फर्जी सर्कुलेशन से यूपी में अरबों की लूट
भ्रष्टाचार की खबरों को नमक-मिर्च लगाकर परोसने वाला कथित ‘चतुर्थ स्तम्भ’ स्वयं कितना भ्रष्ट है, इसका अंदाजा उसकी फर्जी प्रसार संख्या केा देखकर सहज ही लगाया जा सकता है। यूपी की जनसंख्या (वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार लगभग 20 करोड़) से कहीं अधिक दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक पत्र-पत्रिकाओं की प्रसार संख्या है। यह चौंकाने वाला आंकड़ा सूचना एवं जनसम्पर्क निदेशालय की कम्प्यूटर शाखा में दर्ज है। एक हजार से भी ज्यादा अखबार सरकारी विज्ञापन की लालसा में सूचीबद्ध हैं जबकि बाजारों और घरों में गिने-चुने अखबार ही नजर आते हैं।
1 अप्रैल 2013 से 30 सितम्बर 2014 के बीच इन अखबार कर्मियों में से ज्यादातर ने फर्जी प्रसार संख्या के आधार पर सूबे के सरकारी खजाने से विज्ञापन की शक्ल में लगभग सवा अरब से भी ज्यादा की रकम लूटी है। यदि हम बात करें यूपी की राजधानी लखनऊ की, तो और भी अधिक चौंकाने वाले आंकड़े नजर आते हैं। सूचना विभाग की निरीक्षा शाखा से गुजरकर कम्प्यूटर शाखा में दर्ज आंकड़ों के अनुसार 293 अखबारों ने अपना प्रकाशन स्थल लखनऊ दर्शा कर विज्ञापन के लिए सूचीबद्ध करा रखा है। महत्वपूर्ण पहलू यह है कि वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार राजधानी लखनऊ की आबादी लगभग 45 लाख है जबकि राजधानी लखनऊ में अखबारों की प्रसार संख्या 90 लाख से भी अधिक है। यह आंकड़ा सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग में दर्ज है। मीडिया के इस फर्जीवाडे़ पर विभाग के अधिकारी और कर्मचारी भी खामोश हैं। उनकी खामोशी का रहस्य क्या है ? यह जांच का विषय हो सकता है लेकिन मीडिया के फर्जीवाड़े के फेर में सरकारी खजाने में सेंधमारी की जा रही है। अधिकतर वे अखबार सेंधमारी कर रहे हैं जो अस्तित्व में ही नहीं हैं। जो हैं भी वे महज फाइल कॉपी तक ही सीमित हैं।
खेल में अधिकारियों की भी सहभागिता
इन्हीं फर्जी आंकड़ों और सूचना विभाग की संस्तुति पर अखिलेश सरकार ने अपनी सरकार की छवि सुधारने की लालसा में महज 18 माह में ही 125 करोड़ से भी ज्यादा की राजकीय धनराशि फर्जी प्रसार संख्या वाले अखबारों पर लुटा दी। एक अनुमान के मुताबिक इतनी बड़ी धनराशि से सूबे के कई उद्योगों को पुनर्जीवित किया जा सकता था। इतनी बड़ी धनराशि चिकित्सा और शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति ला सकती थी। इसके विपरीत अरबों का सरकारी खजाना उन अखबारों पर लुटा दिया गया जो नियमानुसार आर.एन.आई., डी.ए.वी.पी. और सूचना विभाग की गाइड लाईन को भी पूरा नहीं करते। ऐसा नहीं है कि इसकी जानकारी सम्बन्धित जिम्मेदार अधिकारियों को नहीं है। इसके बावजूद उनकी रहस्यमयी चुप्पी साफ बता रही है कि लूट के इस खेल में उनकी भी सहभागिता है। प्राप्त जानकारी के मुताबिक लूट के इस खेल में तथाकथित कुछ कमीशनखोर अधिकारी और कर्मचारी यूपी के सरकारी खजाने को पिछले कई दशकों से लूटने में सहभागिता निभा रहे हैं। प्रस्तुत है एक विस्तृत रिपोर्ट:-
एक तरफ तो सपा सरकार बजट की तंगी का रोना रोकर विकास कार्य प्रभावित होने की बात करती है वहीं दूसरी ओर सरकारी खजाने से करोड़ों रूपए उन मीडिया कर्मियों के बीच विज्ञापन की शक्ल में लुटाए जा रहे हैं जिनका नियमानुसार वजूद ही नहीं होना चाहिए था। सैकड़ों की संख्या में दो से चार पन्ने वाले अखबार महज फाईल कॉपी के लिए ही ट्रेडिल मशीन अथवा सीट ऑफसेट मशीनों पर अपनी प्रतियां छपवाते हैं। गौरतलब है कि उपरोक्त मशीनों की क्षमता ही नहीं है कि कथित फर्जी अखबारों द्वारा दर्शाए गए प्रसार संख्या के आधार पर छपाई कर सकें। ऐसे अखबार पिछले कई वर्षों से महज फाईल कॉपी के लिए 20 से 25 प्रतियां छपवाकर सूचना विभाग में जमा करवाते आ रहे हैं। बदले में हजारों की प्रसार संख्या दिखाकर प्रतिवर्ष लाखों का विज्ञापन बटोर रहे हैं।
सूचना विभाग के कर्मचारी भी शामिल हैं इस खेल में
विडम्बना यह है कि विभाग के आला अधिकारी से लेकर चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी भी इस फर्जीवाड़े से भली-भांति परिचित हैं, इसके बावजूद वे खुली आंख से सरकारी खजाने को लुटता देख रहे हैं। अचम्भा तब होता है जब अधिकारी ऐसे अखबार वालों को अपशब्दों से तो नवाजते हैं लेकिन बात जब पहल करने की आती है तो पीछे हट जाते हैं। इनकी मजबूरी के पीछे की कहानी भी कम चौंकाने वाली नहीं है। सच तो यह है कि सूचना विभाग के ही कई कर्मचारियों-अधिकारियों ने अपने परिजनों के नाम से अखबार/पत्रिका का शीर्षक आवंटित करवा रखा है। इन्हीं अखबारों और पत्रिकाओं के सहारे वे भी सरकारी खजाने में जमकर सेंध लगा रहे हैं। जिन्हें अखबारों/पत्रिकाओं की चौकसी करने के लिए मोटे वेतनमान पर सरकार ने तैनात कर रखा है वे ही फर्जी अखबार वालों के साथ मिलकर ‘‘चोर-चोर, मौसेरे भाई’’ की तर्ज पर खुलेआम सरकारी खजाने को लूटने में व्यस्त हैं। इस अंक में उत्तर-प्रदेश सरकार के खजाने को लूटने वाले उन लोगों का खुलासा किया जा रहा है जिन्होंने फर्जी प्रसार संख्या के सहारे यूपी सरकार के खजाने से 75 करोड़ से भी ज्यादा रूपये विज्ञापन की शक्ल में महज 18 महीनों में ही लूट लिए।
सूबे की अखिलेश सरकार ने छवि सुधारने की गरज से (1 अप्रैल 2013 से 30 सितम्बर 2014) लगभग अट्ठारह महीनों के दौरान विज्ञापन के मद में 125 करोड़ से भी ज्यादा की धनराशि यूपी और दिल्ली के कुछ अखबारों पर लुटा दी। यूपी के सरकारी खजाने से इतनी बड़ी धनराशि लुटाने के बावजूद अखिलेश सरकार की छवि तो नहीं सुधरी अलबत्ता वे अखबार मालिक माला-माल हो गए जिनके अखबारों की प्रसार संख्या फाईल कॉपी (20 से 25 कॉपी) तक ही सीमित है। नियमतः 2000 से कम प्रसार संख्या वाले अखबारों को विज्ञापन दिए जाने की सुविधा नहीं है, इसलिए 90 प्रतिशत से भी ज्यादा अखबार वालों ने फर्जी हलफनामा और फर्जी प्रपत्रों के माध्यम से हजारों-लाखों की प्रसार संख्या सूचना एवं जनसम्पर्क निदेशालय के सम्बन्धित विभाग में दर्ज करा रखी है। हालांकि प्रसार संख्या के आधार पर अधिक दर पर विज्ञापन प्राप्त करने वालों की जांच के लिए बकायदा ‘‘निरीक्षा शाखा’’ भी अस्तित्व में है, इसके बावजूद फर्जी प्रसार संख्या दर्शाकर प्रति वर्ष लाखों का विज्ञापन बटोरने वाले अखबार स्वामी मालामाल हो रहे हैं।
