बड़े पत्रकार कुकुर झौंझौं करते रहे, राजशेखर ने एक नयी डगर तैयार कर डाली
कुमार सौवीर
लखनऊ। उसका नाम था संतोष ग्वाला। अदना-सा पत्रकार, लेकिन गजब शख्सियत। अचानक उसकी मौत हो गयी। पत्रकारिता उसका पैशन था। खबर मिलते ही मौके पर पहुंच जाना उसका नशा। घटना को सूंघ कर उसमें पर्त दर पर्त घुस जाना उसकी प्रवृत्ति थी। दीगर पत्रकारों की तरह वह न तो किसी संस्थान में स्थाई मुलाजिम था और न ही सरकार से उसे मान्यता मिली थी। न पेंशन, न मुआवजा, न भविष्य कोष और न ही सरकार से किसी राहत की उम्मीद। पत्रकारिता की पहली सीढी पर ही उसने पूरी जिन्दगी बिता दी। जाहिर है कि अचानक हुई उसकी अकाल मौत से पूरा परिवार और खानदान विह्वल सन्नाटा में आ गया।
पिछले साल आज के ही दिन संतोष की मौत पर हुई थी शोक-सभा, जिसमें मौजूद कोई ढाई सौ पत्रकारों की भीड़ गमगीन थी। शोकसभा में उप्र मान्यता प्राप्त संवाददाता समिति के अध्यक्ष प्रांशु मिश्र समेत कई वरिष्ठ पत्रकारों के अलावा तब के डीएम राजशेखर, एसएसपी राजेश पाण्डेय आदि भी मौजूद थे। कई साथी पत्रकार फूट-फूट कर रो रहे थे। बोलने के दौरान शब्द नहीं, हिचकियां बरस रही थीं। ई-टीवी का संतोष तो बोलने से पहले लगा गश खाकर गिर पड़ेगा। सभी की चिंता का विषय यही था कि संतोष ग्वाला तो मान्यता प्राप्त नहीं था, ऐसे में उसे क्या सरकारी मिलेगी। ऐसे में उसका परिवार कैसे अपना गुजर-बसर करेगा।
एक युवा पत्रकार ने डीएम राजशेखर से करीब-करीब गिड़गिड़ाते हुए इस बात की गुहार लगायी कि वे संतोष के बेहाल पत्रकार के लिए कुछ ऐसी स्थाई राहत दिला दें, जिससे उन्हें मलहम लग सके। सबके बोलने के बाद राज शेखर बोले। पूरा सभागार में खामोशी हो फैल गयी। उन्हें लगा था कि अब उनकी मुराद अब डीएम पूरी कर ही देंगे। लेकिन राजशेखर ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। लेकिन इसके बावजूद राज शेखर ने जो भी कहा, वह दिल से कहा। और उनकी बात पर पूरा सभागार संतुष्ट हो गया।
डीएम ने सबसे पहले तो संतोष ग्वाला से हुई अपनी मुलाकातों का जिक्र किया, खबर और खबरची के प्रति उसकी निष्ठा पर चर्चा की, और इस पर भी गहरा दुख व्यक्त किया कि ऐसे निष्ठावान पत्रकारों और उनके परिजनों को ऐसी दुर्दशा का सामना करना पड़ता है। राज शेखर ने याद किया कि संतोष ने खबरों को लेकर तो उनसे कई बार बात की, लेकिन कभी दलाली जैसी कोई घटना-सूचना नहीं मिली। ग्वाला के परिजनों को राहत दिलाने की बाबत राजशेखर बोले कि वे डीएम के तौर पर इस बारे में उनके अधिकार बेहद सीमित हैं। लेकिन शासकीय धन के बजाय वे अपनी निजी क्षमता से इस परिवार की मदद करेंगे।
लेकिन हैरत की बात तो यह रही कि इस डीएम ने यह जरूर कह दिया कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव बेहद संवेदनशील हैं। मैंने उन्हें ग्वाला और उनसे जैसे पत्रकारों की हालत के बारे में जिक्र कर दिया है। मेरी बात पर मुख्यमंत्री जी सहमत थे ओर वे इस बात पर भी सहमत हैं कि अभिव्यक्ति के सेनानियों को समुचित राहत मिलनी ही चाहिए। बस्स्स्स्स। केवल इतनी ही बात कही राज शेखर ने। और फिर बात खत्म हो गयी। बाकी का वक्त ग्वाला के जाने को लेकर ही दुखमय रहा। केवल विषाद, हर्ष की अनुपस्थिति ही मंडराती रही। आश्वासन तो कुछ ठोस नहीं मिला, उस पर तुर्रा यह कि बड़े पत्रकार इस शोकसभा से दूर ही रहे। लेकिन जिन्हें छुटभैया पत्रकार कहा जाता है, उन्होंने अब तक अपनी कड़की के बावजूद तीन लाख रूपयों की भारी-भरकम रकम जुटा ली।
