वरिष्ठ पत्रकार अजय उपाध्याय का गोलोकवास, हिंदी पत्रकारिता में अजय उपाध्याय का मतलब गहन अध्ययन

अजय उपाध्याय के निधन से हिंदी पत्रकारिता में उस पीढ़ी के एक स्तंभ का ढह जाना है जो हिंदी की शुद्धता और शुचिता के पैरोकार रहे हैं। अरसे तक अखरेगा उनका न होना।

हिन्दुस्तान समाचार पत्र के पूर्व समूह सम्पादक और वरिष्ठ पत्रकार अजय चन्द्र उपाध्याय का आज शाम वाराणसी में निधन हो गया। वे मधुमेह से गम्भीर रूप से पीड़ित थे। अजय चन्द्र उपाध्याय वाराणसी आये थे और महमूरगंज स्थित एक होटल में ठहरे हुए थे। आज अचानक उनकी तबीयत बिगड़ी तो उन्हें गैलेक्सी अस्पताल ले जाया गया जहां डाक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। उनकी पत्नी, पुत्र व पुत्री अभी दिल्ली में हैं। उनके आने के बाद ही अंतिम संस्कार किया जाएगा। वर्ष1985 से 87 तक वे काशी पत्रकार संघ के सदस्य रहे। तब वे दैनिक ‘आज’ में सम्पादकीय पृष्ठ के प्रभारी थे। इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बावजूद उनका रूझान पत्रकारिता की ओर था और ‘आज’ से ही उन्होंने पत्रकारिता की शुरूआत की। यहां से वे ‘अमर उजाला’ में चले गये और फिर मृणाल पाण्डेय के बाद ‘हिन्दुस्तान’ के समूह सम्पादक का दायित्व संभाला। कुछ समय तक वे ‘दैनिक जागरण’ से भी जुड़े रहे। उनका व्यक्तित्व मृदुभाषी और चिंतनशील था। वे वैचारिकी को महत्व देते थे। काशी पत्रकार संघ की संगोष्ठियों में भी वे अपनत्व भाव से शिरकत करते थे। बाद में वे स्वतंत्र रूप से पत्रकारिता करने के साथ ही टीवी चैनलों की डिबेट में भी भाग लेते थे। उनके निधन से पत्रकारिता के क्षेत्र में रिक्तता आ गयी है।
ईश्वर गतात्मा को शांति और शोकाकुल परिवार को यह दुख सहने की शक्ति दें।

हरीश पाठक-

बहुत अखरेगा अजय उपाध्याय का जाना

 

हिंदी पत्रकारिता में अजय उपाध्याय का मतलब गहन अध्ययन, बेहतरीन संपादकीय समझ के सँग-साथ रिपोर्टिंग से ले कर संपादन और खेल से ले कर विज्ञान तक कि नवीनतम जानकारी से लैस एक दक्ष संपादक।

 

वे मेरे दैनिक ‘हिंदुस्तान’ में समूह संपादक थे । तब मैं ‘हिंदुस्तान’ के भागलपुर संस्करण का समन्वय संपादक था। जब भी उनसे बात हुई, मुलाकात हुई वे अकसर खबर की व्यापकता और उसके प्रभाव पर अपना दृष्टिकोण जरूर बताते जो सबसे अलग और प्रभावी होता।

दैनिक ‘जागरण’ व दैनिक ‘अमर उजाला’ में वरिष्ठ पदों पर रहे इस वरिष्ठ संपादक ने आज वाराणसी में अंतिम सांस ली । वे 66 वर्ष के थे और डायबिटीज़ से पीड़ित थे। मौत का कारण ह्रदयघात बताया जा रहा है।

 

अजय उपाध्याय के निधन से हिंदी पत्रकारिता में उस पीढ़ी के एक स्तंभ का ढह जाना है जो हिंदी की शुद्धता और शुचिता के पैरोकार रहे हैं। अरसे तक अखरेगा उनका न होना।

 


ओम थानवी-

 

दुखद। दिल्ली में अक्सर मिलना हुआ। बहुत संजीदा इंसान थे। कभी उत्तेजित होते नहीं देखा। गिल्ड की बैठकों में आते थे। एक बार ब्रिटेन की यात्रा पर हम साथ थे। हिंदी तो उनकी भाषा थी, मैंने देखा कि अंगरेज़ी में भी उनका हाथ तंग न था। स्मृतिनमन।

 


सिद्धार्थ रंगनाथ-

 

अजय उपाध्याय सर के निधन का दुःखद समाचार मिला। अजय सर पत्रकारिता जगत के सबसे कम उम्र में संपादक बनने वालों में से एक रहे। वे अपने आप में एक चलती फिरती लाइब्रेरी से कम नहीं थे।

 