नवनीत सहगल को भी है इसकी जानकारी
ऐसा नहीं है कि इस फर्जीवाड़े की जानकारी सम्बन्धित विभाग के उच्चाधिकारियों को नहीं है, उन्हें इस फर्जीवाड़े की जानकारी पुख्ता प्रमाणों के साथ विभिन्न संगठनों और कुछ पत्रकारों द्वारा उपलब्ध करायी जा चुकी है। जानकार सूत्रों की मानें तो इस फर्जीवाडे़ की जानकारी सूचना विभाग के ही अधिकारियों ने वर्तमान प्रमुख सचिव (सूचना) नवनीत सहगल को भी दे रखी है। इसके बावजूद सूबे की सरकार और सम्बन्धित विभाग के आला अधिकारी जिस तरह से यूपी के खजाने को चुपचाप लुटता देख रहे हैं, उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि वर्तमान सपा सरकार के कार्यकाल में सब कुछ जानते हुए भी जिंदा मक्खी निगलने का प्रयास किया जा रहा है। यदि यह कहा जाए कि सपा सरकार अपना हित साधने की गरज से ऐसे अखबारों की पोषक बनी हुई है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए। इसके पीछे सपा सरकार की वास्तविक मजबूरी क्या है? यह जांच का विषय हो सकता है लेकिन ‘दृष्टांत’ के पास र्प्याप्त मात्रा में उपलब्ध दस्तावेज साफ बता रहे हैं कि यूपी के खजाने को लूटने वाले कथित पत्रकार और दो से चार पन्नों वाले अखबार स्वामी किस तरह से सरकार की मजबूरी का फायदा उठा रहे हैं।
लखनऊ में ही 293 सूचीबद्ध अखबार
कुछ चौंकाने वाली जानकारियां ऐसी हैं जो इस लूट कांड का पर्दाफाश करने के लिए काफी है। सूचना एवं जनसम्पर्क निदेशालय में सिर्फ लखनऊ से ही अपना प्रकाशन दर्शाने वाले सूचीबद्ध अखबारों की संख्या 293 है। इसमें उर्दू अखबारों की संख्या 94 है जबकि अंग्रेजी के 11 अखबारों ने लखनऊ से अपना प्रकाशन स्थल दर्शाकर विज्ञापन के लिए सूचीबद्ध करवा रखा है। हिन्दी के अखबारों की संख्या 188 है। इन्हीं 293 अखबारों की सूचना विभाग के रजिस्टर में प्रसार संख्या लगभग 90 लाख़ दर्ज है। चौंकाने वाला पहलू यह है कि लखनऊ की जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 45 लाख 89 हजार 838 है। यूपी की राजधानी होने के नाते यहां का साक्षरता प्रतिशत 77.29 है। 31 लाख 27 हजार 260 लोग साक्षर की श्रेणी में चिन्हित किए गए हैं। लगभग 28 लाख की आबादी शहर में रहती है शेष ग्रामीण इलाकों में। जहां तक ग्रामीण इलाकों में समाचार-पत्रों के प्रसार संख्या की बात है तो एक जानकारी के अनुसार ग्रामीण इलाकों में सिर्फ 20 प्रतिशत घरों में ही समाचार-पत्र आते हैं। इन आंकड़ों को बताने का तात्पर्य यह है कि लगभग 46 लाख की आबादी में 90 लाख से भी ज्यादा अखबार कैसे बिक जाते हैं ? यह चौंकाने वाले आंकड़े तो महज लखनऊ से प्रकाशन स्थल दर्शाने वाले अखबारों के हैं जबकि हकीकत यह है कि सूचना एवं जनसम्पर्क निदेशालय में यूपी सरकार के खजाने को लूटने के लिए 1003 अखबारों ने सूचीबद्ध करवा रखा है।
फर्जी सर्कुलेशन का बड़ा खेल
फर्जी प्रपत्रों के आधार पर प्रसार संख्या अधिक दिखाने के पीछे भी कई महत्वपूर्ण कारण मौजूद हैं। सर्वप्रथम डीएवीपी और यूपीआईडी से मिलने वाले विज्ञापन की दरों में इजाफा तो इन अखबार कर्मियों के लिए महत्वपूर्ण है ही साथ ही जिला, मण्डल और मुख्यालय से मान्यता हासिल करने और सरकारी आवास हासिल करने के लिए भी फर्जी सर्कुलेशन का खेल खेला जा रहा है। हालांकि पत्रकारों की मान्यता के लिए ऐसी कोई नियमावली नहीं बनी है जिसके तहत पत्रकारों को जिला और मुख्यालय स्तर पर मान्यता दी जा सके, अलबत्ता मार्गदर्शिका-2008 में गाइडलाईन जरूर बनी है। उपरोक्त गाइडलाईन तत्कालीन सूचना सचिव सुनील कुमार ने तैयार करवाई थी। तब से लेकर अब तब उसी गाइडलाईन पर पत्रकारों को मान्यता प्रदान की जा रही है।
गौरतलब है कि मार्कण्डेय काटजू ने भी इस मामले में हस्तक्षेप किया था लेकिन तत्कालीन सरकार ने अपना हित साधने की गरज से काटजू के विरोध पर कोई ध्यान नहीं दिया। वर्ष 2012-2013 में सूचना विभाग ने भी प्रेस काउंसिल को सूचित किया था कि इस कार्य के लिए वह समिति गठित करे और वही नियमावली तैयार करे। समिति गठित होने से पहले ही विभागीय समिति ने अपनी मर्जी से जिसे चाहा उसे अपनी गाइडलाईन पर मान्यता प्रदान कर दी। सूचना विभाग में जो गाइडलाईन बनी हुई है उसके अनुसार 6 हजार व उससे अधिक के प्रसार संख्या वाले अखबार कर्मियों को जिले से मान्यता दिए जाने का नियम है। इसी तरह से 25 हजार तक की प्रसार संख्या वाले दैनिक अखबार से एक पत्रकार को मुख्यालय से मान्यता मिल सकती है। इसी तरह से 25 हजार से 50 हजार की प्रसार संख्या वाले अखबार से दो और उससे अधिक प्रसार संख्या वाले अखबार से तीन व उससे अधिक पत्रकारों को मान्यता दी जा सकती है। सच तो यह है कि जितनी संख्या में दैनिक अखबार से पत्रकारों को मान्यता दी गयी है उतनी प्रसार संख्या किसी भी अखबार की नहीं है। यह दीगर बात है कि फर्जी प्रपत्रों के आधार पर इन अखबारों ने अपनी प्रसार संख्या लाखों में दिखा रखी हो।
कमीशन के लिए में सूचना विभाग के कर्मी कराते हैं खेल
अखबारों के इस फर्जीवाडे़ में सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग के कुछ कथित भ्रष्ट कर्मचारी से लेकर अधिकारी तक शामिल हैं। वे ही अखबार कर्मियों को मान्यता व अन्य लाभ के लिए फर्जी प्रसार संख्या बढ़वाने के लिए प्रेरित करते रहे हैं। तरीका बताने का काम भी विभाग के ही अधिकारी से लेकर कर्मचारी तक करते हैं। एवज में उन्हें मिलता है अखबार कर्मियों से कमीशन। यह जानकार आश्चर्य होगा कि ऐसे कर्मचारियों को कमीशन देने वाले अखबारों में दो से चार पन्ने वाले अखबारों के साथ ही कुछ ऐसे दैनिक अखबार भी शामिल हैं जो यूपी ही नहीं बल्कि देश भर में अपनी पहचान रखते हैं।
