अब समझ आया, आपको इतना क्यों गरियाते हैं लोग
प्रिय रवीश जी और आप जैसे सभी पत्रकार,
मध्यप्रदेश की जेल से फ़रार आतंकवादियों की याद में आज फिर आपको आँसू बहाते देखा तो समझ में आया कि लोग आपको इतना गरियाते क्यों है?
जो बात मुझ जैसे साधारण-मोटी बुद्धि वाले मूढ़मति की समझ में आ गई, वह आप जैसे गहन विश्लेषणपरक, तीक्ष्ण दृष्टि-संपन्न, स्वयंभू पत्रकार शिरोमणि को समझ नहीं आई, यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं!
आपको चिठ्ठी लिखने का बड़ा शौक है न! एक चिठ्ठी मैं भी आपको लिखना चाहता हूँ.
मैं जानता हूँ कि आप जैसे हाई प्रोफ़ाइल लोग, लोग क्यों संस्था, हम जैसे साधारण लोगों के लिखों पर नज़र नहीं डाला करते, पर इस उम्मीद में लिख रहा हूँ कि जैसे आपके दिन बहुरे वैसे कभी मेरे दिन भी फिरें और आप जैसे मठाधीश टाइप लोगों की नजरे-इनायत से यह नाचीज़ भी कोहिनूर बन चमक उठे!
चलिए आप इसे दिल बहलाना ही मानते हैं तो दिल बहलाने का हक़ क्या चचा ग़ालिब ने आपको ही दिया है! देखिए न, आपसे कुछ इस क़दर प्रभावित हुआ कि आपकी तरह प्रस्तावना में ही तमाम लाइनें और शब्द ज़ाया कर दिए.
भाई रवीश जी, आपको इस बात का बहुत दर्द है न, कि सोशल मीडिया पर भक्त लोग आपको बहुत गरियाते हैं.
ऐसी-ऐसी ताजी-टटकी गालियों की आप पर बौछार की जाती है कि बस आप आहें भरते रह जाते हैं. पर क्या कभी आपने सोचा कि वह आम आदमी वर्षों के झूठे कुप्रचार की झुँझलाहट किस पर जाकर निकाले.
आप जैसे मठाधीशों और उनके गिरोहों ने आम आदमी और उसकी सोच को धकिया-धकिया कर इस क़दर हाशिये पर धकेल दिया है कि मुख्यधारा की आवाज़ होकर भी वह मिमियाने-खिसियाने-गिड़गिड़ाने को अभिशप्त है!
अब तो ‘आम आदमी’ शब्द को भी आप ही की बिरादरी के किसी खास ने पेटेंट करा उसकी धार ही कुंद कर दी.
खैर, सभी माध्यमों पर तो आप और आपके गिरोहों ने कुंडली जमा रखी है, कोई भूला-भटका अगर उन माध्यमों में थोड़ा बहुत स्पेस पा भी जाए तो आपके सामूहिक विष-वमन का शिकार हो अपनी प्रामाणिकता खो बैठता है या अस्तित्व पर आए संकट को टालने में ही मर-खप जाता है.
मरता क्या न करता! फिर यह ज़रूरी तो नहीं कि हर कोई आप ही की तरह कलाबाजियां खाने, मुद्राएँ बनाने, कृत्रिम भाव-भंगिमाओं से अभिधा में भी लक्षणा और व्यंजना के सौंदर्य घुसेड़ने में माहिर हो!
उसे जिस मुहावरे, शैली और तेवर में अपनी बात कहनी आती है, उसमें वो अपनी बात कहता है. जरा सोचिए तो सही कि पिछली बार कब आप देश की परंपराओं और मान्यताओं के साथ खड़े थे?
विचार तो कीजिए कि भारत और भारतीयता को स्वर देने में आपकी बुद्धिमत्ता कब काम आई? शायद दिमाग पर बहुत ज़ोर डालने पर भी आपको तारीख़ और साल याद न आए.
आप कुछ भी कहें और देश सुने, आप कुछ भी दिखाएँ और देश देखे – ये तो बहुत नाइंसाफी हुई सरकार!
जब आम भारतीय मन को सही और स्वतंत्र तरीके से आप अपनी बात रखने नहीं देंगे, तो ऐसे में वर्षों से दबा ग़ुबार एक बार होठों पर आ जाए तो उसमें उस बेचारे का क्या दोष? वह तो सभी तटबंधों-रुकावटों को बहा ले जाने वाले सैलाब के रूप में ही सामने आएगा न.
जरा सोचिए तो सही कि आपने कब-कब ‘मिले सुर मेरा-तुम्हारा’ की तर्ज पर विभाजनकारी-अलगाववादी-अराष्ट्रीय शक्तियों के स्वर में स्वर मिलाया.
मोदी विरोध में आप लोग इतने अंधे हो चुके हैं कि आपने मोदी को देश और देश को मोदी मान लिया है.
आप मुद्दों का समर्थन या विरोध इस आधार पर करने लगे हैं कि मोदी जी का उस पर क्या स्टैंड होगा? सोचिए क्या यही पत्रकारिता का धर्म है? क्या देश के प्रति आप पत्रकारों का कोई कर्तव्य नहीं है?
‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ का समर्थन करने से पूर्व एक बार देश के बारे में तो सोचिए, आप और आपकी ज़मात को गोधरा याद नहीं रहता, गुजरात-दंगे पर आपका विलाप प्रलाप में तब्दील होता चला गया, पर आप लोगों ने फिर भी अपना भोंपू बंद नहीं किया.
चाहे कश्मीर हो या कन्याकुमारी, अटक हो या कटक, आपके कानों तक भारत-विरोधी स्वर पहुँच जाता है, पर केरल में स्वयंसेवकों का नरसंहार, पूर्वोत्तर में धर्मांतरण के बहाने किया जाने वाला राष्ट्रान्तरण, कम्युनिस्टिक अमानुषिकता, नक्सलवादी आतंक, बांग्लादेशी घुसपैठ, इस्लामिक कट्टरता, चीनी विस्तारवाद आदि आपको भूलकर भी नहीं दिखाई देता.
विद्रोहियों, अलगाववादियों, आतंकियों का मानवाधिकार आपको याद रहता है, उनके मानवाधिकारों के लिए आप जार-ज़ार रोते हैं, पर सैनिकों-सिपाहियों के मानवाधिकार का सवाल आपके ज़ेहन में ग़लती से भी नहीं उभरता.
बिहार में, दिल्ली में एक दल विशेष की हार से आपके सपाट चेहरे पर जयजयवंती के सुर बजने लगते हैं, आपकी बांछें ऐसे खिल जाती हैं जैसे शाहजहाँ ने ताजमहल आपकी बेग़म के ही नाम कर दिया हो!
मुआफ़ कीजिए, पर आप अपना एक काम तो बताइए जो आपको निष्पक्ष, न्यायप्रिय साबित करे.
गाय-गंगा-गीता, माँ-माटी-मातृभूमि के पक्ष में खड़ा व्यक्ति चाहे कितना भी तार्किक क्यों न हो आप और आपकी ज़मात को कोरा भावुक और भक्त ही नज़र आता है.
ईद आपको सद्भावना का प्रतीक नज़र आता है और दीपावली प्रदूषण-पर्व, होली जल की बर्बादी, दुर्गा पूजा बलि वेदी और बक़रीद पशु-प्रेम की जिंदा मिसाल, शिवजी की बरात हुड़दंगियों की टोली और ताजिए का जुलूस अमन का पैगाम!
आप क्रांतिकारियों को आतंकवादी पढाएं, शिवाजी को लुटेरा बताएँ, संघियों को हुड़दंगी बताएँ, देशभक्तों को उत्पाती-उपद्रवी भीड़ कहें, सब चलता है!
कुल मिलाकर माध्यमों पर काबिज़ हो चरित्र प्रमाण-पत्र बाँटने का हक आपको है, पर आपसे थोड़ी भी असहमति जतलाने का अख़्तियार देशवासियों को नहीं!
अच्छा आप ही बताइए कि यदि आम आदमी शिष्ट-शालीन तरीके से अपनी बात रखना भी चाहे तो कहाँ रखे?
प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों, अकादमिक-साहित्यिक जमातों के अभेद्य किलों की लाल प्राचीरों के प्रवेश-द्वार के भीतर प्रविष्ट करना तो दूर,उसे वहाँ खड़े होने तक की सुविधा-सहूलियत-इजाज़त नहीं है!
ऐसे में यदि उसके विचार भड़ास बन विस्फ़ोटक रूप ले लें तो उसमें उस बेचारे का क्या दोष?
आप ईमानदारी का चोला पहन सबको करैक्टर-सर्टिफिकेट बाँटते फिरते हैं, पर कभी आपने यह नहीं बताया कि कैसे दो कौड़ी के पत्रकारों ने अरबों-खरबों का साम्राज्य खड़ा कर लिया?
कभी आपने यह भी नहीं बताया कि राडिया के साथ मिल कैसे आप ही की बिरादरी के लोग दलाली पर उतर आए थे? कभी आपने यह भी नहीं बताया कि कैसे कुछ पत्रकार नेता और कुछ नेताओं के एजेंट बन गए!
एमजे अकबर पर सवाल उछालने से पूर्व कुछ सवाल अपनी ओर भी उछालते तो दुनिया आपकी ईमानदारी का लोहा मानती! पर आप तो इस मामले में भी बड़े ही सेलेक्टिव और अनुदार निकले!
सत्ता के गलियारे में हनक और धमक रखने वाले पत्रकारों को मैं बहुत करीब से जानता हूँ! इसलिए उनके चाल-चरित्र-चेहरे से अच्छी तरह वाकिफ़ हूँ!
राजनीतिक कवरेज़ करते-करते कब पत्रकार नेता और नेता पत्रकार बन जाते हैं, यह चैनल चलाने वाले लोगों से बेहतर और कौन जानता होगा.
इसलिए रवीश जी, आपसे अच्छे तो वे भक्तजन हैं जो निष्पक्षता और शालीनता का मुखौटा लगाए बिना बेलौस-बिंदास होकर अपनी बात रखते-कहते हैं! कम-से-कम बौद्धिक दोगलापन तो उनमें नहीं है!
और हाँ, लेखन आपके लिए प्रोफेशन-पैशन-प्रोपेगैंडा जो भी हो, पर हम जैसों के लिए तो यही इकलौता और एकमात्र हथियार है, तमाम चुनौतियाँ झेलकर भी हम इसी के सहारे आपके अभेद्य दुर्ग और क़िलों पर चढ़ाई करते रहेंगे.
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