गिरीश निकम सर की ही तरह अजय सर अब हमेशा हमारी स्मृतियों में रहेंगे। उनसे मेरी आखिरी मुलाकात मित्र राहुल राव के घर पर हुई थी। उसके बाद उनको मैंने घर छोड़ा था।

 

मैंने कहा था कि अपनी बेटी को अपने गुरु का आशीष दिलवाने आऊंगा, लेकिन अब शायद वे दूसरे लोक से हम सब को आशीष दे रहे होंगे। आखिरी समय में भी वे मोक्षदायिनी काशी में रहे, शायद इसी प्रकार उनकी आत्मा को सद्गति मिलनी थी। ईश्वर उनके परिवार को भी इस घोर दुःख के समय संबल प्रदान करें। नमन।

 


सुनील नेगी-

 

Veteran journalist – 66 year old who had been in senior positions in Dainik Jagran, Amar Ujala, Dainik Hindustan, Aaj Tak, Jagran Institute of Management and Mass Communication , Media Guru etc n finally editor of Patriot Memory Ajay Upadhyay has passed away after suffering from Cardiac arrest.

 

The news of his sad demise was revealed by his brother Abhay Upadhyay.

 

The last rites will be performed at Harish Chandra Ghat, Varanasi on Sunday.

 

Ajay Upadhyay left behind his wife , son Vartika and daughter Shayanika.

 

Born, educated and brought up in Varanasi Ajay Upadhyay was associated with Dainik Jagran, Amarujala, Dainik Hindustan , Aaj Tak , Media Guru and finally Patriot Memory as its Editor. He served in Dainik Hindustan as its chief editor. Ajay Upadhyay had been on important positions during his journalistic career and carried a good reputation in media circles as a senior journalist. The writer of this sad news used to meet him very often in 1986-87 onwards when he was in Dainik Jagran stationed at its Delhi bureau office at INS building. He was a gem of a person, serious in nature but a smiling face and of affable nature. God accord peace to the departed noble soul.

 

Journalists across the country and his old colleagues and social and political friends who worked with him have expressed deep grief over his shocking demise.

 

OM Shanti.

 


उपेन्द्र सिंह-

 

एक बेहद विनम्र और बेहद सलीक़े से अपनी बात रखने वाले अजय जी! उनका जाना अत्यंत दुखद है। ब्रिटिश उच्चायोग में मेरे कार्यकाल के दौरान प्रेस आमंत्रण में उनका नाम सदैव वरीयता नंबर पर रहता था। वे देश विदेश की राजनीति का सरल विश्लेषण करने वाले चुनिंदा हिन्दी पत्रकारों में से एक थे। उनकी स्मृति को सादर नमन।

 


कृष्णदेव नारायण-

 

अजय जी के साथ मेरी ढेर सारी यादें जुड़ी हुई हैं, दिल्ली जाने से पहले हम आज अखबार में सहकर्मी थे, उनका स्वभाव बहुत ही मधुर रहा. उनका किसी कर्मचारी से कभी कोई विवाद नही हुआ. उम्र तो जाने की न थी, अजय जी थोड़ा जल्दबाजी कर दी. ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें। विनम्र श्रद्वांजलि।

 

विचारवान, ज्ञानवान और साहसी पत्रकार थे अजय उपाध्याय

अजय उपाध्याय ज्ञानवान, दृढ़ विश्वासी, विचारवान, साहसी और मृदु भाषी पत्रकार थे. उन्होंने वाराणसी में दैनिक आज से पत्रकारिता शुरू की थी और अमर उजाला, दैनिक जागरण जैसे समाचार पत्रों में काम करने के बाद हिंदुस्तान के प्रधान संपादक रहे थे. 66 वर्षीय उपाध्याय के निधन पर पत्रकारिता जगत में शोक है. अनेक पत्रकारों ने उन्हें श्रद्धांजलि दी है.

सन 1985 से 87 तक काशी पत्रकार संघ के सदस्य रहे अजय उपाध्याय दैनिक आज में संपादकीय पेज के प्रभारी थे. उन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी, लेकिन पेशा उन्होंने पत्रकारिता को बनाया था. दैनिक आज से उन्होंने अपना करियर शुरू किया था. दैनिक आज के बाद वे अमर उजाला में गए थे और फिर मृणाल पांडेय के जाने के बाद हिंदुस्तान में ग्रुप एडिटर का जिम्मा संभाला था.

उपाध्याय मधुमेह रोग को लेकर पिछले कुछ समय से पीड़ित चल रहे थे. बताया जा रहा है कि वाराणसी में शनिवार को अचानक उनकी तबियत ज्यादा बिगड़ गई. जिसके चलते उन्हें हॉस्पिटल ले जाया गया. अस्पताल में इलाज के दौरान डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया.