विभाग के ही एक अधिकारी की मानें तो फर्जी प्रसार संख्या दर्शाने का खेल बिना अधिकारियों और कर्मचारियों की मिली-भगत से संभव ही नहीं है। गौरतलब है कि सूचना विभाग में अखबारों की प्रतियां नियमित जमा किए जाने का प्राविधान है। तभी उस अखबार को नियमित मानते हुए विज्ञापन और अन्य सुविधाएं प्रदान की जाती हैं। सम्बन्धित विभाग के अधिकारी और कर्मचारी भी यह बात भली-भांति जानते हैं कि कौन से अखबार कितनी संख्या में छपता है। वे चुप इसलिए रहते हैं क्योंकि अखबार कर्मियों की ओर से उन्हें नियमित सुविधा शुल्क सहित त्योहारों पर उपहार मिला करते हैं। कुछ अखबार कर्मी तो सीधे उच्चाधिकारियों से सम्पर्क साधकर अपना उल्लू सीधा करते आ रहे हैं।
विडम्बना यह है कि अखबार कर्मियों पर ‘हर्र लगे न फिटकरी रंग चोखा’ वाली कहावत चरितार्थ होते देख सूचना विभाग से जुडे़ कई अधिकारी और कर्मचारियों ने भी अपने परिजनों के नाम से अखबारों का पंजीकरण करा रखा है। वे भी दूसरे अखबार कर्मियों की तरह फर्जी प्रपत्रों के सहारे अपना हित साध रहे हैं। जो अखबार स्टॉल तक नहीं पहुंच पाते उनकी प्रसार संख्या 50 हजार से भी ज्यादा दिखायी जा रही है। जो कहीं नजर नहीं आते वे प्रतिवर्ष यूपीआईडी और डीएवीपी के खजाने से विज्ञापन की शक्ल में अधिकतम प्रसार संख्या के आधार पर लाखों की लूट को अंजाम दे रहे हैं। जहां तक इस फर्जीवाडे़ में सूचना विभाग के कुछ कथित भ्रष्ट अधिकारियों और कर्मचारियों के मिले होने का दावा है तो कुछ उदहारणों से इसकी पुष्टि भी स्वयं हो जाती है।
13 जनवरी 2014 को पत्रांक संख्या 566/जि.सू.का./सूचीबद्धता/2013-2014 के माध्यम से जिला सूचना कार्यालय के सहायक निदेशक सूचना ने सूचना विभाग के निदेशक को एक दैनिक समाचार-पत्र ‘सूचना संसार’ के बाबत आख्या भेजी। उस पत्र में साफ लिखा हुआ था कि उक्त अखबार समस्त नियमावलियों को पूर्ण करता है। साथ ही लखनऊ जनपद में उक्त समाचार-पत्र की प्रसार संख्या 9000 पर संस्तुति भी जतायी। यही अखबार लखीमपुर-खीरी में अपनी प्रसार संख्या 6500 प्रतिदिन दर्शा रहा है। इतना ही नहंी उन्नाव में इसी अखबार की प्रसार संख्या 6000 प्रतिदिन दर्शायी जा रही है। रायबरेली में यही अखबार अपनी प्रसार संख्या 5200 दर्शा रहा है।
जिलों से प्रकाशित होने वाले अखबार भी इसी राह पर
महत्वपूर्ण यह है कि रायबरेली, उन्नाव, सीतापुर, लखीमपुर और लखनऊ के जिला सूचना अधिकारियों ने भी इस अखबार की प्रसार संख्या पर अपनी सहमति जता दी। जो अखबार कहीं नजर न आता हो उस अखबार की प्रसार संख्या को सूचना विभाग के जिम्मेदार अधिकारियों ने कैसे प्रमाणित कर दिया ? यह जांच का विषय हो सकता है। भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जिस अखबार की प्रसार संख्या जिला सूचना अधिकारी लखनऊ में 9 हजार बता रहे हैं उसी अखबार की प्रसार संख्या विभाग की कम्प्यूटर शाखा में 68 हजार 800 दर्ज है। परिणामस्वरूप इसी आधार पर इस अखबार ने महज 18 महीनों के दौरान सूबे के खजाने से 19 लाख 17 हजार 827 रूपए विज्ञापन की शक्ल में लूट लिए।
बताया जाता है कि विभाग के ही एक अधिकारी ने इस लूटकांड का पर्दाफाश किया था। साथ ही एक शिकायती पत्र प्रमुख सचिव सूचना को भी भेजा था। जानकारी के मुताबिक फर्जी प्रसार संख्या दर्शाने वाले अखबार कर्मी के खिलाफ तो कुछ नहीं हुआ अपितु उक्त अधिकारी को जरूर अपने अधिकारियों की फटकार से रूबरू होना पड़ा। ठीक इसी तरह से एक अन्य दैनिक अखबार ‘सांई लहर’ के मामले ने भी सूचना विभाग के अधिकारियों की मिली-भगत को उजागर किया है। यह अखबार भले ही कहीं नजर न आता हो लेकिन सूचना विभाग के रजिस्टर और कम्प्यूटर में यह अखबार लगभग आधा दर्जन जनपदों से प्रकाशित होता है। रायबरेली से इस अखबार ने अपनी प्रसार संख्या 5150 दर्शा रखी है जबकि लखीमपुर-खीरी में इसकी प्रसार संख्या 6500 दर्शायी जा रही है। सीतापुर में यह अखबार 6000 प्रतियां रोजाना बेचने का दावा कर रहा है जबकि उन्नाव में इसकी प्रसार संख्या 6000 दर्शायी गयी है।
हरदोई से भी यह अखबार प्रतिदिन 6000 प्रतियां प्रसारित करने का दावा करता है। सूचना एवं जनसम्पर्क निदेशालय के जिम्मेदार अधिकारियों ने भी उसके इस फर्जी दावे पर अपनी मुहर लगा रखी है। इस अखबार का मामला भी लगभग उसी अखबार के समान है। जिस अखबार की प्रसार संख्या विभिन्न जनपदों से अधिकतम 6 हजार 500 दिखायी जा रही है उसी अखबार की प्रसार संख्या विभाग के कम्प्यूटर में 65 हजार 800 दर्ज है। इस अखबार की प्रसार संख्या उर्दू भाषा अखबार के रूप में दर्शायी गयी है। इस अखबार के स्वामी, मुद्रक और प्रकाशक सुभाष चन्द्र यादव हैं। श्री यादव को भले ही उर्दू भाषा का ठीक तरह से ज्ञान न हो लेकिन राजधानी लखनऊ सहित आधा दर्जन जनपदों से प्रसारित करने का दावा करने वाले इस अखबार को विभागीय अधिकारियों ने विज्ञापन के लिए सूचीबद्ध कर रखा है।
इसी प्रसार संख्या के आधार पर इस अखबार ने विगत 18 माह के दौरान 30 लाख 81 हजार से भी ज्यादा की धनराशि विज्ञापन की शक्ल में हासिल कर राजकीय कोष को नुकसान पहुंचाया है। ये दो अखबार तो महज उदाहरण मात्र हैं जबकि सूचना विभाग, उत्तर-प्रदेश, लखनऊ के कम्प्यूटर में हजारों की संख्या में ऐसे अखबार सूचीबद्ध हैं जिनकी प्रसार संख्या न के बराबर है। इधर सूचना विभाग के ‘कम्प्यूटर शाखा’ में तैनात कर्मचारी स्वयं को निर्दोष बताते हुए कहते हैं कि डी.ए.वी.पी. से जो लिस्ट उनके पास आती है उसी के आधार पर वे अखबारों की प्रसार संख्या अंकित कर देते हैं। यदि इस आधार पर देखा जाए तो कम्प्यूटर शाखा के कर्मचारियों की इसमें कोई गलती नहीं है लेकिन विभाग के दूसरे उच्चाधिकारियों ने मामले को संज्ञान में क्यों नहीं लिया ? इस पर संदेह जरूर किया जा सकता है।
