ये बिहार की पत्रकारिता का नंगा सच है !

पुष्य मित्र

बिहार में कल रात फिर दो पत्रकारों की हत्या हो गयी। सुबह फेसबुक खोलते ही यह खबर सामने आई। इस बार दो पत्रकारों को एक मुखिया द्वारा स्कार्पियो से कुचल कर मारने की बात सामने आ रही है। पत्रकार बाइक पर थे।
कल की घटना को मिला दें तो पिछले डेढ़-दो साल में इस तरह पत्रकारों की हत्या के मामले दहाई में पहुंच गए होंगे। इस लिहाज से बिहार पत्रकारों के लिये संभवतः देश का सबसे खतरनाक राज्य बन गया है। अब चुकी इनमें से ज्यादातर पत्रकारों की हत्या राजनीतिक कारणों से नहीं होती, मतलब मोदी विरोध या लालू- नीतीश विरोध के कारण तो यह बड़ा सवाल नहीं बनता। जबकि बस्तर की छोटी-छोटी घटनाएं भी दिल्ली के प्रेस क्लब के आंदोलन का मसला बन जाती है।

मगर सच यह भी है कि ये पत्रकार भी सत्ता के विरोध में पत्रकारिता करते हुए मारे जा रहे हैं। जिलों और प्रखंडों में मुखिया, कोई बड़ा नेता, विधायक भी आखिरकार सत्ता का प्रतीक ही है। पत्रकार जब उनसे टकराता है तो वे इन्हें सबक सिखाते हैं। पिछले साल ही एक टेप भी वायरल हुआ था, जिसमें एक विधायक एक पत्रकार को कुत्ते की तरह गालियां दे रहा था। जिलों और कस्बों के पत्रकार यहां लगातार ऐसे लोगों के निशाने पर रहते हैं। मगर इनके लिये कोई सुरक्षा नहीं है। यह एक कड़वा सच है कि बिहार के ग्रामीण एवं कस्बाई पत्रकारों के जीवन पर खतरे की एक बड़ी वजह यहां के समाचार समूह हैं। इन्हें पत्रकारिता के साथ-साथ विज्ञापन वसूलने के काम के लिये भी बाध्य किया जाता है। अब चुकी इनका वेतन इतना कम होता है कि कमीशन के लालच में इन्हें यह काम करना ही पड़ता है। वरना घर कैसे चले।

और यह काम इन्हें खतरों की जद में डाल देता है, क्योंकि आपको जिसके खिलाफ खबर लिखना है उसी से विज्ञापन भी वसूलना है। और एक बार जब आप किसी मुखिया, प्रमुख या विधायक से विज्ञापन ले लेते हैं तो वह अपेक्षा करता है कि आप उसके खिलाफ खबरें न लिखें। उसकी बड़ी से बड़ी चूक और अपराध पर चुप्पी साध लें। मगर एक संवेदनशील पत्रकार के लिये यह मुमकिन नहीं। उसे अपने पाठक समाज को जवाब भी देना होता है, उसकी अपनी भी इंटिग्रिटी होती है। लिहाजा वह खबर तो लिख ही देता है। मगर बाद में उसे कीमत चुकानी पड़ती है।

इस लिहाज से राजधानियों के पत्रकार सुरक्षित हैं। एक तो उनके जिम्मे विज्ञापन का काम नहीं है। दूसरा वह सरकार के खिलाफ जरा भी टेढ़ी खबर लिखे वह खबर संपादक के विचार सूची में कैद हो जाती है। वर्षों उस पर विचार और मंथन चलता रहता है। इस बीच अखबार में गुणगान छपता रहता है। लिहाजा हम पत्रकारों को सोशल मीडिया पर उल्टी करने के अलावा और कुछ नहीं आता। और फेसबुक की सूचनाओं की वजह से जान खतरे में नहीं पड़ती।
यह बिहार की पत्रकारिता का नंगा सच है। और पत्रकारिता किस तरह यहां खतरे में है, इसे समझने का रास्ता। बहरहाल हमारे पास अपने इन दोनों साथियों को श्रद्धाजंलि देने के अलावा कोई और रास्ता नहीं है। कल स्कार्पियो को जला ही दिया गया है। कुछ कानूनी कार्रवाईयां होंगी, मगर न कोई नतीजा निकलेगा, न हालात बदलेंगे।
दिवंगत साथी को श्रद्धांजलि

(पुष्य मित्र के फेसबुक वॉल से )

 

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