मुकुंद नाम का यह संपादक बहुत हानिकारक है…………….

हर बार मालिक ही गलत नहीं होता, कर्मचारी और अधिकारी भी गलत हो सकते हैं। नई दिल्ली से प्रकाशित राष्ट्रीय समाचारपत्र प्रयुक्ति में यही देखने को मिला है। प्रयुक्ति के स्वामी और समूह संपादक संपत कुमार सूरप्पगारि ने अपने अखबार को स्थापित करने के लिए कई बड़े और साहसिक फैसले लिए। अलग तरह की नीतियां बनाईं। इस दौरान अनजाने में एक गलत फैसला भी ले लिया। यह फैसला था दारूबाज और दोहरे चरित्र वाले पत्रकार मुकुंद मित्र को  स्थानीय संपादक बनाने का। यह इंसान पत्रकार के नाम पर कलंक है। हमेशा अश्लील बातें करता है, स्त्री देह पर लेखन के जरिए कल्पित सुख का अहसास करता है। यह इसकी यौन कुंठा है। इसके फेसबुक पर स्त्री – पुरुष संबंधों पर लिखे इसके भड़ास इस बात की तस्दीक करते हैं।
यह सही है कि अखबार के सितारे इन दिनों गर्दिश में हैं, लेकिन इस हालत का  सबसे बड़ा जिम्मेदार मुकुंद है। एक अच्छा संपादक वही है, जो मालिक को सही समय पर सही मशवरा दे। लेकिन मुकुंद ने कभी अखबार के मालिक को सही सलाह क्या सलाह ही नहीं दी।  तमाम गलत फैसलों में साथ रहा, हर बात में यस सर कहता रहा। अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के हक की कभी बात नहीं की। दारूबाज इतना कि अपना काम छोड़ महफ़िल सजाने चल देता। अखबार में अपनी जिम्मेदारी का कभी सही से निर्वहन नहीं किया। अभी जब अखबार में वेतन की अनियमितता शुरू हुई तो कहा कि मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। 6 सितम्बर को कर्मचारियों ने काम बंद किया तो उनकी अगुवाई मुकुंद ने ही की। कहा कि पहले बकाया वेतन दे दिया जाय फिर काम होगा। अगले ही दिन प्रबंधन के पक्ष में खड़ा हो गया और कहा कि मेरा बेटा अच्छा पैसा कमाता है, मुझे चार महीने भी वेतन नहीं मिलेगा तो कोई दिक्कत नहीं। कर्मचारियों को भड़काकर इसने अपना पाला बदल लिया। इस बीच मालिक से कहता रहा कि मैं हमेशा आपके साथ हूं। एक अफवाह के जवाब में कहा कि अखबार बंद नहीं हुआ है, सभी को समय से सैलरी मिल रही है। करीब दो महीने ऐसे ही चला।
अभी अक्टूबर के आखिर में मुकुंद ने फिर अपना रंग बदला। इसने कुछ कर्मचारियों को लेकर मालिक संपत पर फिर दबाव बनाना शुरू किया। काम बंद किया और बकाया वेतन की मांग करने लगा। ऑफिस में धरना तक दिया। संपत ने  भरोसा करके एक महीने का वेतन डाल दिया तो दूसरे महीने के लिए दबाव डालने लगा। तरह तरह की धमकी भी दी। इस दरमियान मुकुंद ने फिर अपना रंग बदला और साथ प्रदर्शन कर रहे कर्मचारियों को धोखा देकर अपना चेक हासिल कर लिया। बेचारे साथी ठगे से रह गए। न इधर के रहे न उधर के। हालांकि इसके जिम्मेदार भी वे ही हैं।
खैर, चेक पाने के बाद मुकुंद ने उसे फेसबुक पर डाल दिया और प्रयुक्ति की बुराई शुरू कर दी। हमेशा जय श्रीराम बोलने वाला मुकुंद लाल सलाम कहने लगा। अखबार की तमाम गोपनीय बातें सार्वजनिक कर दी, जो एक अच्छे पत्रकार को कभी नहीं करनी चाहिए। कुछ झूठ कुछ सच मिलाकर तमाम अनर्गल बातें लिखीं। तमाम लोगों ने टिप्पणी की कि आप भी तो अखबार की गलत नीतियों में शामिल रहे हैं। एक पत्रकार ने तो कहा कि अभी कुछ दिन पहले आपने अखबार की ख़राब हालत का खंडन किया था तो मुकुंद ने कहा कि मैं इसका गुनहगार हूं। जिस अखबार से उसका परिवार पलता रहा, उसके दारू और सिगरेट पीने का शौक पूरा होता रहा…उसी में उसे अब कमियां नजर आने लगीं। सच तो यह है कि यह आदमी कभी मन से अखबार के साथ रहा ही नहीं। इसी से अंदाजा लगाइए कि यह शख्स अपना काम खत्म करने से पहले और एडिशन छूटने से पहले दफ्तर  से दारू के अड्डे की ओर भागता था। इसका काम डेस्क को करना पड़ता था।
मीडिया बिरादरी में मुकुंद की छवि अच्छी नहीं है, एक उप संपादक भी अरेंज नहीं कर सकता यह शख्स। प्रयुक्ति में रहने के दौरान इसने जाने कितने रंग बदले। जाने कितनों की नौकरी खाई। अपने खासमखास तक को धोखा दे दिया। प्रयुक्ति आज जिस भी मुकाम पर है, उसका जिम्मेदार मुकुंद है। इसको एक बार शट अप कहकर निकाल भी दिया गया था, फिर संपत इसको दोबारा लाए…और यही शायद संपत की बड़ी भूल थी। वे इसे पहचानने में गलती कर बैठे।
अखबार मालिक द्वारा शोषण की खबरें तो अक्सर आती हैं, पर यहां एक अधिकारी ही शोषक निकला। कप्तान ही अगर बेईमान हो तो टीम क्या करे! अखबार तो डूबेंगे ही, पर यह याद रखना जरूरी है कि हमेशा मालिक ही गलत नहीं होता।
प्रयुक्ति के एक पुर्वकर्मचारी के पत्र के आधार पर  
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