मैं संपादक विनोद शुक्ल के लिए थोड़ी बेहतर नस्ल के कुत्ते से ज्यादा कुछ नहीं था : राघवेंद्र दुबे

रामेश्वर पाण्डेय ‘काका’ की 10 जून की एक पोस्ट याद आयी। उन्होंने लिखा है– 1) मालिक ने कहा हम पर हमला हुआ है । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में है। हम मुट्ठियां ताने मैदान में। 2) मालिक ने कहा राष्ट्रविरोधी ताकतें सर उठा रही हैं। हम मुट्ठियां ताने मैदान में।

याद आते हैं दैनिक जागरण लखनऊ के दिन .. 1992 से 94 के बीच के। तब आफिस हजरतगंज में हुआ करता था। स्थानीय संपादक विनोद शुक्ल तब मालिकों वाली हैसियत में हुआ करते थे या दिखाते थे। बहुत कम दिनों में ही मैं अपनी ऑफ बीट और मानवीय संस्पर्श की स्टोरीज के लिए खासा चर्चित हो चुका था। कुछ राजनीतिक और नौकरशाह मेरे लिखे की नोटिस लेने लगे थे और स्व. शुक्ल को फोन भी करते थे। यह जानने के लिये कि वह मुझे कहां से उठा लाये?

एक दिन मैं शुक्ल जी के साथ ही आफिस से निकला। दो – तीन उनके मुलाकाती और आ गये। मेरी तारीफ और हौसला आफजाई करने की ही नीयत से (उनका यही तरीका था) उन्होंने सामने वाले से मेरा परिचय कराया। मेरा कंधा थपथपाते कहा– …यह रहा मेरा बुलडॉग… (चेहरे पर हिंसक और आक्रामक भाव लाने के लिए जबड़ों को भींचते हुए)… जिसको कहूं फाड़ डाले। ‘हम सब’ नहीं लिख सकता लेकिन मैं तो उनके लिए थोड़ी बेहतर नस्ल के कुत्ते से ज्यादा कुछ नहीं था। यह भी उनके अच्छे मूड पर निर्भर था। वरना किसी छण वह मुझसे मेरे गले का पट्टा छीनकर, मुझे आवारा कुत्ता भी करार दे सकते थे। आखिर पत्रकार मालिक के हितों की चौकसी न करे, उसके लिए भूंकना और दुम हिलाना छोड़ दे तो करेगा क्या?

सर हम तो बजनियां हैं। जो सुर कहोगे निकाल देंगे।

काका ने अच्छा लिखा है। इसीलिये वह काका हैं। आजकल उनसे बात नहीं हो रही है। पहले बात होती थी इसलिये उन्हें तो पता है कि मैं किस हाल हूं। उनका नहीं पता।

आजकल अखबारों में मालिकों के ठीक बाद, मालिक जैसा व्यवहार करती दूसरी कतार तो और क्रूर है । वह मालिक से वफादारी दिखाने में किसी की गर्दन छपक सकती है। वे इसी और मात्र इसी योग्यता पर संपादक या स्टेट हेड बनाये जाते हैं। इसके बाद वाली कतार की कन्डीशनिंग ही इस तरह की जाती है कि वे मालिक (कम्पनी) के दुश्मन को अपना दुश्मन और उसके हितैषी को अपना हितैषी समझें। वे आज्ञाकारी मूढ़ हों।

कभी-कभी पत्रकारीय उसूलों और एकेडमिक्स पर प्रायोजित चर्चा के लिए भी एक चेहरा रखा जाता है। उसे प्रमोट कभी नहीं किया जाता। उसे अराजक और एंटी सिस्टम माना जाता है। लेकिन कहा जाता है संस्थान की बौद्धिक संपदा। ये खिताब मुझे भी मिला है। विनोद शुक्ल जी से अब तक सलीके में इतना अंतर तो आया है कि अब बुलडॉग को बौद्धिक संपदा कहा जाने लगा। बदले दौर में कुत्ता स्टेट्स सिंबल और प्राइड पजेशन हो गया। कितनी गफलत में है पत्रकार।

उनका दावा था कि वह कौओं को हंस में बदल देते थे। मैं बाद में उनका बुलडॉग, जब गोरखपुर से बुलाया गया था (लखनऊ दैनिक जागरण, 1991 में) शायद कौआ ही था। अब मैं विनोद शुक्ल जी के खांचे और काट में हंस बन रहा था। उन्हें ‘हार्ड टास्क मास्टर’ कहा जाता था और यह भी कि नकेल डाल कर किसी से जो और जैसा वह चाहते थे लिखवा लेने की कला उनमें थी। बाद में हम उनकी इच्छा शक्ति का माध्यम, तोता भी थे। मैं आफिस में कई-कई बार उनके चरण छूता था। उन्हें लोग भैया कहते थे। उस समय भी मुझे अहसास था कि मैं पत्रकार होने के अलावा सब कुछ था। बुलडॉग , कौआ, हंस और तोता।

