कब आएगा गैर भाजपा दलों के ख़िलाफ़ स्टिंग, देरी क्यों हो रही है

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आचार संहिता के लागू हुए कितने दिन हो गए हैं मगर अभी तक ग़ैर भाजपा दलों के नेताओं का एक भी स्टिंग नहीं आया है। दिल्ली विधानसभा चुनाव, बिहार विधानसभा चुनाव, बंगाल विधान सभा चुनावों के दौरान कितने स्टिंग आते थे। पूरा चुनाव सूखा सूखा सा लग रहा है। किसी स्टिंग में कोई पैसा लेकर टिकट मांग रहा होता, टिकट दिला रहा होता या फिर रैलियां करा रहा होता है। स्टिंग होते हैं तो लगता है कि ग़ैर भाजपा दल के नेता कितने भ्रष्ट हैं। बदले जाने की ज़रूरत है। समां बंधता है। पिछले तीन चुनावों, दिल्ली, बिहार और बंगाल विधानसभा चुनावों के दौरान हुए स्टिंग का अध्ययन करना चाहिए। पता चलेगा कि ज़्यादातर स्टिंग ग़ैर भाजपा दलों के ख़िलाफ़ हुए। ज़्यादातर स्टिंग में भाजपा ही सबसे आक्रामक और मुखर रही, यह बताने में कि विरोधी दल के लोग पैसे की राजनीति करते हैं. भाजपा की रैलियों में तो लोग अपने ख़र्चे पर जाते हैं! आप देखेंगे कि कहीं से ज्ञात अज्ञात वेबसाइट, चैनल या पत्रकार उभर आते हैं और सीडी लेकर छा जाते हैं। सारे एंकर उन्हें लपकते हुए ख़ुद को बीजेपी की तरफ़ कर लेते हैं और फिर हमला शुरू कर देते हैं।

इन दिनों रोज़ शाम को इंतज़ार करता रहता हूं कि पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं,स्टिंग कब आएगा। कम से कम आम आदमी पार्टी के नेता या वोलेंटियर का स्टिंग तो हो ही जाना चाहिए था। बहुजन समाज पार्टी के नेता या कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ भी स्टिंग नहीं हुआ। आख़िर चैनल कर क्या रहे हैं। कहीं स्टिंग की एडिटिंग तो नहीं चल रही है। 2013 में दिल्ली विधानसभा चुनावों के दौरान तो लगा कि स्टिंग ही चुनाव लड़ रहा है। उस स्टिंग में कथित रूप से कैश में चंदा लेने की बात करने वाली मोहतरमा तो बीजेपी में ही चली गईं। कहीं वहीं से कैशलेस का आइडिया न आया हो! कुमार विश्वास, मनोज कुमार, दिनेश मोहनिया, इरफ़ान उल्लाह ख़ान, मुकेश हूडा, प्रकाश और भावना गौड़ के ख़िलाफ़ भी स्टिंग हुए। चैनलों पर ख़ूब उत्तेजक बहस हुई। कुमार विश्वास का लंबा लंबा इंटरव्यू हुआ। उन पर हमले हुए। बाद में उन्हीं चैनलों पर कुमार विश्वास कवियों की कविता पेश करने लगे। ये कुमार विश्वास की अब तक की सबसे बड़ी जीत है। इसे कहते हैं प्यार और ज़ुबान से जीत हासिल करना। स्टिंग करने वाला भी कितना शर्मिंदा होगा। कुमार के साथ साथ इस स्टिंग में आए मनोज कुमार और दिनेश मोहंगिया भी चुनाव जीत गए।

लगता है कि चुनाव के दौरान स्टिंग कुछ दलों के लिए शगुन का काम करते हैं। अभी पता चला है कि मनीष सिसौदिया के ख़िलाफ़ सीबीआई ने प्राथमिक जांच शुरू कर दी है। व्यापम नाम का घोटाला भी मनीष सिसोदिया ने किया था। व्यापम के आरोप में सिसोदियो को अब तक जेल क्यों नहीं भेजा गया है, इस बात पर शिवराज सिंह चौहान को इस्तीपा दे देना चाहिए था। हमारी राजनीति अजीब दौर से गुज़र रही है। इन स्टिंग को लेकर बहस के नाम पर कितना समय बर्बाद हुआ। यही प्रवक्ता अगर किसी उम्मीदवार के लिए पोस्टर लगा रहे होते तो पार्टी को ज्यादा लाभ होता। काम न धाम शाल ओढ़कर टीवी में बैठ गए। पार्टी को महान बनाने। हर दल के प्रवक्ताओं का यही हाल है। दिन भर सोते रहो। शाम को सज कर टीवी पर बैठ जाओ।

