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संसदीय मामलों के प्रमुख सचिव के नए संवर्ग के अस्थायी पद पर दुबे की पुनर्नियुक्ति और ज्वॉइनिंग में बड़ा घोटाला

इस तरह 19 जनवरी 2009 को उद्देश्यपूर्ण ढंग से दुबे को संसदीय कार्य सचिवालय से विधान सभा में सुविधाजनक प्रवेश दिलाकर काले अध्याय की जो कहानी शुरू की गई थी, वह अनंत है और खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही है। उसके बाद से ही विधान भवन की साख बचाने के लिए सचिवालय न्यायपालिका के चक्कर मार रहा है। इस षड़यंत्र की पुष्टि 27 जून 2011 के पत्र में निहित भाषा और प्रावधान से होती है, जिसके तहत स्थापना अनुभाग द्वारा दुबे को सेवा स्थानांतरण के नाम पर संसदीय कार्य से विधान सभा में स्थानांतरित कर दिया गया था।

दृष्टान्त के संपादक अनूप गुप्ता की रिपोर्ट 

लोगों ने पुनर्जन्म के बारे में कई बार सुना या पढ़ा होगा। यू-ट्यूब के दौर में हो सकता है इंटरव्यू भी देखा हो। किसी हादसे में बच जाने के बाद परिवार के बड़े-बुजुर्गों के मुंह से नया जन्म हुआ है, यह भी सुना होगा, पर कोई अति मानव (सुपर ह्यूमन) दो बार पैदा हुआ, यह तो पक्का कभी नहीं सुना होगा और न कभी सुनने को मिलेगा। देश-प्रदेश का कोई आदमी अगर उत्तर प्रदेश विधान भवन के आसपास से निकले तो पास बनवा कर ऐसे महामानव के दर्शन कर सकता है। पास न बनवा पाने की स्थिति में गेट पर खड़े होकर घुसने व निकलने के क्रम में सरकारी कार में दर्शन कर सकता है और यहां भी दुर्भाग्य साथ न छोड़े तो डेढ़ किलोमीटर आगे जाकर वीआईपी गेस्ट हाउस के पास डॉलीबाग कॉलोनी में करीब 30000 वर्ग फुट में बने छह कमरे की सरकारी खोली में घुसते व निकलते समय दर्शन कर पुण्य लाभ कमा सकता है व बचे हुए जीवन को धन्य कर सकता है।

कोई चाहे तो गुरु घंटाल मानकर दो नंबर के पैसे कमाकर गरीबी दूर करने की टिप्स भी ले सकता है। यहां बात किसी ऐरे-गैरे की नहीं, बल्कि एक ऐसे ऐड़े-बेड़े व टेढ़े आदमी की हो रही है, जो पैदा होने के मामले में इच्छाधारी है, सहूलत और जरूरत के हिसाब से जन्मतिथि बदल लेता है। आमतौर पर माता-पिता ही जन्म की तिथि बताते व स्कूल में लिखाते हैं, पर इस अलबेले केस में उनकी भी जरूरत नहीं पड़ी। यह काम सरकारी अस्पताल की दाई की तरह कर दिया हैकर टाइप के एक अदद कम्यूटर ऑपरेटर ने। जाहिर सी बात है कि इतना बड़ा एहसान करने में उसे भी आनंद आ गया होगा।

यह कोई हवाबाजी न होकर प्रमाण सहित बात है, जो सरकार की आंख के तारे किमियागर ने हाई कोर्ट में दिए गए हलफनामे में बताई है। जबरिया रिटायरमेंट और कागज दिखाओ के इस दौर में भी कई बार रिटायर होने के बाद भी फर्जी जन्मतिथि के आधार पर विधानसभा के प्रमुख सचिव पद पर करीब आठ साल से जबरन काबिज हैं प्रदीप कुमार दुबे, जिनके पास सेवा विस्तार, मनोनयन या पुनर्नियुक्ति का कोई भी कागज नहीं है लोकतंत्र के किसी भी खंभे को दिखाने के लिए। दिनदहाड़े यह आदमी हाई कोर्ट में घुसकर हलफनामा देकर आया और चारों खंभों को पता है कि हलफनामे में लिखी जन्मतिथि फर्जी है और विधान भवन में नौकरी ज्वॉइन करते समय लिखित में दी गई जन्मतिथि से मेल नहीं खाती है, फिर भी देखकर मक्खी निगल रहा है प्रदेश का सिस्टम।