अजय उपाध्याय के मित्र इमेज गुरु दिलीप चेरियन ने एक्स पर एक पोस्ट में उन्हें श्रद्धांजलि दी. उन्होंने लिखा कि- ”उनके जैसे विद्वान पत्रकार या संपादक बहुत कम हुए.”

उन्होंने लिखा- ”अजय भाई के पास जितने सूत्र थे, उतने किसी के पास नहीं थे. उन्होंने कई विषयों पर लिखा, दृढ़ विश्वास और साहस के साथ संपादन किया.”

वरिष्ठ पत्रकार राकेश सिंह ने एक पोस्ट में लिखा- ”मेरे मार्गदर्शक एवं गुरु तथा दैनिक हिंदुस्तान के पूर्व संपादक श्री अजय उपाध्याय जी कुछ घंटे पहले स्वर्ग सिधार गए. ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें.”

‘पत्रकारिता में आपकी कमी खलेगी, आप बहुत याद आएंगे पंडित जी’

Hemant Sharmaहेमंत शर्मा, न्यूज डायरेक्टर
टीवी9 नेटवर्क।।

जाना अजय पंडित का।

अजय उपाध्याय।…नहीं लिख पा रहा हूं।….हमेशा अव्यवस्थित। इस बार भी मुझे फिर ब्यौरा दे दिया। कल ही बनारस से दिल्ली की ट्रेन में रिज़र्वेशन करवाया और पर यात्रा नहीं की।..और अनंत यात्रा पर निकल गए। मेरा पैंतालिस बरस का साथ छूट गया। लग रहा है शरीर का कोई हिस्सा अलग हो गया। चलन में अजय उपाध्याय, काग़ज़ों में अजय चंद उपाध्याय और मेरे अजय पंडित। मैंने और उन्होंने पत्रकारिता साथ-साथ शुरू की। और संयोग यह था कि आगे की पत्रकारिता के लिए हम दोनों का एक ही दिन बनारस छूटा… महज कुछ घंटो के अंतराल पर। उनका गंतव्य दिल्ली और मेरा लखनऊ।

पंडित जी हिंदी पत्रकारिता के पहले टेक्नोक्रेट संपादक थे। अद्भुत अध्येता और ज्ञानी संपादक। मौलाना आज़ाद कालेज ऑफ इंजीनियरिंग भोपाल से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के बाद अजय पंडित बड़ौदा में क्राम्पटन ग्रिविज में नौकरी करने लगे। दिमाग़ में सिविल सर्विसेज़ का फ़ितूर था। सो इस्तीफ़ा दे बनारस आ गए और बीएचयू की केन्द्रीय लाईब्रेरी में तैयारी में जुट गए। बारह बारह घंटे लाईब्रेरी में। मैं हिन्दी में एमए कर रहा था और उनका सिविल सर्विसेज़ में एक विषय हिन्दी था। सो पढ़ाई, नोट्स, किताब सामूहिक। वजह बीएचयू के एमए और सिविल सर्विसेज़ का हिन्दी पाठ्यक्रम हुबहू एक था। यह भी साथ का बड़ा कारण बना।

हम वर्षों पढ़ते ही रहे। इस दौरान हम दोनों कोई तीन साल तक केन्द्रीय ग्रन्थालय का स्थायी भाव रहे। …अजय पंडित ने खूब पढ़ा और इतना पढ़ लिया कि पत्रकारिता के अलावा उनके पास कोई चारा न रहा। वे सिविल सेवा में तो नहीं जा पाए पर पत्रकार बन गए। तब तक पत्रकारिता में मेरे ‘पंख’ निकल आए थे। 83 में ‘जनसत्ता’ निकल चुका था और पढ़ाई के साथ साथ मैं बनारस में उसका स्ट्रिंग्र भी था। तभी एक घटना घटी और पंडित जी का रस्ता बदल गया।

‘आज’ अखबार के मालिक- संपादक शार्दूल विक्रम गुप्त के बेटे शाश्वत (जो अब दुनिया में नहीं है) उन्हें घर पर पढ़ाने के लिए एक शिक्षक की तलाश थी।पंडित जी अंग्रेज़ी और साइंस के मास्टर थे। उन्हें शाश्वत को पढ़ाने की ज़िम्मेदारी मिली। पढ़ाई के साथ-साथ पंडित जी की आर्थिक स्थिति मजबूत हुई। घर पर शाश्वत को पढ़ाते-पढ़ाते अजय पंडित का संवाद शार्दूल जी से होता रहा। शार्दूल जी को अजय उपाध्याय में भविष्य की संभावनाए दिखीं।