जिलों के कई अखबारों का सर्कुलेशन बड़े अखबारों के समकक्ष
जनपद अम्बेडकर नगर से अपना प्रकाशन स्थल दर्शाने वाले हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र ‘मौर्य सम्राट’ ने अपनी प्रसार संख्या प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों दैनिक जागरण, अमर उजाला जैसे अखबारों के समकक्ष 66 हजार से भी ज्यादा दर्शा रखी है। इसी आधार पर इस अखबार ने सूचना विभाग से लगभग दो लाख का विज्ञापन झटका है। ‘सप्तरत्न’ समाचार-पत्र का नाम भले ही किसी न सुना हो लेकिन सूचना विभाग की कम्प्यूटर शाखा मे इस अखबार ने अपनी प्रसार संख्या 65 हजार से भी ज्यादा दर्शा रखी है। अम्बेडकर नगर से प्रकाशन स्थल दर्शाने वाले इस अखबार ने इसी प्रसार संख्या के आधार पर सूचना एवं जन सम्पर्क निदेशालय से 10 लाख से भी ज्यादा का विज्ञापन महज 18 माह के दौरान ही झटक लिया।
अलीगढ़ से प्रकाशित हिन्दी दैनिक ‘प्रकाश’ नामक समाचार-पत्र सूचना विभाग की विज्ञापन शाखा मे विज्ञापन के लिए सूचीबद्ध है। इस अखबार ने अपनी प्रसार संख्या लगभग 52 हजार के आधार पर दो लाख रूपए विज्ञापन की शक्ल में सरकारी खजाने से लूटे हैं। इसी जनपद से प्रकाशित हिन्दी समाचार-पत्र ‘प्रावदा’, उर्दू समाचार-पत्र ‘मशाल-ए-आजादी’, हिन्दी समाचार-पत्र ‘राजपथ’ ने अपनी प्रसार संख्या 50 हजार से लेकर 65 हजार तक दर्शा रखी है। इसी प्रसार संख्या के आधार पर इन अखबारों ने विज्ञापन की शक्ल में लगभग 18 लाख रूपयों का चूना सरकार को लगाया है।
करीब 14 चौदह लाख की आबादी वाले शहर में 15 लाख से भी ज्यादा अखबार की प्रसार संख्या है। यहां बात हो रही है आगरा जनपद की। इस शहर में सर्वाधिक प्रसार संख्या दर्शाने वाले अखबारों की पंक्ति में हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र हिन्दुस्तान, अमर उजाला, आज, दैनिक जागरण, डी.एल.ए., सच का उजाला और सवेरा आदि अखबार हैं। इन्हीं चुनिन्दा अखबारों की आगरा जनपद में प्रसार संख्या 6 लाख 57 हजार से ज्यादा है। यदि आगरा जनपद की पूरी आबादी को एक परिवार में पांच सदस्यों से विभाजित कर दिया जाए तो लगभग चार लाख परिवार हैं। यदि कुछ अति विशिष्ट लोगों को छोड़ दिया जा जाए तो अमूमन एक परिवार में एक ही अखबार आता है। साथ ही यह भी मान मान लिया जाए कि सभी परिवारों में अखबार आते हैं तो इस लिहाज से इस जनपद में मात्र पांच लाख से ज्यादा अखबारों की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। ये आवश्यकता कुछ चुनिन्दा अखबार ही पूरा करने मे सक्षम हैं। इन परिस्थितियों में दस लाख से भी ज्यादा अखबार कहां खप रहे हैं? यह जांच का विषय हो सकता है।
बंद हो चुके अखबार भी पा रहे विज्ञापन
चौंकाने वाला पहलू यह है कि हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र (डी.एल.ए.) का प्रकाशन बंद हुए काफी समय बीत चुका है इसके बावजूद सूचना विभाग की कम्प्यूटर शाखा में इस अखबार की प्रसार संख्या 1 लाख 51 हजार 790 दर्शायी जा रही है। इसी फर्जी प्रसार संख्या के आधार पर इस अखबार ने यूपी के सरकारी खजाने से 1 अप्रैल 2013 से 30 सितम्बर 2014 के बीच 30 लाख से भी ज्यादा की धनराशि विज्ञापन की शक्ल में लूट ली है। इसके अतिरिक्त हिन्दी समाचार-पत्र ‘अकिंचन भारत’ का नाम भले ही कोई न जानता हो लेकिन सूचना विभाग के कम्प्यूटर शाखा में इस अखबार की प्रसार संख्या 65 हजार 535 दर्ज है। इसी प्रसार संख्या के आधार पर इस अखबार ने 2 लाख 74 हजार से भी ज्यादा का विज्ञापन यूपी सरकार से लूटा है। हिन्दी समाचार-पत्र ‘अग्र भारत’ ने अपनी प्रसार संख्या 58 हजार 481 के आधार पर 2 लाख से ज्यादा का विज्ञापन यूपी सरकार से लिया है।
हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र ‘अमर उजाला’ आगरा जनपद में अपनी प्रसार संख्या 1 लाख 51 हजार से भी ज्यादा दर्शा कर सूबे के खजाने से महज 18 माह के दौरान लगभग 80 लाख रूपए विज्ञापन की शक्ल में लूट चुका है। दैनिक जागरण ने इस दौरान 1 लाख 19 हजार 595 की प्रसार संख्या पर लगभग 30 लाख रूपयों का विज्ञापन हासिल किया है। आगरा से ही प्रकाशित एक अन्य हिन्दी समाचार-पत्र ‘दाता संदेश’ ने लगभग 83 हजार के फर्जी प्रसार संख्या के आधार पर यूपी के सरकारी खजाने से 18 लाख से भी ज्यादा की धनराशि लूट ली है। आगरा से ही प्रकाशन का दावा करने वाले हिन्दी दैनिक नवलोक टाइम्स और नवलोक टाइम्स को भले ही आगरा की जनता नहीं जानती है लेकिन सूचना विभाग में इन दोनों अखबार की प्रसार संख्या तकरीबन 50 हजार है। इसी आधार पर इस अखबार ने भी यूपी सरकार से लाखों के विज्ञापन बटोरे हैं।
हिन्दी समाचार-पत्र ‘सच का उजाला’ की प्रसार संख्या 56 हजार 940 है। इसी आधार पर इस अखबार ने लगभग 3 लाख का विज्ञापन लेकर यूपी सरकार के खजाने को चोट पहुंचायी है। यह बात सूचना विभाग का जिला कार्यालय भी भली-भांति जानता है। इसके बावजूद उसकी खामोशी रहस्यमयी बनी हुई है। इस लिहाज से देखा जाए तो प्रतिष्ठित अखबार भी अपनी प्रसार संख्या गलत दर्शा कर सरकारी खजाने को लूटने में व्यस्त हैं। इन अखबारों के अतिरिक्त हिन्दी समाचार पत्र ‘अकिंचन भारत’ ने आगरा में अपनी प्रसार संख्या 65 हजार से भी ज्यादा दर्शा रखी है। इसी प्रसार संख्या के आधार पर इस अखबार ने विज्ञापन की शक्ल में 2 लाख 74 हजार से भी ज्यादा की रकम पर कथित डाका डाला है।
उर्दू के अखबार भी नहीं हैं पीछे