जानकार बताते हैं कि इससे पहले किसी मामले में हाई कोर्ट की इतनी पतली हालत अतीत में कभी नहीं देखी गई। इसकी वजह बताया जाता है हाई कोर्ट में जज रही प्रदीप की पत्नी रेखा दीक्षित को। निम्न तथ्यों पर गौर करने के बाद ऊपर लिखी एक-एक बात की पुष्टि होती है। एक व्हिसल ब्लोअर, आरटीआई कार्यकर्ता, समाज सुधारक, किसान, उत्तर प्रदेश गौ सेवा आयोग के पूर्व सदस्य व सरकार की जीरो टॉलरेंस नीति को आगे बढ़ाते हुए न्याय, समानता और भ्रष्टाचार मुक्त भारत के योद्धा सुप्रीम कोर्ट के वरिठ अधिवक्ता डॉ. संदीप पहल कहते हैं कि नक्सलवादियों से अनंतगुणा खतरनाक अपराधी होता है रिश्वतखोर सरकारी नौकर।

उन्होंने कहा है कि प्रकृति के दुर्लभ उपहार दिमाग का इस्तेमाल सिक्के बनाने के लिए करने के बजाय भ्रष्ट लोक सेवकों और माफिया के खिलाफ लड़ने के लिए अपने जीवन को खतरे में डालने वालों का साथ देना चाहिए। 15 अप्रैल 1957 को इटावा में पैदा हुए दुबे उत्तर प्रदेश सरकार में संसदीय कार्य के प्रमुख सचिव के नए संवर्गीय अस्थायी पद पर उसी दिन (13 जनवरी 2009) पुनर्नियुक्ति व कार्यभार ग्रहण कराने में बड़ा घोटाला हुआ है। शर्म का बिंदु सिर्फ इतना है कि शासन की नाक के नीचे शासन की मर्जी से यह सब हुआ और जनता को मूर्ख समझ कर सब किया गया। मूल नियोक्ता उच्च न्यायालय था।

न्यायिक सेवा से मुक्त किए बिना तथा न्यायिक सेवा का प्रभार त्यागे बिना ही उत्तर प्रदेश सरकार में नियुक्ति हो गई। इस पर किसी पक्ष ने शर्म महसूस नहीं की, यह अद्भुत है। नियुक्ति अनुभाग ने वीआरएस स्वीकार किया बाद में और शासन में नियुक्ति हो गई पहले। साथ ही विधानसभा के प्रमुख सचिव का अतिरिक्त अस्थायी प्रभार हफ्ते भर में ही मिल गया अलग से। यह राजनीतिक नियुक्ति थी। दोनों का इतना सुंदर कॉकटेल शायद ही पहले कभी देखने को मिला हो। 19 जनवरी को उन्हें अतिरिक्त प्रभार मिला था, जबकि एक आरटीआई से पता चला कि उच्च न्यायालय द्वारा 27 जनवरी 2009 के बाद न्यायिक सेवा से मुक्त किया गया था।

इतना ही नहीं, बिना किसी प्रावधान के विविध आदेश पत्र संख्या 100/2009 के जरिए सचिवालय में स्थानांतरित कर दिया गया। ऐसा तो आठ दशक के इतिहास में कभी नहीं हुआ उत्तर प्रदेश विधान सभा सचिवालय में। दुबे की पुनर्नियुक्ति में बड़ा घोटाला यह भी है कि छह मार्च 2012 के आदेश द्वारा स्थापित अनुभाग विधान सभा सचिवालय द्वारा पुनर्नियुक्ति के अनुकूल सेवा नियमों में परिवर्तन करने के पश्चात् सिविल रिट संख्या में अंतिम परिणाम की शर्त के अधीन जारी किया गया। राज बहादुर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य, जो 62 वर्ष की आयु प्राप्त करने के बाद विधान सभा सचिवालय के स्थापित अनुभाग द्वारा 30 अप्रैल 2019 को जारी सेवानिवृत्ति अधिसूचना के बाद भी सक्षम प्राधिकारी के वैध आदेशों के बिना अब भी सेवा में है।