उन्होंने उनके अध्ययन का लोहा माना।….और अजय उपाध्याय सेवा उपवन (शार्दूल जी का घर) से ज्ञानमंडल (आज अख़बार का दफ़्तर) पहुंच गए। उन्हें ‘आज’ अख़बार के उस संपादकीय पृष्ठ का प्रभारी बनाया गया, जो कभी विद्याभास्कर जी, चंद्रकुमार जी और लक्ष्मीशंकर व्यास के जिम्मे था। अजय जी ने संपादकीय पेज में क्रांतिकारी बदलाव किए। कई विदेश यात्राएं की। कुछ ही वर्षों में आज के दिल्ली में ब्यूरो प्रमुख बना दिए गए। फिर जागरण, अमर उजाला और हिन्दुस्तान के प्रधान संपादक होते हुए पंडित जी दिल्ली वाले हो गए।

अव्यवस्थित जीवन से स्वास्थ्य उनके जीवन में हमेशा चुनौती रहा। चालीस साल की उम्र से डायबटीज़ के शिकार हो गए, जिसका असर उनकी नज़रों पर पड़ा। पिछले दो साल से उनके ऑंख की रोशनी 90 प्रतिशत चली गई। अब वे आवाज़ से पहचानते थे।

अजय उपाध्याय बहुत कम उम्र में हिन्दुस्तान अख़बार के प्रधान सम्पादक बने। उनके नेतृत्व में हिन्दुस्तान उतर भारत में तेज़ी से फैलने वाला अख़बार बना। संपादकों की मौजूदा परम्परा में वे सबसे ज्ञानवान संपादक थे। मुद्रण तकनीक से लेकर न्याय दर्शन तक। सामरिक नीति से लेकर समाज के सांस्कृतिक बनावट तक। पत्रकारिता में आपकी कमी खलेगी।बहुत याद आएँगे पंडित जी आप। प्रणाम।

‘मेरे अतीत का एक मुकम्मल हिस्सा तुम्हारे नाम है अजय, तुम याद रहोगे!’

Ajay Upadhyay Shashi Shekharशशि शेखर, एडिटर-इन-चीफ, हिन्दुस्तान।।

अजय यानि अजय उपाध्याय। वह फरवरी, 2000 की दोपहर थी। मैं आगरा में ‘आज’ अखबार के अपने कार्यालय में बैठा था। अचानक फोन घनघनाया। मेरी सीधी फोन लाइन पर स्व. सत्यप्रकाश ‘असीम’ थे। वे उन दिनों ‘आज’ के नई दिल्ली में राजनीतिक संपादक थे। उन्होंने भोजपुरी में कहा- ‘जानत हुआ, अबहिन ऐसन खबर देब कि भक्क से जल उठबा।’

उनका अगला वाक्य था- ‘अजयवा ‘हिन्दुस्तान’ ज्वाइन करै जात हॅ।’ मैंने पूछा क्या ‘ब्यूरोचीफ’? असीम का जवाब था- नहीं, बतौर संपादक। एक सेकंड को मुझे भी झटका लगा। अजयवा यानी अजय उपाध्याय उस समय तक दैनिक जागरण के ब्यूरो चीफ थे। छलांग ऊंची थी लेकिन अगले क्षण खयाल आया, उसने मेहनत की है। पत्रकारिता का ककहरा उसने भी भैया से सीखा है। दुरूह संघर्ष के बाद वह यहां पहुंचा है। उसे शुभकामनाएं देनी चाहिए।

वैसे भी मैं किसी की उन्नति से कभी नहीं जलता। इतनी बड़ी दुनिया में हरेक की उन्नति और प्रगति के लिए पर्याप्त जगह है। बाद में मैं अजय से मिलने गया। उसके निजी सचिव ने कहा कि बैठ जाइए। मैं थोड़ा अचंभित हुआ। अजय पुराना यार था। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में घर आ जाता था। अच्छा पीने और खाने का शौकीन था। देर तक साथ बैठता और वहीं सो जाता। बाद में आगरा और इलाहाबाद में कई बार मेरे घर पर रुका। आप ‘इंतजाम’ करें तो अजय यानी अजय उपाध्याय बेहतरीन अतिथि साबित होता था। अपनत्व से भरा, गुनगुना, शिष्ट, मिलनसार, मृदुभाषी और आपकी चाहत की बातें करता हुआ। वह समझदार था, ज्ञानी भी।

उससे मेरी पहली मुलाकात 1983 में हुई थी। भोपाल से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर वह बनारस लौट आया था और भैया के बच्चों को किसी माध्यम से ट्यूशन पढ़ाने लगा था। वहीं कभी-कभी भैया से भी मुलाकात हो जाती और वह उनके दिल के करीब आ गया था। मैंने उसका लिखा तो ज्यादा नहीं पढ़ा पर बोलने में उसका जवाब नहीं था। भैया ने उसे अखबार के प्रबंधन में लगा दिया था। जो नहीं जानते, उन्हें पुन: बता दूं, भैया यानी शार्दूल विक्रम गुप्त ,‘आज’ के संचालक।

