हम हैं यूपी के पत्रकार, फर्जी दस्तावेज़ के सहारे रियायती दर पर जमीन और सरकारी मकान पर जमा रखा है कब्ज़ा, 2500 से कम वेतन वाले के लिए हैं सरकारी आवास
जानकार सूत्रों की मानें तो वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को इस सम्बन्ध में जानकारी मुहैया करायी जा चुकी थी। इसके बावजूद उक्त पत्रकारों के खिलाफ फर्जी दस्तावेज के सहारे मकान हथियाने के मामले में धोखाधड़ी से सम्बन्धित धारा 420 के तहत न तो मुकदमा दर्ज कर कार्रवाई की गयी और न ही सरकारी मकानों से उन्हें बेदखल ही किया गया।
कुछ पत्रकार फर्जी दस्तावेजों के सहारे ले रहे लाभ
एनडी तिवारी के कार्यकाल में शुरू की गई थी सुविधा
मान्यता रद्द होने के बाद भी काबिज हैं पत्रकार
सरकार फर्जी तरीके से लाभ लेने वालों के खिलाफ कार्रवाई के मूड में नहीं
नियमावलियों का उल्लंघन कर रहे हैं कई पत्रकार
नियमावली के विपरीत हुए हैं कई मकानों के आवंटन
दबाव के चलते सम्पत्ति विभाग नहीं कर पा रहा कार्रवाई
राजधानी लखनऊ से जुड़े कुछ कथित पत्रकारों ने रियायती दरों पर मकान की सुविधा लेने के साथ ही सरकारी मकानों पर फर्जी दस्तावेजों के सहारे कब्जा जमा रखा है। इस बात की जानकारी सम्बन्धित विभाग को भी है लेकिन वह अनजान बना हुआ है। यहां तक कि इस सम्बन्ध में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भी समस्त दस्तावेजों सहित जानकारी मुहैया करायी जा चुकी है, इसके बावजूद फर्जी दस्तावेजों के आधार पर सरकारी भवनों पर कुण्डली मारकर बैठे कथित पत्रकारों के खिलाफ न तो विधिक सम्मत कार्रवाई की जा रही है और न ही सरकारी भवनों से कब्जा वापस लिया जा रहा है। गौरतलब है कि प्रमुख सचिव ‘‘मुख्यमंत्री’’ ने जांच के बाद शिकायत कर्ताओं को कार्रवाई का आश्वासन दिया था लेकिन पत्रकारों के फर्जीवाडे़ से जुड़ा यह प्रकरण उनमें हिम्मत पैदा नहीं कर पा रहा है।
सम्बन्धित विभाग भी उनके खिलाफ कारवाई करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। कई कथित पत्रकार ऐसे हैं जिनका कई महीनों से किराया बकाया होने के साथ ही भारी-भरकम बिजली का बिल भी बाकी है। चूंकि सत्ता के गलियारों से लेकर नौकरशाही तक ऐसे पत्रकारों का बोलबाला है लिहाजा सरकार चाहकर भी नियमों के तहत इनके खिलाफ कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है। बताया जाता है कि एक ऐसे ही कथित वरिष्ठ पत्रकार को लाभ पहुंचाने की गरज से पॉवर कार्पोरेशन के एमडी ने लगभग पांच लाख का बिल माफ करके उन्हें राहत पहुंचायी।
गौरतलब है कि आज से लगभग तीन दशक पूर्व 21 मई 1985 को कांग्रेसी नेता व पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के शासनकाल में राजधानी लखनउ के पत्रकारों को सरकारी आवास की सुविधा देने की गरज से तत्कालीन प्रदेश सरकार ने एक नीति बनायी थी। इस नीति के तहत पत्रकारों को सरकारी बंगलों को लाभ देने की जिम्मेदारी राज्य सम्पत्ति विभाग के अनुभाग-2 को सौंपी गयी थी। बैठक में करीब दर्जन भर बिन्दुओं पर विचार-विमर्श के साथ नियमावली लागू की गयी थी। ज्ञात हो सरकार का यह कदम उस वक्त के कुछ वरिष्ठ पत्रकारों के अनुरोध पर उठाया गया था। विडम्बना यह है कि लगभग तीन दशक पहले बनी इस नीति में आज तक कोई संशोधन नहीं किया जा सका है जबकि इस दौरान पत्रकारों के वेतन सहित उनकी आर्थिक हैसियत काफी सुदृढ़ हो चुकी है।