जब किसी दुबे का पहला जन्म 15 अप्रैल 1957 को होता है और मियाद पूरी होने पर दो साल के अमान्य व अघोषित सेवा विस्तार के बाद 30 अप्रैल 2019 को लिखत-पढ़त में रिटायर हो गया तो उसके बाद जबरन अभी तक पद पर क्यों बना हुआ है? विधान सभा सचिवालय है या खाला का घर, कोई ट्रस्ट या कोई निजी विश्वविद्यालय, जहां तक जीवन पर्यंत (अंतिम सांस) तक पद पर बने रहने का नियम होता है। ज्ञात हो कि रिटायर होने के एक साल बाद 17 मार्च 2020 को सेवा नियमावली में मनमाना बदलाव किया गया तो फिर एक साल किसके आदेश से पद पर बना रहा या फिर खाला के घर की तरह के हैं कानून? उसके बाद अप्रैल 2025 तक किस विज्ञापना, सेवा विस्तार या पुनर्नियुक्ति से बना हुआ है।

इसका जवाब स्पीकर देंगे या विधायिका, कार्यपालिका या फिर न्यायपालिका। इतने बड़े राज्य में इतने बुलडोजर, इतनी संवैधानिक संस्थाओं व कानून के शासन होते हुए इस काम की जिम्मेदारी कौन लेगा? क्या यह सब हाथी के दांत की तरह है या पैसे वालों, दबंगों, भू-माफिया की रखैल हैं देश के कानून। उल्लेखनीय है कि 19 अक्टूबर 2019 को हाई कोर्ट में क्रिमिनल केस संख्या 656 (सी) 2014 में राम चंद्र अस्थाना बनाम प्रदीप दुबे के मामले में 62 साल से अधिक की उम्र में पेश किए गए हलफनामे में अपनी उम्र 57 साल बताई थी यानी कि दुबे दूसरी बार पैदा हुए थे 15 अप्रैल 1962 को।

हैरानी और परेशानी इस बात पर है कि वह कौन है, जो जनता की नजर में हाई कोर्ट की बेइज्जती करवा रहा है या फिर बुढ़ापे में हाई कोर्ट की समझ इतनी कमजोर हो गई है कि वह समझ ही नहीं पा रहा है कि बात उसकी इज्जत तक आ गई है। संसदीय मामलों के प्रमुख सचिव के नए संवर्ग के अस्थायी पद पर दुबे की पुनर्नियुक्ति और ज्वॉइनिंग में बड़ा घोटाला किया गया है। उन्होंने मूल नियोक्ता उच्च न्यायालय द्वारा न्यायिक सेवा से मुक्त किए बिना तथा न्यायिक सेवा का प्रभार त्यागे बिना ही उत्तर प्रदेश सरकार (नए नियोक्ता) के नियुक्ति अनुभाग द्वारा न्यायिक सेवा से वीआरएस स्वीकार करने तथा साथ ही विधान सभा के प्रमुख सचिव के राजनीतिक नियुक्ति पद का अतिरिक्त अस्थायी प्रभार हफ्ते भर के अंदर ही जुगाड़ से पा लिया था।

पानी की तरह पैसा बहाकर पानी की तरह ही रास्ता बनाता चला गया। दुबे की दीर्घकालीन सेवाओं के दृष्टिगत पूर्व में दी गई सैद्धांतिक सहमति के क्रम में राज्यपाल द्वारा शासन स्तर पर प्रमुख सचिव, संसदीय कार्य का एक अस्थायी पद वेतनमान रुपए 37400-67000 (जीपी 12000), जो एचजेएस संवर्ग का पद नहीं होगा और जिसे एचजेएस संवर्ग के अधिकारी से नहीं भरा जाएगा, पदधारक के कार्यभार ग्रहण करने की तिथि से सृजित करने और उस पर प्रदीप की तत्काल प्रभाव से नियुक्ति की सहर्ष स्वीकृति प्रदान की गई है। इतिहास में ऐसी मेहरबानी के कम ही उदाहरण मिलते हैं।

