शॉर्टकट के फार्मूले ने चौपट की निष्पक्ष पत्रकारिता

समाज के सभी क्षेत्रों में गिरावट आई है, पत्रकारिता को ही क्यों दोषी ठहराएं? क्या राजनीति में गिरावट नहीं आई है? जीवन के हर क्षेत्र में पैसे का महत्व बहुत बढ़ गया है। नैतिक मूल्यों का पतन हुआ है। नैतिकता एक बहुत निजी मामला है। आजकल ज्यादातर लोग शॉर्टकट ढूंढते हैं। इसी में नैतिकता को किनारे रख देते हैं। अखबारों ने भी नैतिकता के मामले में ढील देना शुरू कर दिया। नैतिकता का अचानक गिरना, पुराने उसूल और सिद्घातों को ठुकरा दिया गया। उसके बदले, लोग ‘सब चलता हैÓ रवैया अपनाने लगे।  यह बातें वरिष्ठï पत्रकार डॉ. संतोष कुमार तिवारी ने निष्पक्ष दिव्य संदेश के संवाददाता त्रिनाथ के. शर्मा को दिए गए एक साक्षात्कार में कही। पेश हैं बातचीत के सम्पादित अंश…

प्रश्न:-कैसा था आपका बाल्य जीवन और शैक्षिक सफर?
उत्तर:-जन्म मेरा 31 जुलाई 1951 को लाल कुआं, लखनऊ में हुआ था। पिता स्व.गया प्रसाद तिवारी ‘मानसÓ जो सरकारी नौकरी में थे। माता जी स्व.श्रीमती मनोरमा तिवारी एक गृहणी थी। मेरी प्रारंभिक शिक्षा नवयुग सरकारी स्कूल से हुई। हाईस्कूल और इंटरमीडियट कान्यकुब्ज कालेज से किया। वर्ष 1974 में  बीएससी,कान्यकुब्ज वोकेशनल डिग्री कालेज किया। एमएससी, एलएलबी और वर्ष 1981 में एलएलएम लखनऊ विश्वविद्यालय से किया। बाल्य जीवन साधारण था,परंतु अच्छा था। कोई आर्थिक संकट नहीं था।  बीएससी करने के बाद की मेरी सारी शिक्षा पत्रकारिता करने के साथ-साथ हुई।
प्रश्न:-पत्रकारिता में कैसे रूझान हुआ?
उत्तर:- पत्रकारिता की ओर रुझान बचपन से ही था। जब कक्षा छह में था, तब हमारे द्वारा लिखी छोटी-छोटी कहानियां नवजीवन अखबार में  छपती थी। कक्षा आठ में कादंबिनी नई दिल्ली में भी मेरी एक रचना छपी थी। वर्ष 1970 में मैंने अपनी मासिक पत्रिका तरुण प्रहरी निकाली थी। तरुण प्रहरी दो-तीन साल चली फिर बंद करना पड़ गया। इसके बाद वर्ष 1973 और 1974 में मैंने बच्चों के लिए एक मासिक पत्रिका निकाली थी बाल बंधु। वह भी तीन साल चली फिर बंद करना पड़ गया। फिर स्वतंत्र पत्रकारिता का दामन था। वर्ष 1979 में जब नरेंद्र मोहन गुप्ता ने जब लखनऊ से दैनिक जागरण निकालने के लिए अपनी अपनी पहली टीम मेरा भी चयन किया गया। मैंने वहां उपसंपादक के पद पर काम किया था। शुरू के दौर में कुछ दिन नरेंद्र मोहन ने भी हम लोगों के साथ संपादकीय विभाग में बैठकर कुछ घंटे काम भी करते थे। जिससे प्रेरणा मिलती थी। जब अमृत प्रभात का लखनऊ से प्रकाशन शुरू हुआ, तब मैंने अमृत प्रभात ज्वाईन कर लिया था। इसके बाद  लखनऊ से नवभारत टाइम्स में भी कार्य करने का मौका मिला।  इस प्रकार मुझे तीनों प्रतिष्ठिïत दैनिक अखबारों में काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वर्ष 1982 में मैंने पत्रकारिता का एक कोर्स टॉमसन फाउंडेशन फेलोशिप पर लंदन स्कूल ऑफ  प्रिंटिंग लंदन से  किया। वर्ष 1989 मुझे ब्रिटिश सरकार ने पीएच.डी. करने के लिए एक फेलोशिप दी थी। मैंने ब्रिटेन के कार्डिफ  विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में पीएच.