1985 की नियमावली के तहत जो पत्रकार ढाई हजार या फिर उससे अधिक वेतन पाते हैं उन्हें सरकारी आवास की सुविधा नहीं दी जा सकती जबकि हकीकत यह है कि वर्तमान में अखबार कार्यालय का एक चपरासी भी पांच से आठ हजार का वेतन पाता है। जहां तक पत्रकारों के वेतन की बात है तो वे भी कम से कम दस हजार रूपयों से लेकर चालीस-पचास हजार रूपए प्रतिमाह वेतन पा रहे हैं। इन परिस्थितियों में 1985 की नीति के आधार पर उन समस्त पत्रकारों से बंगले खाली करवा लिए जाने चाहिए थे जो किसी न किसी अखबार,पत्रिका में अपनी सेवाएं देकर वेतन के रूप में सरकारी आवास पाने के लिए निर्धारित वेतन से कहीं अधिक वेतन पा रहे हैं। नियमावली में स्पष्ट उल्लेख है कि जिनका निजी मकान अथवा रेंट कंट्रोल एक्ट के अन्तर्गत मकान होगा उन्हें सरकारी आवास की सुविधा नहीं दी जा सकती।
नियमावली के तहत सरकारी आवासों का आवंटन एक निर्धारित अवधि के लिए ही किए जाने का प्राविधान है। तत्पश्चात उक्त अवधि को तभी बढ़ाया जा सकता है जब समिति अनुमोदन करे। विडम्बना यह है कि उक्त नियमों का कहीं भी पालन नहीं किया जा रहा है। कई-कई पत्रकार तो दशकों से सरकारी आवासों पर कब्जा जमाकर बैठे हैं। कई ऐसे हैं जो अखबार से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। कुछ तो ऐसे हैं जिनकी मृत्यु हो चुकी और उनके परिवार वाले सरकारी आवास का लाभ उठा रहे हैं। गौरतलब है कि नियमावली में स्पष्ट उल्लेख है कि पत्रकारों के आवास तभी तक उनके पास होंगे जब तक वे लखनउ में किसी मान्यता प्राप्त अखबार में कार्यरत रहेंगे। सेवानिवृत्त हो जाने के बाद अथवा तबादलदा हो जाने की स्थिति में उनका आवंटन स्वतः निरस्त कर दिया जायेगा। जानकार सूत्रों की मानें तो कुछ कथित पत्रकार ऐसे हैं जिनका दूर-दूर तक पत्रकारिता से कोई सम्बन्ध नहीं है इसके बावजूद वे सरकारी आवासों का लाभ पत्रकार कोटे से उठा रहे हैं।
तत्कालीन प्रदेश सरकार के निर्देश पर शासन की ओर से जारी नियमावली में मान्यता प्राप्त संपादकों, उप संपादकों और ऐसे पत्रकारों को सरकारी आवास आवंटन किए जाने की सुविधा दी गयी थी जो पूर्ण कालिक रूप से समाचार-पत्र कार्यालय में सेवारत हों। साथ ही उनके समाचार पत्रों का पंजीकृत कार्यालय राजधानी लखनउ में हो। सरकारी मकान आवंटन में कोई त्रुटि न होने पाए इसके लिए सचिव मुख्यमंत्री की देख-रेख में एक समिति का भी गठन किया गया था। इस समिति में सचिव मुख्यमंत्री के साथ ही सचिव राज्य सम्पत्ति विभाग, सूचना निदेशक सहित राज्य सम्पत्ति विभाग के कई अधिकारी भी शामिल थे। इस समिति के पदाधिकारियों की जिम्मेदारी पत्रकारों की ओर से दिए गए प्रार्थना-पत्रों की गहनता से छानबीन के साथ मकान आवंटन की संस्तुति करने की है।
जानकार सूत्रों के दावों की मानें तो राज्य सम्पत्ति विभाग अपने दायित्वों का सही तरीके से निर्वाहन नहीं कर पा रहा है। जहां तक राज्य सम्पत्ति विभाग के अधिकारियों का आरोप है तो वे अपने जिम्मेदारी का निर्वाहन उपरी दबाव के कारण नहीं कर पा रहे हैं। नाम प्रकाशित न करने की शर्त पर एक अधिकारी का कहना है कि पत्रकारों के मकान आवंटन से जुडे़ अधिकतर मामलों में सरकार के किसी न किसी मंत्री अथवा उच्चाधिकारी का सिफारिशी पत्र लगा होता है। ज्यादातर मामलों में तो फाईल पहुंचने से पहले ही अधिकारी अथवा मंत्री-नेता का सिफारिशी फोन आ जाता है। इन परिस्थितियों में नियमों के तहत जानकारी जुटाने का अर्थ ही नहीं रह जाता। इन अधिकारी की मानें तो पत्रकारों की फाइलों पर अक्सर सही सूचना देने पर डांट तक खानी पड़ती है। अब तो हालात यह है कि पत्रकारों के प्रार्थना-पत्रों में सच्चाई नहीं बल्कि सिफारिशी पत्रों को तलाशा जाता है। जिसके प्रार्थना-पत्र में किसी अधिकारी अथवा नेता का सिफारिशी पत्र अथवा फोन से निर्देश मिलते हैं उसी को प्राथमिकता के आधार पर सरकारी मकानों पर कब्जा दिला दिया जाता है।
