment act जैसे गम्भीर कानून के तहत मुकदमा भी दर्ज हो गया।

सुबह वही हुआ जो एक हवलदार भी जानता था। डॉक्टरों ने हड़ताल कर दी। शाम होते-होते प्रदेश भर के सरकारी डॉक्टर हड़ताल पर चले गए। उनकी बहुत सामान्य मांग थी। यशस्वी यादव को हटाओ, हमारी भी शिकायत दर्ज करो और हमारे साथियों को रिहा करो। सरकार सभी मांग मानने को तैयार थी सिवाय सीएम के दोस्त को एसएसपी पद से हटाने के। हुक्मरान ने इसे नाक का सवाल बना लिया। ऐसा लगा कि हूकुम के दोस्त को नहीं खुद हूकुम को पद से हटाने की मांग है। हड़ताल आगे बढ़ी। दो ही दिन में इलाज के बिना दर्जनों मौतें होने लगीं। अखबार रंगे हुए थे। गरीब मर रहे थे, कोई नहीं जानता कि उनमें कितने यादव थे और कितने मुसलमान।

काश कि मौत को भी वोट बैंकों का इल्म होता। खैर। सीएम के दोस्त को हटाने के लिए सरकार नहीं तैयार हुई। यह राजा के शान में गुस्ताखी होती। राजा दहाड़ा, मरने दो, हम एस्मा भी नहीं लगाएंगे। धरती के तथाकथित दूसरे भगवानों ने भी अपने पेशेवर शपथ को तिलांजलि दी। हड़ताल में प्राइवेट डॉक्टर भी शामिल हो गए। अब खतरा दरबारियों के वर्ग को था। लेकिन राजा तो राजा होता है। आठ दिन, नौ दिन, दस दिन बीत गए। दिन बीतते जा रहे थे। मौत को ओवरटाइम करना पड़ रहा था।

अंततोगत्वा हाईकोर्ट जागा। सुओ मोटो लिया गया। एसएसपी को हटाने का आदेश सुनाया गया। डॉक्टरों की मांग को जेनुइन करार देते हुए, उनकी ओर से भी मुकदमे दर्ज करने का हुक्म हुआ। हड़ताल वापस हुई लेकिन सरकारी आंकड़ों के मुताबिक मात्र केजीएमयू में साठ से अधिक लोगों की जानें जा चुकी थीं।  मुझे अंदर की बातें नहीं पता कि उस न्यायप्रिय राजा के हाथ, उसके किस चाचा ने रोक रखे थे। राजा का दोस्त थोड़ा गुबार थमते ही, इस बार राजधानी का कोतवाल बना। बताते हैं वहां अपने ताकत से मदमस्त वह अंजाने में राजपरिवार को ही नाराज कर बैठा। फिर उसे एक पल में वापस वहीं फेंक दिया गया, जहां से वह लाया गया था। समाजवाद में राजपरिवार की छोटी सी नाराजगी वह कर देती है जो सैकड़ों इंसानी बलि नहीं कर सकतीं।

Ram Janm Pathak : मुद्दे की बात। भले ही उत्तर प्रदेश दिल्ली से सटा हो, भले ही दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से जाता हो, लेकिन दिल्ली की तरह आज भी उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार या गुंडागीरी कोई मुद्दा नहीं है। भ्रष्टाचार या अपराध से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर कोई विवाद है भी तो बस इस इतना कि गुंडा, बेइमान, भ्रष्टाचारी चाहे नेता हो या अफसर, अगर हमारे खेमे का है तो किसी को कोई दिक्कत नहीं है। अगर दूसरे के खेमे का है तो थोड़ी बहुत चिल्ल-पों होती है। बाकी सब खत्म।

मायावती कितनी भ्रष्टाचारी हों, उनके समर्थक कभी इस पर सवाल नहीं उठाते। मुलायम, शिवपाल से लेकर कोई भी यादव नेता कितना ही भ्रष्टाचार में लिप्त हो, उनके समर्थक और मतदाताओं को कोई फर्क नहीं पड़ता, बल्कि वे खुश होते हैं। उनके बयान सुनो तो कहेंगे पंडितो-ठाकुरों ने बहुत सालों तक लूटा है, अब हमें भी लूटने दो। उन्हें नहीं पता कि सपा हो या बसपा, सभी दलों में लूटने वालों में पंडित-ठाकुर, बनिया-वैश्य कम नहीं हैं।