उन दिनों मैं इलाहाबाद ब्यूरो का प्रमुख हुआ करता था और जब बनारस जाता, तो उससे मुलाकात होती। एक दिन उसका फोन आया कि अब मैं संपादकीय पेज देखा करूंगा। मुझे थोड़ा अचंभा हुआ क्योंकि उसने तब तक सक्रिय पत्रकारिता नहीं की थी। उसी दौरान मेरा कॉलम शुरू हुआ था और हम सप्ताह में एक-दो बार फोन पर बतियाने लगे थे। धीमे-धीमे दोस्ती हो चली थी और हम विविध विषयों पर घंटों चर्चा करते थे।

उस अजय के दफ्तर में मैं बाहर बैठा दिया गया था, अगले डेढ़ या दो घंटे मैं उसके सचिव के सामने बैठा रहा। सचिव महोदय बीड़ी फूंकते रहे, उनसे मिलने लोग आते रहे और हरियाणवीं स्टाइल में मां-बहन की गालियां देते रहे। उसी दौरान मैंने पूछा कि अंदर कौन साहब हैं? उसने जो नाम बताया, वह भी चौंका गया था। अजय के साथ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के दिनों के दोस्त बैठे थे। वे उस समय तक सांसद हो गए थे। उनके लिए मुझे इतना लम्बा इंतजार कराया जा रहा है !

मैंने फिर सिर झटका पता नहीं क्या परिस्थिति होगी कि वह मुझे यहां बैठाए हुए है? वह छल-छद्म समझता था पर कभी ख़ुद उसमें नहीं फँसता था। खैर, मुलाकात हुई। वह गहरी आत्मीयता से मिला अच्छी बातें हुईं और मैं बिना मलाल के रुखसत हुआ। उसी के बाद मैं भी दिल्ली आ गया। कभी-कभी हम मिलते, तो पुरानापन सजीव हो उठता। ‘हिन्दुस्तान’ में उसकी पारी लम्बी नहीं चली और मैं भी ‘अमर उजाला’ चला गया। इस बार उसकी रोजमर्रा के काम से गैर हाजिरी लम्बी खिंची।

मैंने उसे बतौर सलाहकार ‘अमर उजाला’ में लिया। स्व. अतुल माहेश्वरी की कृपा थी कि वे मान गए थे। बाद में ‘हिन्दुस्तान’ में ज्वाइन करने से पहले उसके घर जाकर उसे सब कुछ बता भी दिया। ‘अमर उजाला’ में मेरे स्थान पर उसे रखना का प्रस्ताव मैंने किया था। उसकी पारी कुछ महीने चली। इससे पूर्व ‘आजतक’ में प्रभु चावला से मैंने अपने स्थान पर उसकी सिफ़ारिश की थी। वह पारी भी मुख़्तसर थी।

इधर कुछ वर्षों से हम नहीं मिले थे पर हम दोस्त थे। कल अचानक उसके जाने की खबर मिली। मुझे उसकी बीमारियों का पता था पर अपने मित्र के परलोक गमन की कल्पना भी किसी अनिष्ट-सी भारी लगती है। अजय, तुम चले गए पर एक चीज है जो कभी मिटती नहीं और वह है अतीत। मेरे अतीत का एक मुकम्मल हिस्सा तुम्हारे नाम है। तुम याद रहोगे!

‘अजय उपाध्याय के असामयिक निधन से गहरे सदमे में हूं’

Surendra Kishoreसुरेंद्र किशोर, वरिष्ठ पत्रकार।।

बात तब की है जब मैं बिड़ला फाउंडेशन की जूरी का सदस्य हुआ करता था। नई दिल्ली स्थित हिन्दुस्तान टाइम्स भवन में फाउंडेशन का आफिस था। सालाना बैठक में शामिल होने के लिए मैं वहां जाया करता था। एक दफा सोचा कि जरा दैनिक हिन्दुस्तान के प्रधान संपादक अजय उपाध्याय जी से मिल लूं।

सिर्फ शिष्टाचार मुलाकात। कोई प्रयोजन सोचकर नहीं गया था। यूं ही मिल लिया। अजय जी मुझे दैनिक ‘आज’ के दिनों से ही जानते थे। इसलिए गर्मजोशी से मिले। मुझसे उन्होंने पूछा कि आप दिल्ली में कहां रुके हुए हैं? मैंने कहा, बिहार निवास में। उन्होंने कहा कि मैं कल सुबह आपसे वहां चाय पर मिल रहा हूं।