एक मालिक हैसियत (मालिक नहीं) संपादक विनोद शुक्ल में गजब का जादू था। वह किसी को, जिसमें चाहते, उस जानवर या चिड़िया में ढाल लेते थे। उनकी तारीफ में एक बात और, बहुत दिनों तक कही गयी। वह सच भी थी। कई अखबार अपनी बदहाली के दौर से गुजरने लगे, कुछ बंद भी हुए। इस दौरान कई स्टार रिपोर्टर या काबिल समाचार संपादकों, ने दैनिक जागरण में अपने दिन बिताये। किसी ने कम समय तक किसी ने ज्यादा। वे भी जिनके नैरेशन की तारीफ बाद में महाश्वेता जी तक कर चुकी थीं। वे भी, व्यापार और अर्थ जगत की जिनकी जानकारियों और सन्दर्भों का लोहा माना जाता है। वे भी जो उस समय हमलोगों के आवेश रहे। उनसे शुक्ल जी के चर्चित झगड़े भी हुये। और भी बहुत से लोग।

 

बाबरी मस्जिद ध्वंस (6 दिसम्बर 1992) के दौरान हमें कारसेवक बनाया जा रहा था, जो संभव नहीं हो सका। यह लिखना बहुत मुनासिब नहीं लगता कि एक उच्च पदस्थ आइपीएस भविष्यवक्ता के कहने पर शुक्ल जी, हनुमान जी को हर शनिवार महावीरी (चमेली का तेल और सिंदूर) चढ़ाने लगे थे। जिमखाना क्लब में देर तक बैठ जाने के कारण, इस काम में किसी-किसी शनिवार व्यतिक्रम भी हो जाता था। योग्य और मानवीय संपादक अनिल भास्कर ने अपनी पोस्ट में लिखा है– ”…. निचले पायदानों से चिपके पत्रकार हवा के विपरीत जाने का दम बस नहीं साध पा रहे।”

अनिल जी, जैसा कि आप ने लिखा भी है, वे बेचारे उन संपादकों से हांके जा रहे हैं, जिनका पैकेज उनके संपादकीय आचरण से बड़ा है। विनोद शुक्ल कोई एक व्यक्ति नहीं संपादक संस्था में क्षरण, प्रबन्धकीय आधिपत्य, आदमीयत और पत्रकारीय मूल्यों के नेपथ्य में ठेल दिये जाने की कुसंस्कृति का नाम है। यही समय देश में आर्थिक पुनरुद्धार और उदारीकरण यानि बाजार वर्चस्व वाली अर्थव्यवस्था की आक्रामक शुरुआत का है। शुक्ल जी की संस्कृति संक्रमित भी हुई। आज के कई संपादक और प्रधान संपादक तक में। एक संपादक रिपोर्टरों को गाली देते हैं। उनकी क़ाबिलियत यह है कि वे ‘गुंडा’ हैं। ढाबे के बुझे चूल्हे को फायर झोंक कर (तड़तड़ गोलियों से) जला सकते हैं।

रामेश्वर पाण्डेय ‘काका’ ने लिखा है– ‘…हम दोनों तरफ से पूरे मनोयोग से लड़ेंगे, लौटेंगे तभी जब मलिकार लोग आपस में सुलह-सफाई कर लेंगे..’. सोच रहा हूं तमाम असल पत्रकारों की सुबह (सूरज) कैसी होगी जिसमें उन्हें मरना ही होगा। तय है मरना। वही कुछ इने-गिने (कथित बड़े नाम संपादक) हमारी इयत्ता के भी सौदागर हैं, जो पूरी पत्रकारिता का भी सौदा कर चुके हैं, दोनों ओर से। हम मुट्ठियां ताने मैदान में हैं। अंधेरगर्दी के तागों से बने नये क्षितिज को देखें। पत्रकारिता के लिये ‘जल्दीबाजी का साहित्य’, ‘रफ ड्राफ्ट ऑफ हिस्ट्री’, नैसर्गिक प्रतिपक्ष आदि शब्द तो कबके बेमतलब हो चुके हैं। वे मालिक के हित में योद्धा हैं। यह उनके जैसे तमाम का सहर्ष स्वीकार या खुद ही ओढ़ लिया गया दायित्व है।

इसीलिये अपने मातहतों की ओर वे निरंकुश राजा की नजर से देखते हैं। मालिक की खुशी के लिए उन्होंने अखबार को प्रतिभा के वध स्थल में बदल दिया है। उनकी दुर्बोध भाषा ने जीवन और आदमीयत के लिये जरूरी सारे शब्द पचा लिये हैं। ‘मेटामोरफेसिस’ के नायक की तरह जो, खुद को कॉकरोच में बदल सकता है, ऐसे ही लोगों पर दुलार का परफ्यूम स्प्रे करते हैं। आखिर उन्हें भी तो मालिक के सामने हमेशा ‘जी हुजूर’ की मुद्रा में खड़ा होना होता है। इस तरह उन्हें भी हाथ-पैर पसारने (दलाली से कमाने) का अवसर मिल जाता है। वह संपादक जो कभी ढाबे के बुझे चूल्हे को फायर झोंक कर जला सकते थे, उनके खनन माफियाओं से मधुर और व्यवसायिक रिश्ते हैं। वे अखबार को फैक्ट्री की तरह चलाते हैं और पत्रकारों को कामगार की तरह हांकते हैं। वह पहले जहां थे वहां कुछ बड़ी जगहों को छोड़, बाकी पदों पर 40 या उससे अधिक की उम्र के लोगों की नियुक्तियों पर पाबंदी लगवा दी। ऐसा इसलिये कि भूल से भी कोई ऐसा न आ जाय जिसके आगे वो फीके पड़ जाएं। शावकों के बीच विद्वान और प्रेरणा पुरुष बने रहना आसान था।

दैनिक जागरण, लखनऊ और पटना में लंबे समय तक सेवारत रहे वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र दुबे उर्फ भाऊ की एफबी वॉल से.

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