बसपा और सपा से लोहा लेने खड़ी हुई भाजपा कि हालत यह है कि उसके पास भी आपराधिक पृष्ठभूमि, सामंती, जातिवादी, सांप्रदायिक नेताओं की पूरी फौज खड़ी है। वहां तो कई मुख्तार अंसारी, पंडित सिंह, उड्डू सिंह-पुड्डू सिंह पर अकेले ब्रजभूषण शरण ही भारी हैं। ज्यादा चूं-चपड़ कोई करेगा तो योगीजी किस दिन काम आएंगे।

मुद्दे की बात यह है कि मुलायम सिंह इस यथार्थ को भलीभांति जानते हैं। मुलायम जानते हैं कि स्वच्छ छवि मीडिया में चमकने के लिए अच्छी हो सकती है, वह कम से कम उत्तर प्रदेश में चुनाव नहीं जिता सकती। इसलिए उंडे-गुंडे, अपराधी-मवाली, अच्छे-बुरे सबका एक जखीरा बनाओ और सत्ता तक पहुंचो। उत्तर प्रदेश में मतदान करते समय मतदाता इमेज, विकास, ईमानदारी, भलाई, यह सब नहीं देखता। उसके लिए सबसे ज्यादा प्यारी है अपनी जाति। अपनी बिरादरी, अपना भाई-भतीजावाद।

अखिलेश आज अगर अपनी पार्टी बना भी लें तो वे केजरीवाल नहीं है, न यूपी दिल्ली है कि जनता उनकी दीवानी हो जाएगी। उन्हें सिर्फ कुछ यादवों और मुसलमानों के वोट मिल जाएं,यही बहुत है। हो सकता है कि कुछ शहरी युवा उन्हें वोट दे दें। इसके अलावा, और कौन वोट देगा अखिलेश को? सवर्णों में कितने प्रतिशत लोग हैं जो अखिलेश का समर्थन करेंगे? भाजपा के पास एक भी बेदाग चेहरा नहीं है। इसीलिए वह बहाना बनाती है विकास का और बगल में रामंदिर दबाए रहती है। चुनाव मैदान में अभी उम्मीदवारों की सूची जारी होगी तो एक से बाहुबली, वंशवादी, ये और वो-पूंजीपति, पैसावाले–यही सब उनके पास भी हैं।

यह बात भी मुलायम सिंह जानते है। -इसलिए मुख्तार, अफजाल, अमर, राजा भैया, अमनमणि जैसे लोगों के बीच अखिलेश का चेहरा दिखाते रहो, यही चाहते हैं।  और यह नाटक करीब-करीब संपन्न हो गया है। इसमें काफी कुछ तयशुदा, लिखित और पूर्वभाषित था। बीच में कुछ इधर-उधर जरूर हुआ है। बाकी सब कुछ वही रहेगा।

आने वाले चौबीस घंटे में अनुमान है कि हवाएं तेज चलेंगी। गरज के साथ-साथ कहीं छीटें भी पड़ सकती हैं। प्रदूषण आंखों में जलन देगा। बेहतर है गलमुच्छा बांध कर निकलें।  ज्यादा बेहतर है निकलें ही नहीं।  समाचार समाप्त हुए।

Arvind K Singh : पैदल होने के कगार पर खड़े अखिलेश यादव को अब अचानक रिक्शा चालकों की दिक्कतें याद आ गयी हैं। चुनाव के पहले उनके लिए काफी लंबे दावे किए गए थे। लेकिन उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया जा सका। अब चुनाव सिर पर है तो फिर किसान, मजदूर और गरीब सबकी तरफ उनका ध्यान जा रहा है। लेकिन अब इन घोषणाओं का कोई अर्थ नहीं है, न ऐसी उदारता का। जब तक तथाकथित राजाज्ञाएं निकलेंगी तब तक चुनावी आचार संहिता लागू हो जाएगीं। पांच साल का समय कायाकल्प के लिए बहुत अधिक होता है, लेकिन इनका अधिकतम समय घर परिवार और मित्र मंडली में लगा रहा। गांव गिरांव के लिए जो करना था, वह अखिलेश यादव नहीं कर सके। अब पछताने या दावे करने से कुछ नहीं होने वाला है। अखिलेश से काफी उम्मीदें थीं लेकिन उन्होंने भी निराश ही किया है।

पत्रकार त्रयी चंदन श्रीवास्तव, राम जन्म पाठक और अरविंद कुमार सिंह की एफबी वॉल से

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