आपबीतीः कभी पुलिस को इंसान भी तो समझें भाई

आपबीतीः कभी पुलिस को इंसान भी तो समझें भाई

Sumant Bhattacharya के फेसबुक वाल से। दो साल पहले की बात है। दिल्ली की ही घटना है। बेहद गरमी थी और खुद कार चला रहा था। अपनी रौ में सिग्नल ब्रेक कर बैठा और तपती दुपहरी में फुटपाथ पर खड़े दिल्ली पुलिस के जवान ने सड़क पर आकर कार को रोक लिया। बाहर निकला तो गरम हवा के थपेड़े ने होश फाख्ता कर दिए। मैंने जवान के चेहरे की ओर देखा और उसने कार की विंड शील्ड पर लगे “इंडियन एक्सप्रेस” के स्टीकर को। वो तैयार हो गया, अब मुझे कैसे निपटाना है। मैं खामोशी से उतरा। ठंडे पानी की बोतल निकाली और कहा, “चालान जरूर कटवाऊंगा, पर पहले आप पानी पीजिए।” उसे समझ में ना आया। फिर मैंने कहा, “आप जिस मुखालिफ हालात में ड्यूटी दे रहे हैं, एक पल में समझ गया हूं मैं…आपसे कोई जिरह नहीं करूंगा और चालान भी कटवाऊंगा।”
फिर अंदर ताजे केले रखे हुए थे, निवेदन करके एक केला भी खिलाया। अब हमारी बहस का मुद्दा था, वो चालान नहीं काटना चाहता था और मैं कटवाने पर अड़ा हुआ था। उसके चेहरे पर खीज नहीं मुस्कराहट थी। जवान साहब कह रहे थे, “मुझे पॉवर है कि मैं वॉर्निंग देकर छोड़ सकता हूं।” तो मैंने कहा, लेकिन आप तो वॉर्निंग भी नहीं दे रहे हो..? इत्ती मोहब्बत से थोड़े वॉर्निंग दी जाती है ?” चंद पलों में स्थिति ये थी कि जवान साहब मुझे रवाना करना चाह रह थे, और मैं इत्मीनान से गरम हवा के बीच उसकी जिंदगी को समझना चाह रहा था। इलाहाबादी जो ठहरे भई अपन। आखिर सौ की जगह जवान साहब को बहुत बेमन से 50 रुपए का चालान काटना ही पड़ा। रवाना होने लगा तो जवान ने मुस्करा ने पूछा..सर आप पत्रकार नहीं हो ना..? वो मुझे फर्जी पत्रकार मान चुका था, क्योंकि मैंने पुलिसिया पत्रकारिता का नमूना जो पेश नहीं किया। अब मैं मुस्करा रहा था…
उसे जोरदार सैल्यूट मारा और रवाना हो गया। मुझे लगता है कि हम दोनों ने एक-दूसरे का दिन अच्छा कर दिया था उस रोज। दरअसल कल दिल्ली में पुलिस जवान की पत्थरबाजी की घटना पर यह मंजर याद आ गया। शायद हमारा समाज, पुलिस के प्रति बेहद अमानवीय होता जा रहा है। जब समाज यह स्थापित ही कर चुका है कि पुलिस, समाज विरोधी है तो क्यों ना पुलिस के लोग खुले आम गुंडई और पैसा वसूली करें..? सड़क पर ड्यूटी देते एक सिपाही को पता कि कुछ भी कर लें वो, यह समाज उसे भ्रष्ट ही मानेगा। समाज कभी सम्मान नहीं देगा उसे. और एक बात यह यदि किसी के समझ में घुस गई तो फिर वो व्यक्ति हो या संस्था, समाज का नैतिक नियंत्रण उस संस्था पर से खत्म मानिए। शायद ही, किसी शहर के नागरिक समाज ने पुलिस के सामान्य कर्मियों के लिए अभिनंदन समारोह किया हो। अलबत्ता, पुलिस के अफसरान जरूर नवाजे जाते हैं, पर धूप-बारिश में ड्यूटी देने वाले अदने से जवान को कभी किसी समारोह में बुलाकर सम्मानित किया जाता हो? ..यदि होता भी होगा तो बहुत कम। समाज को आगे बढ़कर कभी किसी आम पुलिस वाले को सम्मानित करते नहीं देखा। तो आप भी तो पुलिस के प्रति इतने ही निष्ठुर हैं। अब पहल कोई संस्था तो करती नहीं, समाज को ही पहल करना होता है।

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