पत्र की भाषा और विषयवस्तु दुबे को अवैध रूप से अनुचित असाधारण लाभ देने के लिए एक बड़े घोटाले की बात करती है, जो न्यायिक सेवा से वीआरएस चाहने वालों को गैर-न्यायिक सेवा राजनीतिक पद पर शुरुआत में यूपी में संसदीय मामलों के प्रमुख सचिव के पद पर प्रवेश देने की एक बड़ी साजिश की बात करती है। ध्यान आकर्षित करना प्रासंगिक है कि स्थापना अनुभाग द्वारा दुबे को प्रमुख सचिव संसदीय कार्य के अस्थायी प्रभार के अतिरिक्त प्रमुख सचिव विधान सभा का अतिरिक्त अस्थायी प्रभार लेने की अनुमति दी गई थी।

इस तरह 19 जनवरी 2009 को उद्देश्यपूर्ण ढंग से दुबे को संसदीय कार्य सचिवालय से विधान सभा में सुविधाजनक प्रवेश दिलाकर काले अध्याय की जो कहानी शुरू की गई थी, वह अनंत है और खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही है। उसके बाद से ही विधान भवन की साख बचाने के लिए सचिवालय न्यायपालिका के चक्कर मार रहा है। इस षड़यंत्र की पुष्टि 27 जून 2011 के पत्र में निहित भाषा और प्रावधान से होती है, जिसके तहत स्थापना अनुभाग द्वारा दुबे को सेवा स्थानांतरण के नाम पर संसदीय कार्य से विधान सभा में स्थानांतरित कर दिया गया था।

प्रमुख सचिव विधानसभा के पद पर अस्थायी नियुक्ति / प्रभार के माध्यम से सचिवालय में प्रवेश लेने के बाद बड़े घोटाले की ओर ध्यान आकर्षित करना भी प्रासंगिक है। दुबे ने खुद ही नियमों में संशोधन करके विधानसभा के प्रमुख सचिव के नियमित पद पर अपनी नियमित नियुक्ति का प्रबंध कर लिया था और अज्ञात कारणों से स्पीकर और राज्यपाल ने भी उसके इशारे पर हस्ताक्षर किए थे। राजबहादुर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य के केस में उच्च न्यायालय ने 29 फरवरी के 2012 के तहत प्रतिवादी प्रमुख सचिव, विधानसभा को छह सप्ताह के भीतर जवाबी हलफनामा दायर करने का आदेश दिया था।

चूंकि दुबे विधानसभा के प्रमुख सचिव के पद पर हैं और कानून के जानकार होने के कारण उसकी पकड़ व पहुंच से भी परिचित हैं तो कानून के शिकंजे से खुद को बचाते हुए 13 वर्ष बीत जाने के बावजूद जान-बूझकर अभी तक जवाबी हलफनामा दायर नहीं किया है, जो न्यायिक कार्यवाही में बाधा डालने के बराबर है, जो कि न्यायालय की अवमानना अधिनियम की धारा 2 (सी) के तहत न्यायालय की आपराधिक अवमानना के अलावा वैधानिक कर्तव्य की उपेक्षा भी है। यह हितों के टकराव का स्पष्ट मामला है, जिसके लिए उन्हें प्रमुख सचिव के पद से तत्काल हटाया जाना आवश्यक है। कहीं भी जब सुनवाई नहीं हुई तो प्रासंगिक है कि राष्ट्रपति द्वारा प्रमुख सचिव दुबे के खिलाफ प्रकरण की जांच के लिए आदेश दिया जाए।

मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और गवर्नर कार्यालय से भी पत्र जारी हो चुके हैं, पर हैरत है बात आगे बढ़ी ही नहीं, क्योंकि हर पक्ष सचिवालय पहुंचता है और वहां का एक मात्र रावण होने के कारण उनको कूड़ेदान में फेंकवा देता है। यह हितों के टकराव का स्पष्ट मामला है, जिसके लिए प्रमुख सचिव के पद से तत्काल हटाया जाना आवश्यक है। कार्मिक, लोक शिकायत एवं पेंशन मंत्रालय भारत सरकार के पत्रों का भी यही हाल हुआ। उसे हटाए बिना तो कभी स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच हो ही नहीं पाएगी।