आजमगढ़ जनपद के लगभग एक दर्जन अखबारों ने यूपी सरकार से विज्ञापन हासिल करने की गरज से सूचना विभाग के सूचीबद्ध रजिस्टर में अपने अखबारों के नाम दर्ज करा रखे हैं। इनमें से 4 अखबार उर्दू के हैं जबकि 7 अखबार हिन्दी के। सिर्फ उर्दू के अखबारों की प्रसार संख्या 1 लाख 20 हजार के करीब है जबकि हिन्दी के अखबारों की प्रसार संख्या लगभग 3 लाख के आस-पास है। इन अखबारों के नाम भले ही इलाकाई निवासियों ने कभी न सुने हों लेकिन 60 हजार से लेकर 75 हजार तक की प्रसार संख्या दर्शाने वाले इन अखबार कर्मियों ने सरकारी खजाने से लगभग 35 लाख के विज्ञापन हासिल कर लिए। गौरतलब है कि इस जनपद में राष्ट्रीय समाचार-पत्रों ‘दैनिक जागरण, अमर उजाला, राष्ट्रीय सहारा, नवभारत टाइम्स, और हिन्दुस्तान जैसे अखबारों की प्रसार संख्या अलग से है। यदि उक्त प्रतिष्ठित अखबार ही आजमगढ़ की आबादी के काफी हैं तो उन अखबारों को सूचना विभाग ने फर्जी प्रसार संख्या के आधार पर कैसे सूचीबद्ध कर रखा है। इतना ही नहीं इन अखबारों ने विज्ञापन की शक्ल में लाखों रूपयों की चोट भी सरकारी खजाने को पहुंचायी है।
समाजवादियों के गढ़ इटावा से भी 10 अखबार सूचना विभाग में सूचीबद्ध हैं। इन अखबारों में ‘आज का विचार राष्ट्रीय विचार, उदगार, जमीनी आवाज, दिग्गवार्ता, दिन-रात, देश धर्म, दैनिक आज का विचार राष्ट्रीय विचार, पैगामें अजीज, माधव संदेश का नाम भले ही इटावा की जनता ने कभी न सुने हों लेकिन इन अखबारों की प्रसार संख्या लाखों में है। इटावा से सर्वाधिक प्रसार संख्या दर्शाने वाला अखबार है हिन्दी दैनिक ‘सवेरा’ है। इस अखबार ने फर्जी प्रसार संख्या के आधार पर सरकार खजाने से विज्ञापन की शक्ल में 27 लाख से भी ज्यादा की लूट की है। इसके अतिरिक्त दूसरे अन्य अखबारों ने भी महज 18 महीनों के दौरान विज्ञापन की शक्ल में लाखों रूपए सरकारी खजाने से लूटे हैं।
यूपी की राजधानी लखनऊ से अपना प्रकाशन स्थल दर्शाने वाले सूचीबद्ध अखबारों की संख्या 293 है। इन अखबारों ने महज महज 18 महीनों के दौरान विज्ञापन की शक्ल में करोड़ों रूपयों की सेंध यूपी सरकार के खजाने में लगायी है। कुछ बड़े दैनिक अखबारों को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर मोटी रकम डकारने वाले वे अखबार हैं जिनकी प्रसार संख्या सूचना विभाग के कम्प्यूटर में तो 50 हजार से लेकर 75 हजार तक है लेकिन ऐसे अखबार नजर कहीं नहीं आते। एक स्कूल का संचालन करने वालों ने ‘अपना अखबार’ शीर्षक से अखबार की शुरूआत तो जोर-शोर से की थी लेकिन वर्तमान में उसकी स्थिति न के बराबर है। इसके बावजूद सूचना विभाग के रजिस्टर में इस अखबार की प्रसार संख्या 66 हजार 195 दर्ज है। फर्जी प्रसार संख्या के आधार पर सूचना विभाग से इस अखबार को मात्र डेढ़ वर्षों के दौरान विज्ञापन की शक्ल में लगभग 9 लाख 70 हजार रूपए दे दिए।
हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र ‘अवध द्वार समाचार’ का नाम भले ही किसी ने न सुना हो लेकिन इस अखबार की प्रसार संख्या सूचना विभाग के कम्प्यूटर में 55 हजार है। विज्ञापन के मद में इस अखबार को डेढ़ लाख से भी ज्यादा का विज्ञापन मिल चुका है। उर्दू दैनिक समाचार-पत्र ‘अवध की पुकार’ की प्रसार संख्या 55 हजार से भी ज्यादा है। यह अखबार लखनऊ के किस कोने से निकलता है ? इसकी जानकारी शायद ही किसी को होगी, लेकिन इसकी प्रसार संख्या के आधार पर यूपी के खजाने से विज्ञापन की शक्ल में 9 लाख 21 हजार से भी ज्यादा का रकम निकल गयी। उर्दू का ही एक अन्य अखबार ‘अवधनामा’ अपनी प्रसार संख्या 75 हजार दर्शा रहा है। इस अखबार को सूचना विभाग ने विज्ञापन की शक्ल में लगभग 35 लाख के विज्ञापन दे दिए।
‘अवधनामा’ ने हिन्दी दैनिक के रूप में भी अपनी प्रसार संख्या 65 हजार सूचना विभाग के कम्प्यूटर में दर्ज करा रखी है। इसी आधार पर राज्य सरकार ने इस शीर्षक के नाम से लगभग 14 लाख रूपए विज्ञापन की शक्ल में लुटा दिए। उर्दू के एक अन्य अखबार अहवाल-ए-वतन की प्रसार संख्या सूचना विभाग के कम्प्यूटर में 51 हजार 850 दर्ज है और इस अखबार को विज्ञापन प्रकाशित करने की एवज में सरकारी खजाने से 24 लाख 50 हजार से भी ज्यादा की रकम महज डेढ़ वर्ष के दौरान दी जा चुकी है। राजधानी लखनऊ से प्रकाशित प्रतिष्ठित अखबार दैनिक जागरण का एक अन्य संस्करण ‘आई नेक्स्ट’ हिन्दी और अंग्रेजी का प्रकाशन काफी समय पहले बंद हो चुका है लेकिन सूचना विभाग की कम्प्यूटर शाखा में 1 अप्रैल 2013 से 30 सितम्बर 2014 के बीच इस अखबार की प्रसार संख्या 32032 दर्शा रखी है। इसी आधार पर इस अखबार को बिना प्रकाशन के ही लगभग 90 हजार रूपए विज्ञापन की शक्ल में सरकारी खजाने से दे दिए गए।
उर्दू का एक अन्य अखबार ‘आग’ अपनी प्रसार संख्या 73 हजार से भी ज्यादा दर्शा रहा है। इसी प्रसार संख्या के आधार पर सूचना विभाग ने इसे 36 लाख से भी ज्यादा का विज्ञापन दे दिया है। जबकि जानकार सूत्रों का मानना है कि इस अखबार का उर्दू संस्करण मात्र 5 हजार प्रतियां ही छापता है। इसमें से भी हजारों की संख्या में प्रतियों की वापसी हो जाती है। सूचना विभाग में हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र ‘आज’ की प्रसार संख्या 59325 दर्ज है जबकि पूरा मीडिया जगत यह बात अच्छी तरह से जानता है कि दैनिक ‘आज’ की आर्थिक हालत पिछले डेढ़ दशक से खस्ताहाल है। कर्मचारियों को समय से वेतन न मिलने की समस्या के साथ ही अल्प वेतन में किसी तरह से गुजारा करना पड़ रहा है। ज्यादातर अनुभवी पत्रकार इस संस्थान को छोड़कर जा चुके हैं। इसके बावजूद फर्जी प्रसार संख्या के आधार पर इस अखबार को विगत डेढ़ वर्षों के दौरान 36 लाख 35 हजार से ज्यादा के विज्ञापन सूचना एवं जनसम्पर्क निदेशालय की अकर्मण्यता के चलते सूबे की सरकार से दिलाए जा चुके हैं।
राजधानी लखनऊ से अपना प्रकाशन स्थल दर्शाने वाले उर्दू दैनिक अखबार ‘इन दिनों’ ने अपनी प्रसार संख्या 75 हजार प्रतिदिन दर्शा रखी है। इसी आधार पर सूचना विभाग ने इस अखबार को सरकारी खजाने से 38 लाख 63 हजार से भी ज्यादा का विज्ञापन दे रखा है और वह भी महज डेढ़ वर्षों के दौरान। हिन्दी दैनिक ‘इंकलाबी नजर’ 58 हजार से भी अधिक की प्रसार संख्या दिखाकर लगभग 12 लाख के विज्ञापन सूचना विभाग से झटक चुका है। सूचना विभाग के अधिकारी भी मानते हैं कि इस अखबार की प्रसार संख्या हजार भी नहीं होगी लेकिन कार्रवाई न किए जाने के बाबत पूछे जाने पर वे चुप्पी साध जाते हैं।
