प्रधान सेवक के तीन साल

तीन साल पहले 16 मई को इस देश की जनता ने नरेंद्र दामोदर दास मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर मुहर लगाई थी। जवाब में मोदी ने विनम्रतापूर्वक खुद को ‘प्रधान सेवक’ बताया था। तीन साल बाद सवाल उठना लाजिमी है कि उनका ‘सेवाकाल’ कैसा रहा?

लोकतंत्र में कोई सत्य सार्वजनीन नहीं होता। मत और मतांतर इस शासन प्रणाली के प्राण हैं, इसीलिए जनादेश को नेताओं के कामकाज का रिपोर्ट कार्ड माना जाता है। इस कसौटी पर मोदी खरे उतरे हैं। दिल्ली और मुंबई के नगर निगमों के अदना चुनावों से लेकर उत्तर प्रदेश तक, वही भाजपा का चेहरा थे। शुरुआत में दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी को भले ही हारना पड़ा, पर बाकी चुनावों में बहुमत का आंकड़ा उनके पक्ष में गया। आप इसे क्या कहेंगे?

इंदिरा गांधी के बाद वह सर्वाधिक ‘बोल्ड’ सत्तानायक के तौर पर उभरे हैं।
चीन से कड़ी बात कहनी हो अथवा पाकिस्तानी धरती पर पल रहे आतंकवाद को सीमा पार कर सबक सिखाना हो, या फिर अचानक बडे़ नोटों को बंद कर देने का फैसला हो, हरेक में उनकी अदम्य इच्छाशक्ति स्पष्ट दिखाई दी। जनता ने इसे पसंद किया। संसार के सबसे बडे़ लोकतंत्र को इस बात का इलहाम हो गया है कि उसके पास शक्तिशाली बनने की सामर्थ्य है। इसीलिए उसे लिजलिजे और अति बौद्धिक नेताओं की जगह मजबूत सत्तानायक रास आने लगे हैं।

नरेंद्र मोदी और उनके साथी इस तथ्य को पहचान गए हैं।
वे जानते हैं कि सिर्फ इतना भर कह देने से बहुत दिन काम नहीं चलने वाला कि साठ साल इस देश में कोई काम नहीं हुआ। इसीलिए वे असंभव से लगने वाले लक्ष्य गढ़ते हैं। मसलन, अब वे 2019 का नहीं, 2022 का ‘एजेंडा सेट’ करने में लगे हैं। 2022, यानी देश की आजादी की 75वीं सालगिरह। हरेक को यह सुनना अच्छा लगता है कि 75 साल का आजाद भारत बेहद बलशाली होगा। कहने की जरूरत नहीं, 2022 को सार्थक बनाने के लिए जरूरी है कि भारतीय जनता पार्टी 2019 में एक बार फिर सत्ता हासिल करे।

मूर्त को अमूर्त और अमूर्त को मूर्त बनाने की कला कोई उनसे सीखे।
मोदी यह भी जानते हैं कि उनके बहुत से वायदे अभी तक आकार नहीं ले सके हैं। नोटबंदी के बावजूद माओवादी आतंकवाद खत्म नहीं हुआ है। भारतीय फौजियों की देह क्षत-विक्षत कर पाकिस्तान ने ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ का जवाब दे दिया है। कश्मीर में पत्थरबाज लौट आए हैं। एक करोड़ नौकरियां पैदा करने का वायदा और हर खाते में 15 लाख रुपये देने की इच्छा अभी तक पूरी नहीं हो सकी है। विपक्ष को उम्मीद थी कि दो साल बीतते न बीतते अधूरे वायदों का अंधियारा उनकी चमक को लीलने लगेगा। इंदिरा और राजीव गांधी के प्रचंड बहुमत को भी यही ग्रहण लगा था, पर पांच राज्यों के पिछले चुनावों ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया है।

वजह साफ है। तीन साल के कार्यकाल में प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडल ने परिश्रम के सारे ‘रिकॉर्ड’ तोड़ दिए हैं। उन पर और उनके सहयोगियों पर कोई भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगा सका है। यही नहीं, उन्होंने हर अवसर पर खुद को विनम्र और निचले तबके से आए व्यक्ति के रूप में पेश किया। आपको याद होगा कि बहुमत हासिल करने के बाद संसद की सीढ़ियां चढ़ने से पूर्व उन्होंने काफी देर के लिए अपने माथे को संसद की पहली सीढ़ी पर टिका दिया था। लुटियन्स दिल्ली के सफेदपोशों ने हमेशा उन्हें बददिमाग, बदजुबान और तानाशाह साबित करने की कोशिश की थी, इसीलिए दिल्ली के भद्रलोक में नरेंद्र दामोदर दास मोदी नए अवतार में अवतरित थे।

