अब अखिलेश दास के अख़बार वॉयस ऑफ लखनऊ और कौमी खबरें में वेतन के लाले

प्रिंट हिन्दी समाचार पत्र वॉयस ऑफ लखनऊ और उर्दू अखबार कौमी खबरें लखनऊ से प्रकाशित होता है। दोनों समाचार पत्र के मालिक लखनऊ के वरिष्ठ समाज सेवी, बाबू बनारसी दास बैडमिंटन अकेडमी के प्रेसीडेंट, बीबीडी ग्रुप के चेयरमैन, कांग्रेस के पूर्व सांसद तथा उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री बाबू बनारसी दास के पुत्र अखिलेश दास हैं। दोनों समाचार पत्र विराज प्रकाशन के अंडर टेकिंग में लखनऊ से प्रकाशित किये जाते हैं। दोनों समाचार पत्रों के बारे में कहा जाता है कि यहां कार्य करने वाले कर्मचारी पिछले १५ वर्षों से यहां सिर्फ इसलिए जमे हुए हैं, क्योंकि यहां जैसा आराम शायद ही किसी अन्य सरकारी या अद्र्धसरकारी संस्थान में देखने को आपको नहीं मिलेगा। शाम को ७ बजे आइये इंटरनेट की खबरों से कॉपी पेस्ट करके अखबार भरिए, चाहे जैसा छापिए, उसके बाद जिलों में तो दूर शहर तक में अखबार बंटे न बंटे कर्मचारियों को कोई फर्क नहीं पड़ता। बस मालिकों की चापलूसी के लिए उनसे संबंधित सभी संस्थान और ठिकानों पर अखबार उपलब्ध होना चाहिए। दो घंटे में १६ पृष्ठ का अखबार छापकर पिछले १०-१२ साल से लगातार मालिकों के चापलूस उनकी आंखों में धूल झोंकने का कार्य कर रहे हैं। पहले इसी संस्थान से जनसत्ता नामक हिंदी समाचार पत्र का प्रकाशन किया गया था, जिसका काफी नाम हुआ और अखबार काफी चला। कहा जाता है कि जनसत्ता अखबार का वरिष्ठ पत्रकार और एक अच्छी टीम द्वारा प्रकाशन किया जाने से अखबार के मालिकों की राजनीति पर काफी सकारात्मक प्रभाव पड़ा था। तब से उन्होंने जनसत्ता के बाद शुरू हुए वॉयस ऑफ लखनऊ पर कभी ध्यान नहीं दिया। इसका भी सबसे बड़ा कारण यह है कि समाचार पत्र के अलावा इस बीबीडी यानि बाबू बनारसी दास गु्रप के होटल, रियल स्टेट, इंजीनियरिंग और डेंटल कॉलेज के अलावा कई और प्रतिष्ठान भी हैं, इसलिए मालिकों का ध्यान कमाई के प्रतिष्ठानों पर ही बना रहा, वह कभी समाचार पत्र पर ध्यान नहीं देते। पिछले १२ सालों से अखबार करोड़ों रूपये के वार्षिक घाटे में होने के बावजूद लगातार प्रकाशित है। यह तो अखबार की पृष्ठभूमि की बात थी, अब बात करते हैं अखबार के अधिकारियों-कर्मचारियों के ऐश ओ आराम और पेंशन योजना और कामचोरी के बारे में। दरअसल, सभी संस्थानों की तरह पैर छूने और चापलूसी की प्रथा वॉयस ऑफ लखनऊ और कौमी खबरें में शुरू से चरम पर रही है, यानि जो जितना बड़ा चापलूस और कामचोर उतना बड़ा वफादार। मजे की बात यह है कि पिछले १५ सालों से संस्थान में ३ हजार से लेकर ९ हजार तक के कर्मचारी कार्यरत हैं, जिनका न कभी वेतन बढ़ा न कभी उन्होंने इसके लिए संस्थान से शिकायत की। कारण यह है कि उन्होंने अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए ठेकेदारी, बिल्डिंग मैटेरियल, जमीनों की दलाली जैसे अन्य कार्य खोल