मनमोहन सिंह के समय ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ = मंत्री बनाने-हटाने वाले + मुफ्त विदेश यात्रा करने वाले एलीट पत्रकारों का इकोसिस्टम: जनता से संवाद का वो स्वर्णकाल नहीं था लुटियन ठेकेदारों

बड़े मीडिया टायकूंस, संपादक, बुद्धिजीवी और पूँजीपति नहीं चाहते कि आम जनता के हाथ में मीडियम की पहुँच हो। वे हमेशा से जनता को संचारतंत्र के ग्राहक के रूप में देखना चाहते हैं, ताकि उनका व्यापार और ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ का शगूफा चलता रहे।

पत्रकारों के साथ मनमोहन सिंह

पूर्व पीएम डॉक्टर मनमोहन सिंह नहीं रहे। ईश्वर उनकी आत्मा को सद्गति दें। उनके जाने के बाद कमोबेश हर तबका उन्हें अच्छे शब्दों में याद कर रहा है, जो डॉक्टर साहब के सौहार्द्रपूर्ण व्यक्तित्व के लिए उचित भी है। मनमोहन सिंह को याद करने वाले पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और एक्टिविस्ट किस्म के लोगों के शोक संदेश में एक खास पैटर्न देखने को मिला है।

जैसे कि ‘हमने मनमोहन सिंह को JNU में काले झंडे दिखाए थे, हम उनके साथ विदेश यात्रा पर गए, संसद की कैंटीन या किसी पार्टी में चाय पर मिले, वे रेगुलर प्रेस कॉन्फ्रेंस करते थे, हमारे मुश्किल सवाल पर सिंह साहब नाराज नहीं हुए’ वगैरह-वगैरह।

इसका निष्कर्ष यह निकाला जाता है कि मनमोहन सिंह अभिव्यक्ति की आजादी के बहुत बड़े पैरोकार थे, लेकिन क्या यह वाकई अभिव्यक्ति की आजादी थी? या फिर यह बड़े मीडिया संस्थान के गिने-चुने पत्रकारों और राजधानी के खास एक्टिविस्टों को मिलने वाली टोकन छूट थी?

क्या JNU की जगह पटना यूनिवर्सिटी में बिहार के किसी मंत्री को काले झंडे दिखाकर छात्र बच सकते थे? क्या गाँव का आम आदमी अपने प्रधान या तहसीलदार से मुश्किल सवाल पूछ कर बिना पिटे घर लौट सकता था? सबका जवाब ‘नहीं’ ही है।

साल 2004 से 2014 के बीच अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ‘टोकन छूट’ वाला स्वर्णकाल था, जिसमें सरकार एलीट लेगेसी के सामने नतमस्तक होती रही। जहाँ बड़े पत्रकार शराब के नशे में मंत्री बनाने-हटाने का दावा करते थे। लाखों करोड़ का घोटाला करने वाले मंत्रियों से साथ उनकी गलबहियाँ होती थी। उनसे नीचे वाले पीएम के साथ सरकारी खर्चे पर विदेश यात्रा जाते थे।

उनसे भी नीचे वाले सरकारी खर्चे से चलने वाली सभाओं-गोष्ठियों में गाल बजाते थे। कुल मिलाकर एलीट पत्रकारों-बुद्धिजीवियों का पूरा इकोसिस्टम तैयार था, जो नेताओं के लिए सेफ्टी वॉल्व की तरह काम करते थे और बदले में संचारतंत्र पर एकाधिकार पाते थे। रवीश कुमार जैसे पत्रकारों ने इसी टोकन छूट की बदौलत अहंकारपूर्ण जुमले गढ़े कि ‘डरा हुआ पत्रकार मरा हुआ लोकतंत्र पैदा करता है’।

हालाँकि, पत्रकार और नेता दोनों लोकतंत्र की पैदाइश हैं, जिसका बीजारोपण जनता करती है। लेकिन, बड़े नेताओं की सोहबत से मिलने वाली छूट एलीट पत्रकारों को लोकतंत्र का ‘बाप’ होने का एहसास कराती रही। यह बिल्कुल ऐसा ही है, जैसे मस्जिद की मुंडेर पर बैठा कौआ खुद को मुअज्जन समझने लगे।

इस मामले में वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कार्यकाल अलग नजर आता है। 2014 में प्रधानमंत्री बनने के साथ ही उन्होंने सबसे पहले इन ठेकेदारों को किनारे किया। उन्होंने मन की बात, सोशल मीडिया और मास रैलियों के माध्यम से सीधे आम जनता से संपर्क किया। मीडिया एजुकेशन में इसे ही ‘मास लाइन कम्युनिकेशन’ कहते हैं। नरेंद्र मोदी से पहले महात्मा गाँधी और चीनी क्रांति के नेता माओ इस ‘मास लाइन कम्युनिकेशन’ का सफल प्रयोग कर चुके थे।