अगली सुबह अजय जी बिहार निवास पहुंच गए। उन्होंने बिना किसी भूमिका के सवाल किया, ‘क्या आप जनसत्ता में ही रहिएगा?’ मैंने पूछा-ऐसा आप क्यों पूछ रहे हैं? उन्होंने कहा कि आप मेरे यहां ज्वाइन कीजिए। मैंने उनसे कहा कि देखिए मैं नौ बजे रात में सो जाता हूं। प्रभाष जोशी जी ने मुझे इसकी छूट दे रखी है। पर, आपके यहां जो काम मुझे मिलेगा, उसमें रात में देर तक जागना पड़ेगा।  मेरे साथ यही कठिनाई है। अजय जी ने कहा कि तब कोई रास्ता निकालिए।

मैंने कहा कि यदि आप मुझे राजनीतिक संपादक बना दें और 8 बजे रात तक मुझे घर जाने की इजाजत दे दें तो मैं सोचूंगा। इस पर वे सोच में पड़ गए। कहा कि मेरे यहा तो राजनीतिक संपादक का कोई पद ही नहीं है। फिर कहा कि मैं कुछ करता हूं।

उन्होंने हिन्दी हिन्दुस्तान में राजनीतिक संपादक पद का सृजन करवाया। फिर मुझे ज्वाइन करवाया। इस काम में चार महीने लग गए थे। यह सन 2001 की बात है। दरअसल, अजय जी का मूल उद्देश्य पटना संस्करण का मुझे स्थानीय संपादक बनाना था। मैं उसके लिए तैयार नहीं था। प्रभाष जोशी का ऐसा ही ऑफर मैंने ठुकरा दिया था।

मेरा मानना रहा है कि आप जिस पद को ठीक से संभाल नहीं सकते, उस पद को स्वीकार नहीं करना चाहिए। अपने इस निर्णय पर अंत तक मैं कायम रहा। एक बार मैंने अजय जी को लिखा कि आप मुझे पटना संस्करण से हटाकर दिल्ली संस्करण से जोड़ दीजिए। वैसा तो वे न कर सके, पर मेरे एक मित्र से कहा कि सुरेंद्र जी भी गजब आदमी हैं। मैं उन्हें संपादक बनाना चाहता हूं और वे संवाददाता बनना चाहते हैं।

यह तो कुछ अपनी और उनकी बातें हुईं। अब मैं सिर्फ अजय जी पर आता हूं। उनका बड़प्पन देखिए। कुछ लोग अक्सर यह कहा करते हैं कि आपके पेशे में जातिवाद बहुत है। होगा। पर, अपने पूरे सेवाकाल में मेरा अनुभव अलग रहा। मैंने अजय जी से लेकर अनेक ब्राह्मण संपादकों व कुछ अन्य में जाति को लेकर उदारता व बड़प्पन देखे हैं। पत्रकारिता की जिन सात बड़ी हस्तियों ने समय -समय पर मुझे संपादक बनाना चाहा था, उनमें एक कायस्थ,चार ब्राह्मण और दो राजपूत थे।

इधर वर्षों से अजय उपाध्याय से न तो मेरी मुलाकात थी और न ही फोन पर बातचीत। पर,उनकी बीच -बीच में याद आती रही। सोचा था कि कभी दिल्ली जाऊंगा (वैसे मैं अब दिल्ली जाता नहीं) तो खोजकर अजय जी के दर्शन जरूर करुंगा।

हमारे पूर्वजों ने हमें सिखाया है कि जीवन में जो भी तुम्हें थोड़ी भी मदद करे तो उसे कभी नहीं भूलना। भले दूसरे तुम्हारा उपकार भूल जाएं। उसकी परवाह भी मत करना। यानी नेकी कर, दरिया में डाल!

इस अवसर पर राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर याद आते हैं जिन्होंने लिखा है-

पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर

‘जाति जात’’ का शोर मचाते केवल कायर कू्र

‘अजय जी को काम और काम के लोगों की समझ थी’

Sudhir Mishra Ajay Upadhyayसुधीर मिश्र, संपादक
नवभारत टाइम्स, लखनऊ।।

जून 2000 की बात है। मैं ‘दैनिक जागरण’ अखबार में रिपोर्टर था। छह महीने पहले ही शादी हुई थी और वेतन साढ़े छह हज़ार के आसपास था। कुछ महीने पहले ही अजय उपाध्याय जी ’हिंदुस्तान ’ अखबार के ग्रुप एडिटर बने थे। बड़े भाई बृजेश शुक्ल जी लखनऊ हिंदुस्तान के ब्यूरो चीफ हो चुके थे। एक दिन उनका फोन आया कि हिंदुस्तान आना हो तो बताओ। अजय जी आ रहे हैं, तुम्हारा इंटरव्यू कराते हैं। मैंने हां बोला तो होटल क्लार्क्स में इंटरव्यू तय हो गया।