लिए इसलिए उन कामों को निपटाने के बाद शाम को पार्ट टाइम मानकार २ घंटे समाचार पत्र को सिर्फ इसलिए देते हैं ताकि अखबार का नाम लेकर उनके अन्य धंधों पर असर न पड़े। इस संस्थान का एक पत्रकार तो करोड़पति भी है जिसे ६ हजार रुपये मासिक तन्ख्वाह मिलती है, दरअसल यह पत्रकार एक बिल्डर है और अपने गैरकानूनी कार्यों पर असर न पड़ जाये बस इसलिए इस संस्थान से जुड़ा है। अन्य की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। पत्रकारों के बाद सब एडीटर जो अखबार बनाते हैं का कार्य यहां ऑपरेटर ही करते हैं। एक ऑपरेटर जो मालिकों की निगाह में रहा, बताया जाता है कि उसे सही तरीके से कंप्यूटर की बेसिक जानकारी भी नहीं आती, वही आजकल अखबार का संपादक बना हुआ है। जनसत्ता बंद होने के बाद सभी अच्छे पत्रकारों संपादकों ने संस्थान की बिगड़ती स्थिति देख नौकरी छोड़ दी। अखबार में बस वही लोग बचे जो चापलूस थे या जिन्हें काम करना नहीं आता था। जिन्होंने चापलूसी नही कबूल की और संस्थान में सुधार लाने के प्रयास करने के लिए मालिकों तक असली बात पहुंचानी चाही उन्हें निकाल दिया गया। यहां कार्य करने वाला हर कर्मचारी समाचारपत्र की प्रतियां २ से लेकर १५ किलो तक अपने साथ अपने घर ले जाता है, जिससे उसे घर खर्च में थोड़ी राहत मिल जाती है। वर्ष २०१५ में यहां एक बड़ा बदलाव बीबीडी ग्रुप के चेयरमैन अखिलेश दास द्वारा किया गया। उन्होंने अपने पुराने राजनीतिक साथी सुशील दुबे को जनरल मैनेजर और सम्पादकीय सलाहकार बनाकर भेजा। शुरू से कांग्रेसी रहे सुशील दुबे को न तो अखबार की बेसिक जानकारी थी न ही उन्हें कंप्यूटर चलाना आता है। सुशील दुबे ने आकर समाचार पत्र की कमियां जानीं और सुधार के कार्य जैसे सफेदी कराना जो पिछले १० सालों से नहीं की गयी, कौन-कौन अखबार की चोरी करता है चोरी को रूकवाना जैसे कार्य किये। लेकिन जैसा कि हमेशा हुआ वही फिर दोहराया गया। संस्थान के चापलूस लोग उनकी भी चापलूसी करने लगे और छोटी चोरी से लेकर बड़ी चोरी तक के फायदे उन्हें बताये। बस फिर क्या था सुशील दुबे ने अखबार के कुछ चापलूस कर्मचारियों की पोस्ट और वेतन को हल्का फुल्का बढ़वा दिया और खुद लग गये मालिकों को संस्थान में किये गये बदलावों की लिस्ट दिखाकर अपनी पीठ थपथपाने में। सुशील दुबे के आने से थोड़ी हलचल तो इस संस्थान में हुई लेकिन चापलूसों द्वारा बिछाये गये रेड कारपेट पर फिसल गये। सुशील दुबे अपने तरीके से चांदी काट ही रहे थे तभी संस्थान में एक और बड़ी एंट्री हुई ग्रुप एडीटर राजेन्द्र द्विवेदी की। यह वह राजेन्द्र द्विवेदी हैं जिन्हें सहारा समूह ने बाहर का रास्ता दिखा दिया था। राजेन्द्र द्विवेदी अपने साथ कलाम खान को भी लेकर आये थे। यह वही कलाम खान है जिन्हें सहारा गु्रप ने इसलिए बाहर का रास्ता दिखा दिया, चूंकि कलाम खान ने अपनी पत्नी के नाम से सहारा के उर्दू अखबार आलमी सहारा से मिलता जुलते अखबार