दूसरी ओर, मनमोहन सिंह अपने कार्यकाल में दिल्ली के कुछ दर्जन चुने हुए पत्रकारों के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस करते थे। उन्हें अपनी यात्राओं पर साथ ले जाते थे। डॉक्टर मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी की संवाद शैली में सबसे बड़ा अंतर यही है। मनमोहन सिंह जनता तक अपनी बात पहुँचाने के लिए एलीट पत्रकारों को माध्यम बनाते थे। नरेंद्र मोदी सीधे जनता से संवाद करते हैं।

पीएम मोदी ने पत्रकारों की ‘गेट कीपिंग’ यानी मध्यस्थता को खत्म कर दिया। शायद यही कारण है कि एलीट पत्रकारों के लिए मनमोहन सिंह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चैंपियन हैं और नरेंद्र मोदी ‘तानाशाह’। हालाँकि संचारशास्त्र की थोड़ी-बहुत जानकारी रखने वाला शख्स भी यह आसानी से समझ सकता है कि नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में भारत की आम जनता संवाद के मामले में अधिक सबल और स्वतंत्र हुई है।

अब उसे अपनी बात रखने के लिए किसी मार्फत की जरूरत नहीं। हाँ, इस दौरान एलीट पत्रकारों को मिलने वाली विशेष सुविधाएँ जरूर कम हुई हैं। उनकी विदेश यात्राएँ, सस्ते दर पर मिलने वाले फ्लैट और प्लॉट भी नहीं मिल रहे। इस सिलसिले में बड़े यूट्यूबर्स, जो मनमोहन सिंह के जमाने में टीवी एंकर हुआ करते थे, उनके गुस्से का कारण आसानी से समझा जा सकता है।

मीडिया शिक्षण संस्थानों में सामान्यतः प्रेस के 4 सिद्धांत अथवा सिस्टम पढ़ाए जाते हैं, लेकिन इन 4 सिद्धांतों में मीडिया का लोकतांत्रीकरण सिद्धांत शामिल नहीं होता। यह सिद्धांत मीडिया की जगह आम जनता के हाथ में संचार के माध्यमों को सौंपने की बात कहती है। यह सिद्धांत मीडिया के ब्यूरोक्रेसी और प्रोड्यूसर कंट्रोल की निंदा करती है।

इस सिंद्धांत के अंतर्गत छोटे चौपाल, चर्चा समूह, कम्युनिटी रेडियो वगैरह को तरजीह दी जाती है। लैटीन अमेरिकी मीडिया रिसर्चर पाउलो फ्रेइरे ने अपनी रिसर्च में साबित किया है कि भारत जैसे विकासशील देशों में मीडिया को लोकतांत्रीकरण सिद्धांत का पालन करना चाहिए। हालाँकि, भारत का एलीट मीडिया हमेशा ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के नाम पर संचार माध्यमों पर अपने एकाधिकार के लिए लड़ता रहा।

बड़े मीडिया टायकूंस, संपादक, बुद्धिजीवी और पूँजीपति नहीं चाहते कि आम जनता के हाथ में मीडियम की पहुँच हो। वे हमेशा से जनता को संचारतंत्र के ग्राहक के रूप में देखना चाहते हैं, ताकि उनका व्यापार और ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ का शगूफा चलता रहे।

पुनः अपने प्रारंभिक सवाल पर लौटते हैं। क्या वाकई मनमोहन सिंह जी का कार्यकाल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का स्वर्णकाल था? मेरी राय में ऐसा बिल्कुल भी नहीं था। जो लोग भी मनमोहन सिंह साहब को श्रद्धांजलि देते हुए ऐसा लिख रहे हैं, वह उनके अधिकारों का स्वर्णकाल जरूर हो सकता है। यह दौर हमेशा मीडिया मोनोपॉली और एलीट पत्रकारों को मिलने वाली टोकन छूट के रूप में याद रखा जाएगा।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस मॉडल ने नीरा वाडिया जैसे लॉबिस्ट-बचौलियों को फायदा पहुँचाया। बाकी एक प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री और RBI गवर्नर के रूप में सेवाओं के लिए राष्ट्र डॉक्टर मनमोहन सिंह का आभारी रहेगा। खासतौर से उनकी वाणी की सौम्यता और उनका सौहार्द्रपूर्ण व्यक्तित्व आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत होंगे।

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