डी. की थी। नवभारत टाइम्स से 3 वर्ष का अवैतनिक अवकाश लेकर मैं इंग्लैंड पीएच.डी. करने के लिए गया था। वापस आकर फिर नवभारत टाइम्स लखनऊ में अपनी नौकरी फिर शुरू कर दी। वर्ष जून 1993 में लखनऊ नवभारत टाइम्स का प्रकाशन मालिकों ने अचानक बंद कर दिया। इसे मैं बेरोजगार हो गया। मेरे एक परम मित्र सीताराम निगम ने मुझे राय दी कि अब मुझे पत्रकारिता पढ़ाने में दिलचस्पी लेनी चाहिए। मैंने इधर-उधर विश्वविद्यालयों में नौकरी ढूंढनी शुरु की। वर्ष 1994 में मेरा चयन हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय शिमला में पत्रकारिता विभाग में रीडर अर्थात एसोसिएट प्रोफेसर के पद के लिए हुआ। वहां मैंने वर्ष जून 1996 तक नौकरी की। इस बीच मेरा चयन प्रोफेसर के पद के लिए असम केंद्र्रीय विश्वविद्यालय सिलचर में हुआ। मैं असम में लगभग एक वर्ष रहा। इसके बाद मेरा चयन महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय बड़ौदा गुजरात में प्रोफेसर के पद के लिए हुआ। वहां मैंने पत्रकारिता विभाग में वर्ष 1997 से लेकर 2011 तक सेवा की। वर्ष 2011 में मेरा चयन झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय रांची में जनसंचार के प्रोफेसर के पद के लिए हुआ। वर्ष 2011 से 2016 तक झारखंड में रहा। जुलाई 2016 में वहां से रिटायर होकर अपने गृह नगर लखनऊ में वापस आ गया। इस समय स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहा हूं। अभी हाल में पांचजन्य नई दिल्ली में मेरा लेख ‘गीता प्रेस को बदनाम करने की कोशिशÓ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। दो किताबें भी लिख रहा हूं।
प्रश्न:-पत्रकारिता में गिरावट आई के लिए आप किसे दोषी मानते हैं। 
उत्तर:-सभी क्षेत्रों में गिरावट आई है पत्रकारिता को ही क्यों दोषी ठहराएं? क्या राजनीति में गिरावट नहीं आई है? जीवन के हर क्षेत्र में पैसे का महत्व बहुत बढ़ गया है और नैतिक मूल्यों का पतन हुआ है। नैतिकता एक बहुत निजी मामला है। आजकल ज्यादातर लोग शॉर्टकट ढूंढते हैं। इसी में नैतिकता को किनारे रख देते हैं। अखबारों ने भी नैतिकता के मामले में ढील देना शुरू कर दिया। नैतिकता का अचानक गिरना? पुराने उसूल और नैतिक सिद्घातों को ठुकरा दिया गया।  
उसके बदले, लोग ‘सब चलता हैÓ रवैया अपनाने लगे।
प्रश्न:-पत्रकारों पर हो रहे हमलों पर आपकी क्या राय है? 
उत्तर:- अगर पत्रकारिता को लेकर किसी पत्रकार पर कोई हमला होता है, तो उसमें दोषियों को कड़े  से कड़ा दंड मिलना चाहिए। उस पत्रकार को सरकार के माध्यम से आर्थिक मदद भी मिलनी चाहिए।  ये हमले इसलिए हो रहे हैं क्योंकि कुछ माफिया लोग अखबार का और पत्रकार का मुंह बंद कर देना चाहते हैं। इन माफियाओं को याद करना चाहिए कि देश को आजाद करने में पत्रकारों की भी अहम भूमिका रही है। आजादी के दौरान भारत का कोई प्रांत ऐसा नहीं था जिसने राष्ट्रीयता का प्रचार करने वाले अखबार और पत्रकारों को जन्म न दिया हो।
प्रश्न:-विज्ञापन की होड़ में प्रिंट मीडिया को कितना प्रभावित किया है? 