उन्होंने विदेशी दौरों में अपनी नई ‘इमेज’ गढ़ी। देश के अंदरूनी हिस्सों में जहां गए, स्थानीय मुद्दों को छुआ। अपनी अद्भुत भाषण-शैली से लोगों को लुभाया। नतीजतन, एक मजबूत और जनहित चिंतक प्रधानमंत्री की छवि उन्हें जीत पर जीत दिलाए जा रही है। विपक्ष के आरोप भोथरे साबित हो रहे हैं, क्योंकि मोदी यह जताने में कामयाब रहे हैं कि मैं और मेरे साथी पूरी ईमानदारी से काम कर रहे हैं। आज नहीं तो कल हमारे वायदे और जनता के सपने जरूर पूरे होंगे।

ऐसा नहीं है कि देश में ईमानदार और मेहनती राजनेताओं का अकाल पड़ गया है। बिहार के नीतीश कुमार और त्रिपुरा के माणिक सरकार की ईमानदारी पर उनके विपक्षी तक सवाल नहीं उठाते। प्रधानमंत्री ने मेहनत, लगन और ‘चेंज मैनेजमेंट’ की आदत से प्रतिपक्ष के ‘स्पेस’ को सिमटने पर मजबूर कर दिया है। मोदी सतर्क हैं कि उनकी छवि पर कोई धब्बा न लगे। लिहाजा वह खुद को बदलने के लिए तैयार रहते हैं। जब खबर उड़ी कि वह 10 लाख का सूट पहनते हैं और उनकी सरकार ‘सूट-बूट की सरकार’ है, तो उन्होंने शाब्दिक बचाव की बजाय अपना कलेवर बदलने पर जोर दिया। वह सलीके से कपडे़ पहनते हैं, लेकिन अब उनके पहनावे पर कोई विलासिता का आरोप नहीं लगा सकता।

उनको मालूम है कि मजबूत संगठन के बिना कोई भी सत्ताई बहुमत सार्थक साबित नहीं होता। इसीलिए पार्टी के अध्यक्ष पद पर उन्होंने अपने भरोसेमंद सहयोगी अमित शाह को बैठाया। शाह ने भी आशा के अनुरूप भाजपा को वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आज इस पार्टी के चेहरों में अगर संघ की शाखाओं से निकले लोग हैं, तो ‘वॉर्टन’ और ‘कैंब्रिज’ में पढ़े पदाधिकारी भी हैं। सेना के जनरल हैं, तो किसानों के बीच से आए कार्यकर्ता भी। उनके सहयोगी बताते हैं कि मोदी और शाह विधानसभाओं के घोषणापत्र जारी करने से पहले हर वायदे पर एक सवाल जरूर करते हैं कि यह पूरा कैसे होगा? लोकसभा चुनावों के लंबे-चौडे़ वायदों के दबाव से मुक्त होने का यह एक सकारात्मक तरीका है।

नरेंद्र मोदी को अंदाज है कि 2019 में उनका पाला संयुक्त विपक्षी मोर्चे से पड़ सकता है। यह लड़ाई आसान नहीं होने वाली। कोई कसर न रह जाए, इसके लिए चुनाव से लगभग ढाई साल पहले ही एनडीए ने मोदी को अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया है। यह तब हुआ, जब विपक्षी एकता की खबरें सिर्फ सोशल मीडिया और मुख्यधारा के मीडिया के कोनों-कतरों में उड़ रही थीं। इसके बाद प्रतिपक्ष के सामने यक्ष प्रश्न खड़ा हो गया कि प्रधानमंत्री पद के लिए कौन उसका उम्मीदवार होगा? राहुल गांधी? नीतीश कुमार? ममता बनर्जी या कोई और? अगर वे बिना चेहरे के चुनाव लड़ेंगे, तो एनडीए को उनकी खिल्ली उड़ाने का मौका मिल जाएगा कि अभी से उड़ती गिल्लियों वाले लोग अपना विकेट कैसे बचाएंगे!

जाहिर है, विपक्ष को जो करना है, जल्दी करना है, पर आनन-फानन में यह हो कैसे?
इसीलिए जानकार लोग राष्ट्रपति के अगले चुनाव पर गिद्ध-दृष्टि लगाए हुए हैं। यह तय है कि देश के प्रथम नागरिक के चुनाव में एनडीए प्रत्याशी जीतेगा और विपक्ष अगर लड़ता है, तो यह लड़ाई सांकेतिक होगी। लोकतंत्र में संकेतों और व्यक्तित्वों का बहुत महत्व है।
विपक्षी एकता का यह पहला ‘लिटमस टेस्ट’ होगा और उसकी अनुगूंज 2019 तक सुनाई देगी।
@shekharkahin
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