अक्तूबर 2015 में बिहार विधानसभा चुनावों के दौरान स्टिंग की भी यही प्रवृत्ती थी। हर स्टिंग में खलनायक गैर भाजपा दल था और उसमें न होने के कारण स्टुडियो में भाजपा के प्रवक्ता नायक बनकर प्रवचन कर रहे थे। बिहार में पहले चरण के कुछ घंटे पहले एक स्टिंग आया। नीतीश कुमार मंत्रिमंडल के मंत्री अवधेश कुमार कुशवाहा पैसे लेते हुए दिखे। उन्हें इस्तीफा देना पड़ा और नीतीश कुमार ने उनका टिकट भी काट दिया। उस दौरान टीवी चैनलों ने बहस का मजमा लगा दिया। अवधेश कुमार कुशवाहा मामले की क्या स्थिति है इसे लेकर बीजेपी भी भूल गई होगी।

12 अक्तूबर को अवधेश कुमार कुशवाहा का स्टिंग आता है। 15 अक्तूबर 2015 को तीसरे चरण के दो दिन पहले बीजेपी एक वीडियो जारी करती है। जिसमें जनता दल युनाइटेड का कोई विधायक दो लाख रुपये लेता हुआ दिखाई देता है। स्टिंग वीडियो में सत्यदेव कुशवाहा पैसे ले रहे हैं और बिजनेस मैन को सरकार बनने पर मदद का आश्वासन दे रहे हैं। याद कीजिए तो बीजेपी ने ख़ूब बयान दिये होंगे। एंकरों ने तो प्रवक्ता विहीन जदयू जैसी पार्टी की तो धज्जी उड़ा कर रख दी होगी। क्या आपको मालूम है कि इस स्टिंग में मामले में क्या हुआ। इन दिनों बीजेपी और जदयू के करीब आने की चर्चा उठती रहती है, कभी बीजेपी का कोई नेता मिले तो सीडी की याद दिला दीजिएगा।

बिहार विधानसभा चुनाव में राजद सदस्यों के खिलाफ स्टिंग आता है। जहानाबाद से उम्मीदवार मुंद्रिका सिंह यादव, मखदूमपुर से सूबेदार दास और घोसी से राजद उम्मीदवार कृष्णा नंदन वर्मा के भाई को कथित रूप से रिश्वत लेते दिखाया जाता है। ज़ाहिर है इस स्टिंग को लेकर भी ख़ूब हंगामा हुआ होगा। ज़ाहिर है डिबेट भी हुआ होगा।

बंगाल विधानसभा चुनावों के दौरान दो साल पुराना स्टिंग कहीं से ऊपर हो जाता है। तृणमूल के छह सांसद, तीन मंत्री और दो विधायक किसी कंपनी को लाभ पहुंचाने के लिए कथित रूप से रिश्वत लेते दिखाये जाते हैं। बीजेपी ने ममता बनर्जी से इस्तीफे की मांग की थी। तृणमूल ने नारद स्टिंग को फर्ज़ी बताया था। आज तक पता नहीं चला कि उस वीडियो का क्या हुआ। मगर रातों को चैनलों पर एंकरों के नथुने कितने फूले होंगे जब वे इस रत्ती भर भ्रष्टाचार बर्दाश्त न करने के किसी अज्ञात प्रोपेगैंडा को दर्शकों के दिलो दिमाग़ मे उतार रहे होंगे। दर्शक भी कमाल के होते हैं। एंकरों की करतूत को चुपचाप शीशे में उतारते रहते हैं।

चुनावी स्टिंग एक हथियार है। इन तीन चुनावों के स्टिंग यह भी बताते हैं कि जनता इस खेल को समझ जाती है। एंकरों और प्रवक्ताओं की नैतिकताएं जब एक दल के प्रवक्ताओं की ज़ुबान से मेल खाने लगती हैं तो जनता समझ जाती है। तीनों राज्यों में ग़ैर भाजपा दलों की जीत होती है। इसलिए हैरानी हो रही है कि अभी तक मीडिया ने भाजपा विरोधी दलों के ख़िलाफ़ पत्रकारिता क्यों नहीं शुरू की है? वही मतलब स्टिंग क्यों नहीं किया है? ग़ैर भाजपा दलों के ख़िलाफ़ ही पत्रकारिता है। उत्तराखंड तो स्टिंग के लिए सबसे बेहतर राज्य है। अभी तक हरीश रावत पैसे लेते या देते क्यों नहीं दिखे हैं।

मेरी राय- चुनाव आयोग को एक राय देना चाहता हूं। कि चुनाव के दौरान वे किसी भी प्रकार के स्टिंग पर रोक लगा दें। फालतू बहस में समय बर्बाद होता है और जनता के असली मुद्दों को कम जगह मिलती है। बहस का नतीजा कुछ नहीं निकलता मगर प्रवक्ताओं के घटिया शॉल की डिज़ाइन देखकर लोग लोकल मार्केट से ख़रीद लाते हैं। इससे राजनीति का पहनावा बिगड़ रहा है।

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