उत्तर:- हां, कुछ हद तक विज्ञापन की वजह से खबरें प्रभावित होती हैं।  प्रिंट मीडिया बुरी तरह प्रभावित हुआ है अब तमाम विज्ञापन टेलीविजन मीडिया और ऑनलाइन मीडिया की ओर जाने लगे हैं। समस्या यह है कि खाना उतना ही है, खाने वालों की संख्या बहुत बढ़ गई है।
 प्रश्न:-क्या आप मानते है कि समाचार पत्रों के सम्पादक मात्र सिम्बल बनकर ही रह गये हैं? 
उत्तर:- पहले समाचार पत्रों में सम्पादकों को पूरी स्वतंत्रता होती थी। मालिक भी हस्तक्षेप नहीं करते थे। इसी का उदाहरण रहा है कि जो स्वतंत्रता माथुर जी को नवभारत टाइम्स में थी, सत्यनारायण जायसवाल जी को अमृत प्रभात में थी, प्रभाष जोशी जी को जनसत्ता में थी, वैसी स्वतंत्रता आज के संपादकों को नहीं मिल पा रही है। अब समाचार पत्रों की नीति अखबार के मालिक व मैनेजर तय करते हैं। जिससे आप सहज अंदाजा लगा सकते हैं कि अखबारों के प्रकाशन में कितनी दखलअंदाजी बढ़ी है।
प्रश्न:-क्या आप मानते हैं कि पत्रकार संगठन अपना दायित्व ईमानदारी से निभा रहे हैं? 
उत्तर:- नहीं। सच तो यह है कि भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में हाल के वर्षो में ट्रेड यूनियन संगठन बहुत कमजोर हो गए हैं। पत्रकार संगठनों का यह सवाल बहुत गंभीर और चिंताजनक है। पत्रकार संगठनों की कार्यप्रणाली पर सवाल उठने लगा है। इस बारे में पत्रकार संगठनों को आत्मलोचन, आत्मनिरक्षण संगठनों के नेतृत्व धारियों को करने की सख्त जरूरत है।
 प्रश्न:-मोदी सरकार ने मीडिया पर अंकुश लगाने और छोटे व मझौले समाचार पत्रों पर मनमानी नीति थोपने को आप किस नजरिए से देखते है ? 
उत्तर:- मोदी सरकार और छोटे और मझोले अखबारों को ही क्यों दोष दें  बड़े अखबार तो हमेशा से सरकार के पिट्ठू रहे हैं। अब पत्रकारिता का जो दौर चल रहा है उससे जनपदीय और आंचलिक पत्रकारिता को निगल लिया है। इन दिनों लघु समाचार पत्र, आंचलिक पत्रकारिता दम तोड़ चुकी है। सरकार तथा पत्रकार संगठन को दम तोड़ चुकी पत्रकारिता को पुर्नजीवित तथा संरक्षित करने की जरूरत है।
प्रश्न:-भविष्य की पत्रकारिता कैसी होगी? 
उत्तर:- भविष्य की पत्रकारिता में सोशल मीडिया और ऑनलाइन मीडिया की बड़ी भूमिका होगी। तकनीक तेजी से पत्रकारिता के स्वरूप को बदल रही है। प्रिंट मीडिया का अस्तित्व तो जरूर बरकरार रहेगा। लेकिन ऑन लाइन मीडिया दुनिया के किसी भी व्यक्ति के पास हर समय हर पकड़ में रहेगी।
प्रश्न:-युवा पत्रकार के लिए आप क्या संदेश देना चाहते हैं? 
उत्तर:- पत्रकारिता जोखिम भरा पेशा है। ज्यादा से ज्यादा अध्ययन करें। और यह जान लें कि एवरेस्ट पर चढऩे का कोई शॉर्टकट नहीं है।
प्रश्न:-हिन्दी साप्ताहिक निष्पक्ष दिव्य संदेश समाचार पत्र के बारे में आपके क्या विचार हैं? 
उत्तर:- मैंने स्वयं छोटी छोटी पत्रिकाएं निकाली है और बड़े अखबारों में काम किया है। इसलिए मैं जानता हूं और अनुभव कर सकता हूं कि आप का दिव्य संदेश इस समय किन-किन कठिन परिस्थितियों से जूझ रहा होगा।

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