ज्ञात हो कि दुबे ने 30 अप्रैल 2019 को 62 वर्ष की आयु प्राप्त कर ली और रिटायरमेंट का लेटर भी जारी हो गया। आरटीआई डालने से पता चला कि शासन ने न उन्हें सेवा विस्तार दिया है और न ही पुनर्नियुक्ति की है यानी कि सक्षम प्राधिकारी के वैध आदेश के बिना वह लगातार आठ साल से पद पर बने हुए हैं। समझ से परे यह है कि विधान सभा सचिवालय है या खाला का घर। राजपत्र अधिसूचना संख्या- 261/90 मार्च 17 2020 के बाद सेवानिवृत्त अधिकारी को 65 वर्ष की आयु के बाद प्रमुख सचिव का पद धारण करने से रोकता / निषिद्ध करता है।

रोक तो बहुत पहले से है, पर वह अपनी सुविधानुसार नियमों में हेर-फेर कर रिटायरमेंट की अवधि बढ़ा लेता है। अहम है कि उसे सदन से भी नियमों को पास कराने की जरूरत नहीं होती। अब तो 68 साल का हो चुका है और ताजा जन्मतिथि के हिसाब से 70 की उम्र में रिटायर होगा, जबकि पहले की जन्मतिथि के मुताबिक, वह उस दिन 75 साल का हो जाएगा। विधान भवन में दुबे का ही सिक्का चलता है। उसके आगे सरकार भी नतमस्तक है।

भ्रष्ट लोक सेवक को घोषित करें राष्ट्र विरोधी

न्यायमूर्ति एसएम सुब्रमण्यम की अध्यक्षता वाले मद्रास उच्च न्यायालय ने माना है कि भ्रष्ट लोक सेवकों को राष्ट्र विरोधी घोषित किया जाना चाहिए। समाज के हित में भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी बनाम मनमोहन सिंह एवं अन्य में स्पष्ट रूप से कानून निर्धारित किया कि इस बात पर विवाद नहीं किया जा सकता कि जहां भ्रष्टाचार शुरू होता है, वहां सभी अधिकार समाप्त हो जाते हैं। भ्रष्टाचार मानव अधिकारों का अवमूल्यन करता है, विकास को रोकता है और न्याय, स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व को कमजोर करता है, जो संविधान की प्रस्तावना के मूल मूल्य हैं। शिकायतों की जांच के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने अजीजा बेगम बनाम महाराष्ट्र के केस में कहा था कि देश के प्रत्येक नागरिक को शिकायत की जांच कराने का अधिकार है।

कानूनों के तहत प्रदान की गई जांच का ढांचा चुनिंदा रूप से कुछ लोगों के लिए उपलब्ध नहीं कराया जा सकता और दूसरों को इससे वंचित नहीं किया जा सकता है। यह कानून के समान संरक्षण का प्रश्न है तथा संविधान के अनुच्छेद-14 की गारंटी के अंतर्गत आता है। कानूनों के दम पर डॉ. पहल ने कहा है कि यदि कोई कार्रवाई नहीं की जाती है तो फिर अपराधियों को बचाने वाले अधिकारियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई शुरू करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। यदि आरोप सही हों तो सजा अपराधी को मिले और यदि गलत हैं तो हमें सजा दी जाए, जो भी किया जाए जल्द किया जाए ताकि देश के कानूनों से देश की जनता का भरोसा न उठने पाए, वरना वे समझेंगे कि कानून पैसे वाले की रखैल हैं।

याचिका के लिए लगाई हाईकोर्ट में अर्जी

उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार के जरिए मुख्य न्यायाधीश को भेजे गए पत्र में कहा है कि बड़े पैमाने पर समाज के हित में जनहित याचिका में इसे परिवर्तित करके जल्द न्याय दिलाया जाए, नहीं तो जनता का विश्वास हिल जाएगा। कई साल से दस्तावेजी साक्ष्य के साथ शिकायतें राज्यपाल, मुख्यमंत्री, विधान सभा स्पीकर व प्रधानमंत्री से की गई। विधान सभा और कई अन्य प्राधिकरणों में शिकायत की गई, लेकिन आज तक कार्रवाई नहीं की गई। ऐसे आदमी को विधान भवन का रावण कहना रावण का पक्के तौर पर अपमान होगा। इतने घर बर्बाद करने के बाद तो इस आदमी को विधान सभा का राक्षस कहना ही ठीक होगा।

सभार …………………………………

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