हिन्दी समाचार-पत्र ‘उत्तर-प्रदेश सहकारी रोशनी’ ने भी 45 हजार की प्रसार संख्या दर्शाकर लगभग 20 लाख के विज्ञापन 18 माह के दौरान हासिल किए हैं। यह अखबार कहां-कहां बिकता है ? इसकी जानकारी सूचना विभाग के उस विभाग (निरीक्षा शाखा) के पास भी नहीं है जिसे अखबारों पर नजर रखने का दायित्व सौंपा गया था। मौखिक रूप से भले ही इस विभाग के अधिकारी सच्चाई बयां करते हों लेकिन लिखित रूप में इस विभाग ने उक्त अखबार के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। सूचना विभाग की कम्प्यूटर शाखा में दर्ज उर्दू दैनिक समाचार-पत्र ‘उर्दू की तहरीर’ राजधानी लखनऊ में अपनी प्रसार संख्या 58 हजार 555 दर्शा रहा है वास्तविकता में इसकी प्रसार संख्या 500 का आंकड़ा भी पार नहीं करती।
ऐसा कहा जाता है कि मुसलमानों की सर्वाधिक आबादी पुराने लखनऊ में बसती है। इस संवाददाता ने जब इन इलाकों के कुछ लोगों से अखबार के बारे में जानकारी ली तो किसी ने भी इस अखबार के बारे में नहीं सुना था। इन परिस्थितियों में इस अखबार ने हजार-दो हजार नहीं बल्कि 58 हजार से भी ज्यादा की प्रसार संख्या सूचना विभाग में दर्ज करवा रखी है। इसी आधार सूचना विभाग ने इस अखबार को लगभग 18 लाख रूपयों के विज्ञापन जारी कर दिए। एक अन्य उर्दू दैनिक ‘एक दाम’ ने तो कई प्रतिष्ठित दैनिक अखबारों को भी पीछे छोड़ते हुए अपनी प्रसार संख्या सूचना विभाग की कम्प्यूटर शाखा में 71 हजार 146 दर्ज करवा रखी है। इस अखबार का नाम आम जनता तो दूर की बात विभाग से जुडे़ अधिकारी तक नहीं जानते फिर भी इतनी अधिक प्रसार संख्या वाले अखबार को डेढ़ वर्षों के दौरान 20 लाख से भी ज्यादा की धनराशि विज्ञापन की शक्ल में सरकारी खजाने से लुटा दी गयी।
हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र ‘कलपतरू एक्सप्रेस’ ने अपनी प्रसार संख्या 65 हजार 918 दर्शा रखी है। इसी आधार पर इस अखबार ने डेढ़ वर्षों के अंतराल में सरकारी खजाने से विज्ञापन की शक्ल में लगभग दस लाख रूपए लूट लिए। उर्दू दैनिक समाचार-पत्र ‘कौमी खबरें’ फर्जी प्रसार संख्या 65 हजार 522 के आधार पर 9 लाख से भी ज्यादा के विज्ञापन बटोर चुका है। राजधानी लखनऊ से प्रकाशन का दावा करने वाले उर्दू दैनिक समाचार-पत्र ‘कौम-ए-वतन, कौमी ऐलान, कौमी जबान, कौमी तंजीम, कौमी बयान, कौमी मुकाम, कौमी रफ्तार, कौमी समाचार, कौमी हमसफर और कौमी हालात के नाम भले ही लखनऊ और आस-पास के लोगों ने न सुने हों लेकिन इन अखबारों ने फर्जी प्रपत्रों के सहारे सूचना विभाग में अपनी प्रसार संख्या लाखों में दर्शा रखी है।
इसी प्रसार संख्या के आधार पर इन अखबारों को डेढ़ वर्ष के दौरान लगभग 55 लाख के विज्ञापन जारी करने का रिकार्ड सूचना विभाग में दर्ज है। हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र के रूप में पंजीकृत ‘क्रिएटिव दर्पण’ अपनी प्रसार संख्या 55 हजार 800 के आधार पर लगभग 30 लाख के विज्ञापन सूचना विभाग से झटक चुका है। हिन्दी समाचार-पत्र ‘खुशबू-ए-हिन्द’ की खुशबू से भले ही कोई परिचित न हो लेकिन सूचना विभाग के रजिस्टर में दर्ज इसकी प्रसार संख्या बताती है कि यह अखबार घर-घर में नजर आता होगा।
चौंकाने वाला पहलू यह है कि सूचना विभाग की निरीक्षा शाखा के अलावा विभाग का कोई अन्य अधिकारी अथवा कर्मचारी ऐसे अखबार का नाम तक नहीं जानता। इसके बावजूद सूचना विभाग की कम्प्यूटर शाखा में इसकी प्रसार संख्या 55 हजार 500 दर्ज है। इसी प्रसार संख्या के आधार पर इस अखबार ने विज्ञापन की शक्ल में सरकारी खजाने से लगभग 25 लाख के विज्ञापन महज 18 माह के दौरान ही झटक लिए। सूचना विभाग के कर्मचारी भी अब यह कहने लगे हैं कि यदि विभाग की नाकामी और आला अधिकारियों के दबाव के चलते इसी तरह से सरकारी खजाने को लुटाया जाता रहा तो वह दिन अब दूर नहीं जब पत्रकारिता की दुकाने चौक-चौराहों पर भी नजर आने लगेंगी।
हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र ‘चेतना विचारधारा’ अपने कथित फर्जी सर्कुलेशन 69 हजार 185 के आधार पर 4 लाख 77 हजार से भी ज्यादा के विज्ञापन सूचना विभाग से झटक चुका है। जहां तक इस अखबार की वास्तविक प्रसार संख्या की बात है तो इस अखबार की प्रतियां दर्शायी गयी प्रतियों से काफी कम हैं। उर्दू दैनिक समाचार-पत्र जदीद, आवाज-ए-मरकज और जदीद हुजूम की प्रसार सूचना विभाग की कम्प्यूटर शाखा में क्रमशः 58150 और 25450 दर्ज है जबकि यह अखबार न तो स्टॉलों पर नजर आता है और न ही किसी के घरों में। यहां तक कि जिस स्थान से यह अखबार अपने प्रकाशन का दावा करता है वहीं के स्थानीय निवासी इस अखबार के बारे में नहीं जानते। इन परिस्थितियों में इस अखबार की प्रसार संख्या को सूचना विभाग कैसे स्वीकार कर रहा है ? यह जांच का विषय हो सकता है। अपने इसी कथित फर्जी प्रसार संख्या के आधार पर दोनों अखबारों ने क्रमशः 5 लाख 71 हजार 770 रूपए और 11 लाख 34 हजार 570 रूपए महज डेढ़ वर्षों के दौरान विज्ञापन के रूप हासिल कर लिए।
उर्दू समाचार-पत्र ‘जायजा डेली’ का नाम भले ही किसी ने न सुना हो लेकिन इस अखबार की प्रसार संख्या सूचना विभाग के कम्प्यूटर में 65 हजार से भी ज्यादा है। इसी आधार पर इस अखबार ने सरकारी खजाने से विज्ञापन की शक्ल में 24 लाख से भी ज्यादा के विज्ञापन झटक लिए। हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र ‘तरूण मित्र’ की प्रतियां भले ही कहीं नजर न आती हों लेकिन इसकी प्रसार संख्या 70 हजार 308 दर्शायी जा रही है। इसी आधार पर इस अखबार ने 15 लाख से भी ज्यादा के विज्ञापन लेकर सरकारी खजाने को लूटने मे कोई कसर नहीं छोड़ी है। हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र ‘देश की आन’ अपनी प्रसार संख्या 66 हजार 175 बता रहा है जबकि इस अखबार की प्रतियां शायद ही किसी ने देखी होंगी। इसी आधार पर यह अखबार न सिर्फ सूचना विभाग की सूची में दर्ज है बल्कि अपनी कथित फर्जी प्रसार संख्या के आधार पर इस अखबार ने 18 महीनों के अंतराल में लगभग 5 पांच लाख के विज्ञापन हासिल कर न सिर्फ सरकारी खजाने को नुकसान पहुंचाया है बल्कि फर्जी हलफनामा लगाकर धोखाधड़ी भी की है।
हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र ‘निष्पक्ष समाचार ज्योति’ महज फाईल कॉपी तक ही सीमित है इसके बावजूद इस अखबार ने अपनी प्रसार संख्या 73 हजार 760 दर्शा रखी है। इसी आधार पर इस अखबार को 22 लाख से भी ज्यादा के विज्ञापन महज डेढ़ वर्ष के दौरान यूपी सरकार की ओर से मिले हैं। उर्दू समाचार-पत्र ‘माता-ए-अखिरत और ‘मदर’ नाम का समाचार-पत्र अपनी प्रसार संख्या क्रमशः 65 हजार 722 और 73 हजार 688 दर्शा रहा है। यह अखबार कहां से प्रकाशित होता है ? इसकी जानकारी तक स्थानीय निवासियों को नहीं है इसके बावजूद इस अखबार ने अपनी प्रसार संख्या कुछ प्रतिष्ठित अखबारों से भी ज्यादा दर्शा रखी है। इसी आधार पर इस अखबार ने महज 18 माह में 17 लाख 21 हजार 663 और 5 लाख 88 हजार 827 के विज्ञापन हासिल कर लिए हैं। उर्दू अखबार ‘महाज-ए-जंग’ ने अपनी प्रसार संख्या 45 हजार के आधार पर 12 लाख से भी ज्यादा के विज्ञापन हासिल किए हैं।
हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र ‘राष्ट्रीय स्वरूप’ भी सूचना विभाग की सूची में शामिल है। यह अखबार अब भले ही कहीं-कहीं नजर आता हो लेकिन इसकी प्रसार संख्या सूचना विभाग की कम्प्यूटर शाखा में 61 हजार से भी ज्यादा दर्ज है। इसी आधार पर इस अखबार ने महज डेढ़ वर्ष के दौरान 19 लाख से भी ज्यादा के विज्ञापन हासिल कर सूबे के सरकारी खजाने का लूटने में अहम भूमिका निभायी है। आलमबाग सुजानपुरा से अपना प्रकाशन स्थल दर्शाने वाले समाचार-पत्र ‘लोहिया क्रांति’ ने विज्ञापन दर अधिक हासिल करने की गरज से अपनी प्रसार सूचना विभाग की संख्या कम्प्यूटर शाखा में 64 हजार से भी ज्यादा दर्शा रखी है। इसी आधार पर इस अखबार ने यूपी सरकार के खजाने से 29 लाख से भी ज्यादा के विज्ञापन हासिल कर लिए हैं। सूचना विभाग में यह अखबार अपना प्रकाशन स्थल लखनऊ के साथ-साथ उन्नाव, आजमगढ़, सुल्तानपुर और रायबरेली में भी दर्शाता है जबकि उपरोक्त स्थानों में कहीं भी इस अखबार की प्रसार संख्या अपने निर्धारित संख्या के आधार पर नजर नहीं आती। यह अखबार उर्दू में भी अपना संस्करण निकालने का दावा करता है।
हिन्दी समाचार-पत्र ‘सत्य समाचार बुलेटिन’ की प्रसार संख्या 52 हजार से भी ज्यादा अंकित है। इसी आधार पर इस अखबार के नाम से 19 लाख से भी ज्यादा के विज्ञापन महज डेढ़ वर्ष के अंतराल में जारी हो चुके हैं। हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र ‘समाज सूचना’ का हाल भी कमोबेश कुछ ऐसा ही है। सूचना विभाग के कम्प्यूटर में इस अखबार की प्रसार संख्या 55 हजार से भी ज्यादा है। इसी आधार पर सूचना विभाग का रिकार्ड यह बता रहा है कि इस अखबार को पिछले डेढ़ वर्षों के दौरान 9 लाख से भी ज्यादा के विज्ञापन जारी किए जा चुके हैं। ‘सरदार टाइम्स’ नामक समाचार-पत्र उर्दू और मराठी भाषा में अपने चार संस्करण निकालने का दावा करता है। यह समाचार-पत्र लखनउ के साथ-साथ आजमगढ़ और महाराष्ट्र से भी अपने प्रकाशन का दावा करता है। इस अखबार का नाम भले ही लखनउ की जनता ने न सुना हो लेकिन इसकी प्रसार संख्या सूचना विभाग में 68 हजार से भी ज्यादा है। इसी आधार पर इस अखबार को विगत 18 माह के दौरान 4 लाख से भी ज्यादा के विज्ञापन दिए जा चुके हैं।
‘सांध्य हलचल’ समाचार-पत्र भले ही कभी-कभार छपता हो लेकिन सूचना विभाग में इसकी प्रसार संख्या 56 हजार से भी ज्यादा दर्ज है। इसी आधार पर सूचना विभाग ने इस समाचार पत्र को डेढ़ वर्षों के दौरान 20 लाख से भी ज्यादा के विज्ञापन जारी किए हैं। ‘हुसैनी टाइम्स’ ने सूचना विभाग की सूची में अपने अखबार को उर्दू में दर्ज करवा रखा है जबकि यह अखबार लखनऊ से हिन्दी में भी प्रकाशन का दावा करता है। यह अखबार लखनऊ के साथ-साथ शाहजहांपुर से भी अपना प्रकाशन स्थल दर्शा रहा है। सूचना विभाग में इस अखबार ने अपनी प्रसार संख्या 50934 दर्शा रखी है। इसी आधार पर इस अखबार ने महज 18 माह के दौरान पौने दो लाख के विज्ञापन हासिल किए हैं।
उपरोक्त अखबार तो महज बानगी भर हैं जबकि सूचना विभाग से प्राप्त पुख्ता जानकारी के आधार पर 1 हजार 03 अखबार सूचना एवं जनसम्पर्क निदेशालय, लखनऊ, उत्तर-प्रदेश में सूचीबद्ध हैं। इन अखबारों में से अधिकतर अखबारों ने फर्जी दस्तावेजों के सहारे महज डेढ़ वर्षों के अंतराल में 125 करोड़ से भी ज्यादा के विज्ञापन हासिल कर सूबे के सरकारी खजाने को नुकसान पहुंचाया है। जानकार सूत्रों की मानें तो कई अखबार तो ऐसे हैं जो काफी समय पहले ही बंद हो चुके हैं इसके बावजूद उन्हें विज्ञापन दिया जा रहा है। प्रश्न यह उठता है कि यदि बंद हो चुके अखबारों को विज्ञापन जारी किया जा रहा है तो उसका पैसा किसके खाते में जा रहा है ? विभाग के ही एक अधिकारी का दावा है कि बंद हो चुके अखबारों की जानकारी विभाग के जिम्मेदार कर्मचारियों को भी है। इसके बावजूद ऐसे अखबारों को कमीशन की खातिर विज्ञापन लगातार जारी किए जा रहे हैं।
फिलहाल हाल ही में हाई कोर्ट ने ऐसे अखबारों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की नीयत से एक याचिका पर सुनवाई करते हुए जिम्मेदार विभागों से समस्त जानकारी मांगी है। कहा जा रहा है कि यदि हाई कोर्ट ने इस मामले को गंभीरता से लिया तो निश्चित तौर पर फर्जी हलफनामों के सहारे विज्ञापन की शक्ल में सूबे के सरकारी खजाने को लूटने वाले तो गिरफ्त में आयेंगे ही साथ ही जिम्मेदार अधिकारियों को भी जेल जाने से नहीं रोका जा सकता। यहां तक कि 80 प्रतिशत से ज्यादा उन अखबार मालिकों को अपनी दुकानेें बंद कर दूसरा धंधा करना पड़ सकता है जिन्होंने लोकतंत्र के कथित चतुर्थ स्तम्भ को अवैध कमाई का साधन बना रखा है।
विभागाध्यक्ष भी हैं जिम्मेदार!