का टाइटल आलमी सितारा अखबार शुरू कर दिया था। राजेन्द्र द्विवेदी ने संस्थान में प्रवेश करते ही खुद को अखिलेश दास का खास आदमी बताते हुए अपनी पहचान एक-एक कर सभी कर्मचारियों को करा दी। राजेन्द्र द्विवेदी के आने से एडिटोरिययल कर्मचारियों को लगा था अब संस्थान बदल जाएगा लेकिन उनके काम और व्यवहार से नाखुश पहले से दु:खी कर्मचारी और परेशान हो गये। राजेन्द्र द्विवेदी अपनी लेखनी से नहीं बल्कि अपने तानाशाह रवैए से संस्थान के कर्मचारियों में अपना भय फैलाने लगे। पत्रकारों को मां-बहन की गालियां देकर मनमानी करने वाले राजेन्द्र द्विवेदी ने जिलों में एजेंसी रेबड़ी की तरह बांटकर अपने निजी संबंध मजबूत करने में लग गये। राजेन्द्र द्विवेदी युग में सम्पादकीय पेज की यह स्थिति है कि २०१६ में २०१५ के पूरे पृष्ठï जैसे के तैसे छाप दिये जाते हैं लेकिन उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, २७ अप्रैल २०१६ को भी यही हुआ जब कामचोर पेजमेकर ने १८ अगस्त २०१५ का पेज ज्यों का त्यों कापी पेस्ट कर दिया। संस्थान पर आंख मूंदकर खर्च करने वाले तथा अपने भरोसेमंद लोगों पर विश्वास कर छले जाने वाले डा. अखिलेश दास का अखबार जिस खस्ताहाल में पहले था, आज भी वहीं है। सबसे बड़ा बदलाव वर्तमान स्थिति में यह माना जा रहा है कि वॉयस ऑफ लखनऊ और कौमी खबरें अखबार में कर्मचारियों का जो वेतन प्रत्येक माह की ७ से ८ तारीख तक मिल जाता था अब कुछ महीनों से नहीं मिल पा रहा है। अखबार के मालिक से बड़े-बड़े दावे और वादे करके बड़े पैकेज पर नौकरी हथियाने वाले राजेन्द्र द्विवेदी की यह सबसे बड़ी असफलता माना जा रहा है, क्योंकि संस्थान के खर्चे घटाने और बिजनेस बढ़ाने पर उन्होंने इस बीच कोई ध्यान नहीं दिया। ताजा खबर यह है कि सभी पत्रकारों को एक-एक सिम इस हिदायत के साथ बांट दिया गया है कि अगले माह से उन्हें वेतन का ७० प्रतिशत विज्ञापन भी लाना अनिवार्य है। जिले के लोगों की कमीशन का पिछले साल से ही भुगतान नहीं किया गया है अत: वह लोग भी संस्थान के इन अधिकारियों से नाखुश हैं। सबसे खास बात तो यह है कि इतनी अनियमितताओं के बावजूद इन सभी खामियों के जिम्मेदार लोगों को बीबीडी ग्रुप द्वारा अलग से वेतन देने का प्रावधान है। यानि अखबार के कुछ लोग जो उच्चपदों पर विराजमान हैं, को बीबीडी ग्रुप द्वारा ज्वाइनिंग दिखाकर उन्हें वेतन माह के तय तिथि पर भुगातन कर दिया जाता है। एक कहावत है जब अल्लाह दे खाने को तो कौन जाये कमाने को, शायद इसलिए मार्केंटिंग विभाग अखबार की आमदनी बढ़ाने पर नाकाम साबित होता रहा है। दोनों अखबारों के कर्मचारियों और समाचार पत्र का भविष्य दयनीय स्थिति में है। डा. अखिलेश दास ही कुछ कर पायें तो बेहतर है वर्ना इन अखबारों का तो भगवान ही मालिक है। एक मीडियाकर्मी द्वारा भेजे गए लंबे चौड़े पत्र का संपादित अंश.

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