दिलीप सिन्हा को कभी नहीं भूला जा सकेगा….

श्याम कुमार
गत नौ जुलाई को जब दिलीप सिन्हा का फोन आया तो मैंने कहा- ‘तुम तो लापता रहते हो, आज कैसे मेरी याद आ गई?’ दिलीप ने उत्तर दिया-‘आज आपसे मिलने की बहुत इच्छा है। मैं एक घंटे बाद आपके पास आ रहा हूं।’ दिलीप आए और नीचे पत्रकार पीबी वर्मा जी के आवास में बैठे। उनसे काफी देर बातें होती रहीं। बातचीत में दिलीप ने बताया कि पीजीआई(संजय गांधी परास्नातक आयुर्विज्ञान संस्थान) में मान्यताप्राप्त पत्रकारों के निशुल्क इलाज की पूरी व्यवस्था है, किन्तु इसके लिए सूचना निदेशालय से एक कार्ड बनवाना होेता है। जब मैंने बताया कि मेरे पास कार्ड नहीं है तो दिलीप ने कहा कि वह पीबी वर्मा जी, मेरा और कैलाश जी का कार्ड बनवा देंगे। दिलीप प्रसन्न मुद्रा में जब जाने लगे तो मैं और कैलाश उन्हें उनके स्कूटर तक छोड़ने गए। उस समय कल्पना नहीं थी कि यह मेरी दिलीप सिन्हा से अंतिम भेंट हो रही है।
अगले दिन शाम को मैं किसी से बात कर रहा था, तभी कैलाश ने मोबाइल पर दिलीप का चित्र दिखाते हुए कहा कि आज सड़क-दुर्घटना में दिलीप सिन्हा की मत्यु हो गई। सुनकर जैसे मुझे करंट लगा और मैं हतप्रभ रह गया। पीबी वर्मा जी, मैं और कैलाश जी तुरन्त दिलीप सिन्हा के गोमतीनगर में पत्रकारपुरम-स्थित आवास पर पहुंचे। वहां दिलीप का शव देखकर मन रो उठा। एक दिन पहले ही दिलीप से हुईं सारी बातें याद आने लगीं।
अनेक वर्ष पूर्व जब सूचना निदेशालय डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी सिविल अस्पताल के बगल में था, वहां मेरा हर दूसरे-तीसरे दिन जाना हुआ करता था। मैं दशकों से वहां जा रहा था, इसलिए वहां अधिकतर लोग मुझे जानते थे। एक दिन मैं एक उपनिदेशक के कक्ष से बाहर निकला तो दिलीप सिन्हा मिल गए। उन्होंने मुझे अपना परिचय दिया और बताया कि वह मुझे काफी समय से जानते हैं। दिलीप ने यह भी बताया कि वह दैनिक ‘नवजीवन’ में वरिष्ठ पत्रकार रहे हैं। धीरे-धीरे मैंने अनुभव किया कि दिलीप में अपार ऊर्जा है और वह पत्रकारों की मदद के लिए बराबर तत्पर रहते हैं। दिलीप की छोटी बिटिया बड़ी अच्छी ‘कोल्ड काॅफी’ बनाती थी, जिसका मैं प्रशंसक हो गया। तब दिलीप मुझे प्रायः कोल्ड काफी का आमंत्रण देने लगे। लेकिन कुछ बार ऐसा हुआ कि मैं पहले से उनसे बात हुए बिना उनके आवास पर पहुंचा तो वह मौजूद नहीं थे।
दिलीप की वह बिटिया कम्प्यूटर में बहुत दक्ष है और उससे दिलीप को बहुत मदद मिलती थी। दिलीप सिन्हा को पत्रकारों की मदद की ऐसी लगन रहती थी कि वह पत्रकारों से संबंधित विभिन्न जानकारियां या सूचनाएं मोबाइल पर डालते रहते थे। वह पत्रकारों के सच्चे रहनुमा थे और उनकी हर समस्या के समाधान के लिए हमेशा प्रस्तुत रहते थे। मान्यताप्राप्त पत्रकारों की समिति के वह सदस्य थे और चुनाव में उन्हें सर्वाधिक मत मिलते थे। मुझे आश्चर्य होता था कि दिलीप को इतनी बड़ी संख्या में मौजूद पत्रकारों के बारे में पूरी जानकारी रहा करती है। मुझे जब कुछ पूछना होता था तो मैं ‘दिलीप इन्साइक्लोपीडिया’ की मदद लिया करता था।