लेकिन चार दिन बाद ही राज शेखर का एक संदेशा सारे छोटे-छुटभैया पत्रकारों को झूम कर लहरा गया। पता चला कि ग्वाला के बच्चों की स्कूल में होने वाली फीस माफ कर दी गयी है। खुद राज शेखर ने उस स्कूल से बातचीत की और स्कूल प्रबंधक ने उन बच्चों की फीस पूरी तरह माफ कर दी, जब तक वे उस स्कूल तक पढेंगे। अभी यह सूचना पर यह पत्रकार खुश हो रहे थे, कि इसी बीच राज शेखर ने ढाई लाख रूपयों की एक बड़ी रकम संतोष के परिजनों तक पहुंचा दिया। यह रकम राजशेखर समेत कलेक्ट्रेट के सभी अधिकारियों और कर्मचारियों ने अपनी जेब से एकत्र की थी।
उधर राजशेखर के साथ किसी कुशल दाम्पत्य-जीवन के दूसरे पहिये की तरह टंके हुए एसएसपी राजेश पाण्डेय भी कम नहीं निकले। इसी दौरान ढाई लाख रूपयों की मदद उन्होंने जिला पुलिस के अधिकारियों से जुटाई।
इतिहास में कभी भी ऐसा नहीं हुआ था। लगा, मानो संतोष के परिजनों के घर भगवान ने छप्पर फाड़ कर सहयोग की बारिश कर दी। स्ट्रिंगर्स, संवादसूत्र और जूनियर रिपोर्टर जैसे मामूली काम में पूरी शिद्दत के साथ जूझ रहे पत्रकारों को यकीन भी नहीं हो रहा था कि उनके पास भी इस तरह के दैवीय तोहफे भी मिल सकते हैं।
लेकिन अभी शायद किसी चमत्कार की तरह वे यह पत्रकार स्तब्ध हो गये, जब उन्हें खबर मिली कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने संतोष के घरवालों को बीस लाख रूपयों की आर्थिक सहायता मंजूर की है। इतिहास गवाह है कि पत्रकारिता के सबसे निचले पायदान पर लटके किसी पत्रकार को सरकार से कोई भी मदद अब तक नहीं मिली थी। कहने की जरूरत नहीं कि संतोष की पैरवी राज शेखर ने की, और कोशिश भी की, आइंदा ऐसे छोटे पत्रकारों को भी इस तरह सहायता मिलती रहे।
अब आखिरी बात।
मैं राज शेखर से कभी भी नहीं मिला, लेकिन जब शोकसभा में उसका अंदाज देखा तो उसमें मुझे अपने भतीजे कंवल तनुज की छवि दिखी, जो बिहार के औरंगाबाद का जिलाधिकारी है। राज शेखर में भी उसी तरह का जोश, उसी तरह की भावनाओं के समंदर की हिलारें-लहरें। कुछ नया करने का जज्बा और जोश। हां, राजेश पाण्डेय को निजी तौर पर जानता हूं। मेरे के प्रति निहायत लापरवाह, लेकिन अपने दायित्वों को लेकर सर्वाधिक कर्मठ। बहुत संवेदनशील तो नहीं, क्योंकि पुलिस की नौकरी होती ही ऐसा है जहां सरकारी इशारा समझना सर्वाधिक जरूरी होता है। लेकिन जन-प्रतिबद्धता और ड्यूटी पर मुस्तैद हैं राजेश।
सवाल यह है कि जब राज शेखर ऐसा कर सकते हैं, तो फिर बाकी जिलाधिकारी क्यों नहीं। क्या वजह है कि राज शेखर ने बिना किसी प्रशासनिक जिम्मेदारी के संतोष जैसे पत्रकारों को सहायता दिलाने की परम्परा छेड़ दी। क्यों यह काम दीगर डीएम नहीं कर पाये। वजह यह संवदेनशीलता, जो किसी भी राजशेखर में इन-बिल्ट होती है। लेकिन जिन में नहीं होती है, उनमें सीखा जा सकता है, बशर्ते उनमें दमखम हो। और मैं समझता हूं कि आईएएस जैसी शीर्ष संस्थाओं से जुड़े लोगों में यह गुण बहुत आसानी से विकसित हो सकता है। बशर्ते उनमें दीगर तुच्छ स्वार्थों का बोलबाला न हो।
अरे कोई भी राज शेखर बन सकता है। बस कोशिश करो, नयी सोच विकसित करो, सकारात्मक बनो, थोड़ा समय समर्पित करो। बकवादी बंद करो। ऐयाशी मत करो। तुम लोकसेवक हो, राजनीति मत करो। बस।
आने वाला वक्त तुम्हारा ही होगा।
तुम ही शाहंशाह होगे।
प्रत्येक जिले के डीएम में राज शेखर बनने की कूवत है, तुम ही अपने वक्त राज शेखर होगे।
और हां, आखिरी बात पत्रकारों से। लखनऊ के बड़े पत्रकार-नेताओं की कुकुर झौं-झौं वाली प्रवृत्ति मत अपनाओ। ब्लैक मेलिंग से बचो। चरित्र सम्भालो। कुछ नया सोचा और करो। अफसरों की चरण-चम्पी या उनकी त्वचा-तैलीय करने की आदत छोड़ो। संतोष ग्वाला जैसा बनने की कोशिश करो मेरे दोस्त।
वक्त तुम्हारा ही होगा।
बशर्ते तुम खुद में खुद को जागृत कर पाओगे।
(पोर्टल मेरी बिटिया डॉट कॉम)