कोबरा पोस्ट स्टिंग : इस देश की साख अक्सर बड़ा नहीं कोई छोटा ही बचाता है

टेक्नोलॉजी के दौर में छुपे हुए ख़ुफ़िया कैमरों से किसी का भी स्टिंग हो सकता है। बेहद छोटे छोटे रिमोट कैमरे आप शर्ट के कॉलर से लेकर शर्ट के बटन में कहीं भी छुपाए जा सकते हैं। अगर आपकी स्क्रिप्ट और आयडिया बढ़िया है तो आप किसी भी दुबे-छब्बे का स्टिंग कर सकते हैं। सवाल स्टिंग ऑपेरशन का नहीं है। सवाल ये है कि किस हद तक और कितनी आसानी से ख़ुफ़िया कैमरे के सामने आप किसी के कपड़े उतार सकते हैं।

पत्रकार अनिरुद्ध बहल की वेबसाइट कोबरापोस्ट के मीडिया पर किये गए बृहद स्टिंग ऑपेरशन ने पत्रकारिता जगत में हंगामा खड़ा कर दिया है। बहल पुराने खिलाड़ी हैं और शिकार बढ़िया जाल बिछा के करते हैं। पर मेरे कुछ सवाल हैं जो बहल से नही देश के बड़े मीडिया घरानो से हैं। ये सवाल इन घरानो से मीडिया की साख और उस साख को बचाने की प्रक्रिया और निवारक पर हैं।

1 ) मेरा पहला सवाल। अगर कोई अंडरकवर रिपोर्टर अपना नाम आचार्य अटल रख ले और खुद को राष्ट्रीय स्वयं सेवक से जुड़ा बताये और कहे कि उसे 500 से एक हज़ार करोड़ रुपए का विज्ञापन आपके चैनल को देना है तो क्या 500 करोड़ की डील करने से पहले उस व्यक्ति के बारे में संघ मुख्यालय से छानबीन नहीं करनी चाहिए ? और ये व्यक्ति अगर किसी बड़े ओहदे पर नहीं है, फिर तो उसके बारे में छानबीन और भी सघन होनी चाहिए।

2 ) टाइम्स ऑफ़ इंडिया के मालिक विनीत जैन, जिनकी स्वीकारोक्ति ने आज देश की मीडिया को बेहद अपमानजनक स्थिति में पहुंचा दिया , पिछले तीन दशक से विज्ञापन और मार्केटिंग के एक्सपर्ट माने जाते हैं। जैन साहब दो बार इस अंडरकवर रिपोर्टर के जाल में फंसे। उन्हें ये तो मालूम होगा कि संघ या उससे जुड़े ट्रस्ट कभी विज्ञापन रिलीज़ नहीं करते हैं। संघ तो खुद दक्षिणा और चंदे से चलता है। अमित शाह और मोदी के दौर में जहाँ चैनल खुद सरकार के आगे बिछे पड़े हैं वहां संघ को हर चैनल और अख़बार पर 500 -500 करोड़ नकद खर्च करने की क्या ज़रुरत पड़ गयी ? देश की सरकार और राज्य की सभी सरकारें मिलाकर कभी एक संस्थान पर 6 महीने के भीतर 500 करोड़ रुपए खर्च नहीं करती। फिर किसी गीता प्रचार समिति का एक अनजान आचार्य एक एक मीडिया संसथान पर इतना पैसा कैसे लुटा सकता है ? क्या हमारे देश के सबसे बड़े मीडिया ग्रुप इतने हल्के हैं की एक हल्के से आचार्य के जाल में इतनी आसानी से फंस गए ?

3) हम किसी को अपना पुराना स्कूटर या गाड़ी चंद हज़ार या लाख रुपए में बेचते हैं तो पैसा देने वाले की हैसियत, हुलिया और पता ठिकाना मालूम कर लेते हैं। 500 करोड़ की डील करने से पहले ये तो मालूम करना चाहिए था कि लखनऊ में कोई भगवद गीता समिति का दफ्तर भी है या नहीं ? अगर है तो किस मोहल्ले में है ? जिस मोहल्ले में है तो क्या वहां कोई आचार्य अटल है भी या नहीं ? स्टिंग ऑपेरशन में कभी कभी आचार्य अटल अपना नाम और काम बदल कर खुद को यूपी के मंत्री ओम प्रकाश राजभर का सहयोगी बता देते हैं ? एक बार राजभर जैसे निठ्ठले मंत्री से ही पूछ लेना चाहिए था कि इस नाम और हुलिए का उनका कोई सहयोगी है ?

4) मीडिया का सर्वप्रथम दायित्व हर समाचार की पुष्टि यानी वेरिफिकेशन करने का है। जिस तरह से आचार्य अटल का वेरिफिकेशन टाइम्स ऑफ़ इंडिया या हिंदुस्तान टाइम्स या देश के सभी बड़े चैनलों ने किया है उससे तो वेरिफिकेशन की प्रक्रिया की कलई ही खुल गयी है ? बेहद दुःख हुआ जानकार कि देश के सबसे बड़े मीडिया घराने बिना व्यक्ति की आइडेंटिटी वेरीफाई करके उससे पेड न्यूज़ के नाम पर एक-दो-तीन नहीं पूरे पांच सौ करोड़ रूपए की डील कर रहे हैं।

5) गनीमत है ये स्टिंग ऑपेरशन था। अगर आचार्य अटल की जगह वाकई कोई छोटा शकील या आई एस आई का असली एजेंट होता तो न्यूज़ चैनल से 500 करोड़ में कोई भी डील की जा सकती थी ? सच में डील असली होती और कैश देकर एग्जीक्यूट कर दी गयी होती तो आज देश नंगा हो जाता।

6) और आखिर में मेरा सैलूट कोलकाता के बेहद पुराने अख़बार ‘बर्तमान’ और ‘संबाद’ के विज्ञापन प्रमुखों को जिन्होंने आचार्य अटल के एक भी प्रलोभन को स्वीकार नहीं किया और केश लेने से इंकार कर दिया। टाइम्स ऑफ़ इंडिया, ज़ी, जागरण, हिंदुस्तान या भास्कर के आगे ये अख़बार छोटे हैं. पर उसूल अगर उसूल हैं तो फिर कैश चाहे अरबों का क्यूँ ना हो, किसी के ईमान को भेद नही सकता है । ये दोनो अख़बार जिस भी विचारधारा के हों पर अरबों के दाँव में भी दरके नही।
वैसे भी ये सच है कि इस देश की साख अक्सर बड़ा नहीं कोई छोटा ही बचाता है।

(वरिष्ठ पत्रकार दीपक शर्मा के फेसबुक वॉल से )
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