हरे प्रकाश ने साहित्य में माफियावाद को दी कड़ी चुनौती, नये मैग्जीन के साथ आये हमसबके बीच
राजेन्द्र यादवजी के जाने के बाद साहित्यिक पत्रिकाएं पढ़ना छूट ही गया था। लखनऊ की डाक से अभी ‘मंतव्य’ का पहला अंक मिला। सबसे पहले किताबनुमा पत्रिका को बीच से खोल कर मैं छपे हुए शब्दों की स्याही की खुशबू अपने भीतर तक ले गया। नई किताब हाथ में आने के बाद मैं अक्सर ऐसा करता हूं। हर नई किताब या पत्रिका का अपनी अलग खुशबू होती है। कवर पेज पर लगी बेहतरीन और विचारोत्तेजक तस्वीर को काफी देर तक देखता रहा। रस्सी पर चल रहा नट अपने कंधे पर एक गधा ढो रहा है। गधे के आंख पर पट्टी बंधी हैं और नट के पांव में घुंघरू। सोचने लगा नट ने गंधे की आंख पर पट्टी क्यों बांधी होगी? यह तस्वीर देख कर मुझे कोल्हू के बैल की एक दिलचस्प कहानी याद आ गई। एक व्यापारी ने अपनी दुकान के पीछे कोल्हू लगा रखा था। कोल्हू का बैल बिना किसी के हांके चल रहा था। बैल की आंखों पर पट्टी बंधी थी। एक मुसाफिर यह मजेदार नजारा देखकर रुक गया। उसने व्यापारी से पूछा-बड़ा सीधा है तुम्हारा ये बैल। तुम इधर दुकान पर बैठे हो और वह बिना किसी के हांके चल रहा है। व्यापारी ने कहा इसीलिए तो उसकी आंखों पर पट्टी बांध रखी है। बैल को पता ही नहीं चलता कि उसे कोई देख भी रहा है। मुसाफिर ने कहा वो तो ठीक है लेकिन अगर बैल चलते-चलते रूक कर सुस्ताने लगा तो तुम्हें कैसे पता चलेगा? व्यापारी ने कहा-उसका भी इंतजाम मैंने कर रखा है। ध्यान से देखो मैंने बैल के गले में घुंघरू बांध रखे हैं। वह जैसे ही रुकता है मुझे पता चल जाता है और मैं उसे हांक देता हूं। मुसाफिर भी हार मानने वाला नहीं था। उसने कहा अगर बैल खड़ा रहकर गर्दन हिलाता रहे तब क्या करोगे? व्यापारी ने कहा-महोदय आप अपना रास्ता देखिए। इस तरह के आइडिया देकर मेरे सीधे-सादे बैल को चालाकी मत सिखाइए। व्यापारी के ये बैल मुझे हमेशा से सरकारी नौकरों का स्मरण कराते रहे हैं। खैर पन्ने पलट रहा हूं। हरे प्रकाश उपाध्यायजी ने बड़ी खूबसूरती से इस पत्रिका को सजाया है। सामग्री के चयन में भी काफी मेहनत की है। देख रहा हूं हरे प्रकाश ने साहित्य में मफियावाद कड़ी चुनौती दी है। संपादन व चयन चुस्त है। कंटेंट भी सराहनीय है। फिलहाल तो इस खूबसूरत पत्रिका के लिए उपाध्याजी और उनकी टीम को मेरी ढेर सारी बधाई।
दया सागर जी के फेसबुक वॉल से सभार
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