डेस्क के मेरे एक बहुत अच्छे साथी का मुझसे एक दिन पहले इंटरव्यू था। जैसे ही वह इंटरव्यू देकर आया, हमारे संपादक स्व: विनोद शुक्ला ने उन्हें भरे न्यूज़ रूम में थप्पड़ मारकर निकाल दिया। शुक्ला जी मैनेजर अच्छे थे, लेकिन अपनी टीम के बढ़िया लोगों के लिए हद से ज़्यादा पेजिसिव। बहुत दबंग भी। तब वहां आज जैसा प्रोफ़ेशनलिज़्म नहीं था। मैं यह देखकर अवाक था। फिर भी तय किया कि इंटरव्यू देने तो जाऊंगा।

किसी को पता न चले, इसलिए उस दिन एकदम सामान्य कपड़े पहने। फिर ऑफिस की मीटिंग अटेंड की और उसके बाद बाहर निकला। अपनी कुछ अच्छी बाईलाइन खबरों की कटिंग मैंने शर्ट की ऊपर वाली जेब और जीन्स की जेब में रखीं और पहुंच गया क्लार्क्स। वहां उपाध्याय जी के साथ स्व: सुनील दुबे, नवीन जोशी जी और बृजेश जी भी थे। उन्होंने खबरों की फाइल मांगी तो मैंने कतरनों की पुड़िया उनके सामने रख दीं। यह देखकर बाकी लोग बहुत असहज हुए लेकिन अजय जी नहीं।

मैंने उन्हें अपने साथी का क़िस्सा बताया और कहा कि हम सब पर नजर रखी जा रही है, इसलिए फाइल नहीं लाया। अजय जी ने एक एक खबर बहुत ध्यान से पढ़ी और कुछ सवाल पूछे और फिर मैं विदा हो गया। जिस हाल में और जिस बेतरतीब ढंग से इंटरव्यू दिया था, उससे उम्मीद कम ही थी। इधर इतनी सावधानी के बावजूद शुक्ला जी को खबर मिल गई और मुझे भी निकाल दिया गया। इंटरव्यू देने के आरोप में। क़रीब एक महीने तक यातना भरे दिन थे।

फिर एक दिन नवीन जी का फ़ोन आया और बताया कि तुम्हारा सीनियर कॉरेस्पोंडेंट के तौर पर लखनऊ संस्करण में हो गया है। वेतन भी करीब दोगुना था। आज याद करता हूं तो समझ आता है कि अजय जी की दृष्टि कैसी थी। उन्हें काम और काम के लोगों की समझ थी। वह ख़ुद भी बहुत सहज सरल थे। कल जब उनके निधन की ख़बर मिली तो सब याद आने लगा। ईश्वर उन्हें स्वर्ग में स्थान दें। सहज सरल बुद्धिमत्ता की पत्रकारिता और प्रशासनिक योग्यता की उनकी परंपरा भी आगे बढ़े।

‘अजय जी जैसे लोग पत्रकारिता में अब दुर्लभ हैं’

Rajesh Badalराजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार।।

वे मुझसे आयु में साल भर छोटे थे,लेकिन बड़े लगते थे। करीब पैंतीस बरस से हम अच्छे दोस्त थे। कुछ समय पहले ही उनका फोन आया था। मेरी ‘मिस्टर मीडिया’ पुस्तक चाह रहे थे। मैंने कहा, भेजता हूं। अफसोस! नहीं भेज पाया। अब भेजूं तो कैसे? अजय जी अपना पता ही नहीं दे गए।

ऐसे चुपचाप अचानक चले जाएंगे-सोचा भी नहीं था। उमर भी नहीं थी। पर कोविड काल के बाद कुछ ऐसा हो गया है कि कब काल किसको झपट्टा मारकर उठा ले, कहा नहीं जा सकता। कल ही अख़बार में पढ़ा था कि पच्चीस-तीस साल का एक नौजवान हार्ट अटैक से चला गया। कतार में हम सब हैं। पता नहीं, कोरोना हम सबके भीतर के तंत्र में क्या छेड़छाड़ कर गया।

रमेश नैयर जी गए तो मैंने तय किया था कि अब किसी अपने पर नहीं लिखूंगा। बड़ी तकलीफ़ होती है लिखते हुए। एक के बाद एक जाते गए, अपने को किसी तरह बांधता रहा.पर, अजय जी के जाने के बाद नहीं रोक पा रहा हूं। हम जयपुर में मिले थे। वह 1988 या 89 का साल था। मैं नवभारत टाइम्स में मुख्य उप संपादक था। वे किसी काम से आए थे। राजेंद्र माथुर के प्रशंसक थे। लिहाजा, हम एक ही पत्रकारिता परिवार के थे।