दिलीप ने मेरी बहुत डांट सुनी। वह जब कभी कोई गलती करते थे या बात के पक्के नहीं रहते थे तो उन्हें मेरी डांट सुननी पड़ती थी। मेरा स्वभाव है कि मैं जिसे बहुत चाहता हूं, उसे ही डांटता हूं। दिलीप अकसर मेरे लिए लोगों से कहते थे कि नैं उन्हें बहुत डांटा करता हूं। जो लोग मेरा स्वभाव जानते हैं, वे तुरंत दिलीप से कहते थे कि इसका मतलब है कि श्याम कुमार जी तुम्हें बहुत ज्यादा अपना समझते हैं।
मेरा यह भी स्वभाव है कि जिससे मेरे विचार नहीं मिलते हों, उसके साथ मैं अधिक नहीं रह पाता। दिलीप कांग्रेस के दैनिक अखबार ‘नवजीवन’ में रह चुके थे, संभवतः इसलिए वह कांग्रेसी विचारों के थे। अखिलेश यादव के मुख्यमंत्रित्वकाल में उनकी सपा से निकटता हो गई थी। मैं पक्का राश्ट्रवादी विचारों का हूं। फिर भी दिलीप से मेरी गहरी आत्मीयता थी।
‌‌ ‌दिलीप बहुत सरल प्रकृति के थे। एक महाशय सड़क पर फेरी लगाया करते थे, किन्तु मान्यताप्राप्त पत्रकार हो गए थे। एक बार विधानभवन की कैंटीन में मैं दिलीप के साथ बैठा था, तभी वह महाशय आ गए तो दिलीप खड़े हो गए। बाद में मैं दिलीप पर बिगड़ा कि इतने वरिष्ठ होकर उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था तो वह हंसकर बोले कि मान्यताप्राप्त पत्रकार समिति का चुनाव है, इसलिए वरिष्ठता भूलनी पड़ रही है।
अगले दिन 11 जुलाई को पूर्वान्ह वैकुंठधाम(भैंसाकुंड) में शवदाह के समय बेहद कमजोरी के बावजूद मैं कैलाश जी के साथ वहां गया। वहां अधिकतर पत्रकार मौजूद थे। लेकिन कोई मंत्री नहीं दिखाई दिया। वैसे भी, भाजपा के चरित्र में यह कमी सदैव विद्यमान रहती है। अधिकारियों में केवल सूचना विभाग के प्रमुख सचिव संजय प्रसाद दिखाई दिए। जब मैं वहां पहुंचा तो वह प्रस्थान कर रहे थे। कई दशक पूर्व जब प्रदेश में आईसीएस अधिकारी हुआ करते थे तो वे जितने योग्य होते थे, उतने ही विनम्र एवं शालीन भी होते थे। बाद में शुरुआती दौर में आईएएस अफसरों में भी वह गुण विद्यमान रहा, किन्तु अब तो अधिकतर आईएएस अफसर अहंकार से बुरी तरह ग्रस्त रहते हैं। लेकिन संजय प्रसाद शालीन और मददगार स्वभाव के माने जाते रहे हैं। एक बार मैं आगरा गया था तो उस समय संजय प्रसाद वहां के जिलाधिकारी थे। चूंकि उनसे पहले से परिचय था, इसलिए मैं उनसे मिलने चला गया। काफी प्रतीक्षा के बाद उनसे भेंट हुई तो उन्होंने स्टाफ को तो मेरे लिए सहेजा ही, मुझसे कहा कि मैं आने पर उन्हें एसएमएस कर दिया करूं।
अब समय बदल गया है और मंत्रियों एवं अफसरों के यहां भिन्न प्रकार के पत्रकारों को ही सम्मान मिलता है। यद्यपि कैलाश जी मुझे सहारा दिए हुए थे, किन्तु शेखर पंडित ने मुझे देखा तो तुरंत मेरे पास आए और हमेशा की तरह मेरी बांह पकड़कर मुझे सहारा दिया। मैं दिलीप के अंतिम संस्कार से जब लौटा तो मन बहुत अधिक उदास था और दिलीप की याद बार-बार आ रही थी।
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