इस पूरे फर्जीवाडे़ के लिए प्रमुख सचिव सूचना को भी उनकी जिम्मेदारी से अलग नहीं किया जा सकता। विभागाध्यक्ष होने के नाते प्रमुख सचिव की नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने विभाग की गलती से सरकारी खजाने को लुटने से बचाए। फिर क्यों प्रमुख सचिव ने इस मामले में चुप्पी साध रखी है? यह जांच का विषय हो सकता है। विभागीय अधिकारियों की मानें तो इस मामले की यदि सीबीआई जांच करवा ली जाए तो यूपी सरकार के खजाने से अरबों की लूट के मामले का पर्दाफाश हो सकता है। गौरतलब है कि अभी हाल ही में हाई कोर्ट ने भी फर्जी प्रसार संख्या के आधार पर सरकारी खजाना लूटने वालों के बाबत सम्बन्धित विभाग से जानकारी मांगी है लेकिन विभाग अभी तक पूरी जानकारी न्यायपालिका को उपलब्ध नहीं करा सका है। आखिर क्यों सरकारी खजाने को लूटने वाले अखबार कर्मियों को बचाया जा रहा है ? इसका जवाब सम्बन्धित विभाग के किसी भी अधिकारी के पास नहीं है।
सरकार की चमचागिरी बनी संजीवनी!
प्रदेश सरकार की चमचागिरी करने वाले अखबार वाले फर्जी प्रसार संख्या के सहारे राजकीय कोष को लूटने वाले अखबार कर्मियों ने सरकार के कोप से बचने का अनोखा रास्ता भी ढूंढ निकाला है। सूबे में जिस किसी की सरकार हो, ये अखबार कर्मी कभी-कभार प्रकाशित होने वाले अपने अखबार में निःशुल्क सरकार की स्तुति वाला विज्ञापन छापकर सम्बन्धित विभाग के अधिकारियों के सहारे मुख्यमंत्री और पार्टी कार्यालय तक पहुंचाने में कोताही नहीं करते। चुनाव के दौरान इस तरह के विज्ञापन ऐसे अखबारों में आसानी से देखने में मिल जाते हैं। इसी आधार पर वे भविष्य में सरकार से विज्ञापन के लिए गुहार भी लगाते रहते हैं। अभी हाल ही में एक संगठन के अगुवाकार को सोशल साइट पर सपा प्रमुख के समक्ष अखबार दिखाकर मदद की गुहार लगाते हुए देखा गया। जिस पर कुछ पत्रकारों ने चुटकी लेेते हुए कहा है कि इन्हीं अखबार कर्मियों की बदौलत पूरा मीडिया जगत बदनाम है। राजनैतिक दल के लोग अब मीडिया को महज बिकाउ समझने लगे हैं। यही वजह है कि अब गंभीर से गंभीर खबरों पर कोई खास ध्यान नहीं दिया जाता। इन पत्रकारों का कहना है कि ऐसे अखबार मालिकों का बहिष्कार तो होना ही चाहिए साथ ही ऐसे संगठनों का भी विरोध होना चाहिए जो महज स्वयंहित के लिए संगठन बनाते हों।
चिराग तले अंधेरा!
युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने यूपी की सत्ता संभालते वक्त दावा किया था कि उनका प्रदेश भ्रष्टाचार मुक्त प्रदेश होगा। शुरूआती दौर में जिस तरह से प्रयास किए गए थे उससे यह लगने लगा था कि कम से कम राजधानी लखनऊ के सरकारी विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सकता है लेकिन विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार ‘रक्तबीज’ की भांति बढ़ता ही गया है। यहां तक कि वह विभाग भी भ्रष्टाचार से अछूता नहीं रह सका है जो स्वयं मुख्यमंत्री के पोर्टफोलियो में है। यहां बात हो रही है सरकार के अति विशिष्ट विभाग सूचना एवं जनसम्पर्क निदेशालय की। गौरतलब है कि यह विभाग सरकार की योजनाओं से लेकर उसके विकास कार्यों के प्रचार-प्रसार का जिम्मा संभालता है। इस विभाग में हजारों की संख्या में तथाकथित फर्जी प्रसार संख्या वाले अखबारों की भरमार है। फर्जी प्रसार संख्या के आधार पर ही अखबारों ने यूपी के सरकारी खजाने से महज डेढ़ वर्ष के दौरान 75 करोड़ 25 लाख से भी ज्यादा के विज्ञापन हासिल कर लिए। कहा तो यही जा रहा है कि विभाग की मिली-भगत के बगैर यह संभव नहीं है। इतनी बड़ी लूट की जानकारी विभाग के आला अधिकारियों से लेकर विभागाध्यक्ष को भी है। इसके बावजूद किसी अधिकारी/कर्मचारी अथवा फर्जी प्रसार संख्या वाले अखबारों के खिलाफ कार्रवाई न करना इस बात की पुष्टि करता है कि सरकारी खजाने पर तथाकथित डाका डालने वालों के साथ विभाग के कर्मचारी और अधिकारी भी शामिल हैं।
यह आर्टकिल लखनऊ से प्रकाशित दृष्टांत मैग्जीन से साभार लेकर Bhadas4journalist.com पर प्रकाशित किया गया है. इसके लेखक तेजतर्रार पत्रकार अनूप गुप्ता हैं जो मीडिया और इससे जुड़े मसलों पर बेबाक लेखन करते रहते हैं. वे लखनऊ में रहकर पिछले काफी समय से पत्रकारिता के भीतर मौजूद भ्रष्टाचार की पोल खोलते आ रहे हैं.