पहली मुलाक़ात में ही उनकी विनम्रता, सहजता और शिष्टाचार भा गया। यह उनका ऐसा गुण था, जो नैसर्गिक था। मेरे लिए ताज्जुब था कि देश के जाने माने संस्थान एमएसीटी भोपाल से इंजीनियरिंग करने के बाद वे कलम के खिलाड़ी बन गए। मैंने पूछा, क्यों? उत्तर में वे मुस्कुरा दिए। जयपुर की सड़कों पर दिन भर हमने मटरगश्ती की। जब नवभारत टाइम्स में तालाबंदी हुई तो मेरा तबादला दिल्ली कर दिया गया। फिर हम मिलते रहे। लगातार।

मैं मयूर विहार के नवभारत टाइम्स अपार्टमेंट में आदित्येन्द्र चतुर्वेदी के फ्लैट में रहता था। चतुर्वेदी जी बीकानेर हाउस के पीछे एक सरकारी घर में रहते थे। कभी वे मिलने आ जाते तो कभी मैं उनके घर चला जाता। कभी हम तीनों ही साथ भोजन करते थे। तभी हमारी दोस्ती गाढ़ी हुई। आठ अक्टूबर 1991 को मैंने दैनिक नई दुनिया के समाचार संपादक पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। शंकर गुहा नियोगी की हत्या के बाद मैंने जो लिखा था, उससे मैनेजमेंट दुखी था और सैद्धांतिक मतभेदों के चलते मैंने अख़बार छोड़ दिया। तय किया था कि जीवन में अब कभी किसी अख़बार में पूर्णकालिक नौकरी नहीं करूंगा। मेरे इस फ़ैसले से अजय जी तनाव में थे। मेरी शादी के सिर्फ पांच-छह बरस हुए थे।

अजय जी की चिंता थी कि पत्रकार तो कुछ और कर ही नहीं सकता। फ्रीलांसर के रूप में गुज़ारा कैसे होगा?  उन्हीं दिनों अम्बानी के अखबार संडे आब्जर्वर के प्रकाशन की तैयारी चल रही थी। उदयन शर्मा संपादक थे। उनके सहयोगी रमेश नैयर और राजीव शुक्ल थे। अजय चौधरी और अजय उपाध्याय भी वहां थे। उदयन, राजीव और अजय चौधरी पहले रविवार में भी रहे थे इसलिए हमारे अच्छे रिश्ते थे। इन सबने ख़ूब मनाया कि मैं ज्वाइन कर लूं। मैं फैसले पर अडिग रहा।

आख़िरकार तय हुआ कि हर सप्ताह स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर रिपोर्टिंग करता रहूंगा। उन दिनों रमेश नैयर और अजय उपाध्याय का मानवीय रूप नए ढंग से प्रकट हुआ। हफ़्ते में दो बार तो पूछ ही लेते कि घर चल रहा है न? पैसे की ज़रूरत तो नहीं? आज तो किसी से आप आशा ही नहीं कर सकते। मुझे ऐसे लोग मिलते रहे। इसलिए मैं भी अपनी ओर से ज़िंदगी भर मदद करता रहा। वह एक अलग दास्तान है। फिर 1995 में ‘आजतक’ शुरू हुआ तो एसपी सिंह के साथ मैं भी उस टीम में था।

नियति ने असमय एसपी को हमसे छीन लिया। कुछ बरस बाद अजय उपाध्याय भी विशेष संवाददाता के रूप में ‘आजतक’ का हिस्सा बन गए। वे बीजेपी कवर करते थे। यह पारी लंबी नहीं चली। मगर, जल्द ही वे कार्यकारी संपादक के तौर पर ‘आजतक’ में आ गए। कारोबारी विषयों पर उनकी महारथ थी। हमारी दोस्ती में कोई अंतर नहीं आया। इसके बाद उनकी अगली खास पारी ‘हिंदुस्तान’ के संपादक की रही। उन्होंने तब फिर एक बार मुझे ‘हिंदुस्तान’ में सहायक संपादक का पद न्यौता दिया। मैंने उन्हें फिर याद दिलाया कि अख़बार में कोई पूर्णकालिक काम नहीं करने का प्रण ले रखा है। उन्हें याद था, लेकिन बोले, ‘मैंने सोचा अब शायद मन बदल गया हो।‘ मैंने उनका आभार माना।

अनगिनत यादें हैं। अजय जी जैसे लोग पत्रकारिता में अब दुर्लभ हैं। उनकी विनम्रता, ईमानदारी और शिष्टाचार उनके भीतर के इंसान को महान बनाता था। क्या कहूं अजय जी? जिंदगी भर आप ईमानदार रहे। आख़िर में बेईमानी करके चले गए। अच्छा नहीं किया। आपसे उमर भर दोस्ती निभाई। अब आकर लड़ूंगा।

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