नियमानुसार सरकारी आवास उन्हें ही दिए जाने का प्राविधान है जिनका निजी मकान लखनउ में न हो। साथ ही ऐसे पत्रकारों का मान्यता प्राप्त होने के साथ ही अखबार में पूर्ण कालिक सेवा का होना जरूरी है। इतना ही नहीं नियमों में साफ कहा गया है कि उन्हीं पत्रकारों को सरकारी मकान की सुविधा दी जायेगी जिनके समाचार पत्र का पंजीकृत कार्यालय लखनउ में होगा। राज्य सम्पत्ति विभाग के इन नियमों की भी खुलेआम धज्जियां उड़ायी जा रही हैं। सैकड़ों की संख्या में ऐसे पत्रकारों को मकानों का आवंटन कर दिया गया जिनका पंजीकृत कार्यालय लखनउ में नहीं है।
पत्रकारों के लिए सरकारी आवासों का किराया भी 1985 की नियमावली के आधार पर वसूला जा रहा है जबकि वर्तमान कोई पत्रकार ऐसा नहीं जिसका वेतन दस से हजार से कम हो। ऐसी परिस्थितियों में या तो सरकार को 2500 से अधिक वेतन पाने वालों से सरकारी आवास खाली करवा लेना चाहिए या फिर नयी नियमावली बनाकर किराए में भी वृद्धि की जानी चाहिए। साफ जाहिर है इतनी कम वसूली के कारण राज्य सम्पत्ति विभाग के अधीन इन सरकारी आवासों की देख-रेख स्तरीय नहीं हो पा रही है। 1985 की व्यवस्था के मुताबिक राजधानी की अति विशिष्ट कालोनी गुलिस्तां कालोनी और राजभवन कालोनी का किराया आज भी 40 पैसा प्रति वर्ग फीट के हिसाब से वसूला जा रहा है। पार्क रोड, कैसरबाग, डालीबाग, दिलकुशा और तालकटोरा के आवासों का किराया 30 पैसा प्रति वर्ग फीट के हिसाब से वसूला जा रहा है। अलीगंज, तालकटोरा और इन्दिरा नगर के आवासों का किराया 20 पैसे प्रति वर्ग फीट के हिसाब से वसूला जा रहा है।
प्राप्त जानकारी के अनुसार राज्य सम्पत्ति विभाग का कहना है कि उक्त प्रकरण में ज्यादातर पत्रकारों ने जवाब देकर बता दिया था कि वे अवैध रूप से नहीं बल्कि सही तरीके से मकान पर काबिज हैं। विभाग ने भी बिना जांच किए उनके हलफनामे को सही मानकर उनके कब्जे को बरकरार रखा। जिन्होंने हलफनामा नहीं दिया था उन्हें कई बार नोटिसें जारी की गयीं लेकिन किसी ने भी मकान पर से कब्जा नहीं छोड़ा।
कुछ पत्रकारों की मान्यता समाप्त हो चुकी है इसके बावजूद मकान उन्हीं के कब्जे में हैं। ओसीआर विधायक निवास पर तैनात राज्य सम्पत्ति विभाग के एक कर्मचारी का दावा है कि इन आवासों में ज्यादातर मूल आवंटी नहीं रहता। ज्यादातर मकान किराए पर उठे हुए हैं। कुछ मकान तो महज शराबखोरी और ऐयाशी के लिए ही आवंटित कराए गए हैं। इस कर्मचारी का कहना है कि इस बात की जानकारी सम्बन्धित विभाग के शीर्ष अधिकारी को भी दी जा चुकी है लेकिन आज तक किसी भी पत्रकार के मकान की न तो औचक जांच की गयी और न ही गैर-कानूनी ढंग से रह रहे पत्रकारों से मकान ही खाली करवाया जा रहा है।
नेता, मंत्री और नौकरशाही के भ्रष्टाचार को उजागर करते-करते लखनउ के पत्रकार भी अब भ्रष्टाचार की गंगोत्री में डुबकी लगा रहे हैं। अनेकों बार राजनीति घरानों से लेकर नौकरशाहों तक ने मीडिया के भ्रष्टाचार पर उंगली उठायी है। एक प्रशासनिक अधिकारी ने तो इस संवाददाता से यहां तक कहा कि पत्रकार अपने मकानों के आवंटन के घिघियाता है। निश्चित तौर पर मीडिया के लिए यह शर्मनाक स्थिति है। इन अधिकारी का कहना है कि समाज और सरकार के बीच सेतु का काम करने वाले कुछ पत्रकारों ने अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए प्रतिष्ठित पेशे को बदनाम कर रखा है। चौंकाने वाली बात यह है कि शासन भी ऐसे पत्रकारों के खिलाफ ठोस कार्रवाई करने के मूड में नहीं है।
जानकार सूत्रों का कहना है कि कई पत्रकार तो ऐसे हैं जिन्होंने अपने अनुदानिद मकानों और प्लॉटों को महंगे दामों में बेच भी दिया है। इतना ही नहीं कई पत्रकार ऐसे हैं जो करोड़पति हैं। लखनऊ में उनके कई विशालकाय निजी आवास हैं, इसके बावजूद वे सरकारी मकानों पर कुण्डली जमाकर बैठे हैं। इनमें से कई पत्रकारों ने सत्ता और शासन में अपनी मजबूत पकड़ के बलबूते अपने रिश्तेदारों के नाम पर लखनऊ विकास प्राधिकरण और आवास विकास की कई योजनाओं में कई-कई प्लाट और आवास आवंटित करवा लिए हैं।