जिन्हें न किताबों में दिलचस्पी है और न ही लेखकों में, वे जेएलएफ में क्या-क्या करने आते हैं?
पुलकित भारद्वाज
बीते शुक्रवार की बात है. ख़बर आई कि ज़ी मीडिया समेत एस्सेल समूह के अध्यक्ष सुभाष चंद्रा ने एक पत्र जारी कर अपनी कंपनी के वित्तीय संकट में घिरने की बात कही है. इस पत्र में उन्होंने अपने कर्जदाताओं से खेद भी जताया. चंद्रा के ख़त ने न सिर्फ एस्सेल समूह बल्कि पूरे बाज़ार में हलचल मचा दी. अलग-अलग तरह के कयास लगाए जाने लगे.
लेकिन जिस जयपुर साहित्य महोत्सव (जेएलएफ) का ज़ी मीडिया सबसे बड़ा स्पॉन्सर है वहां उमड़ रहे लोगों को इस बात से मानो दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं था. पर इसका यह मतलब कतई नहीं कि इस भीड़ ने साहित्य प्रेम की उस आदर्श स्थिति को पा लिया था जो बाज़ार के साए से परे मानी जाती है. असल बात तो यह थी कि इस जमघट के बड़े हिस्से का साहित्य से भी कुछ खास सरोकार नहीं दिख रहा था. शायद यही कारण था कि कई बार सत्र या सेशन में मौजूद कुल श्रोताओं से ज्यादा लोग हमें आयोजन स्थल पर इधर-उधर घूमते-टहलते नज़र आए. लेकिन ऐसा पहली दफ़ा नहीं हुआ था. पिछले कई बार से जेएलएफ में कुछ ऐसा ही नज़ारा देखने को मिलता रहा है.
ऐसे में सवाल उठता है कि जब इस भीड़ को न किताबों में कोई खास दिलचस्पी है और न ही उन्हें लिखने वालों में, तो ये यहां आखिर करने क्या आती है. इस बात का एक जवाब तो हमें इस महोत्सव के आयोजन स्थल, डिग्गी पैलेस होटल में घुसते ही मिला जहां इसके जेएलएफ नहीं बल्कि जेएसएफ यानी जयपुर सेल्फी फेस्टिवल होने का आभास हो रहा था. फेसबुक और वाट्सएप के लिए उचित डीपी की तलाश में निकले इन आगंतुकों में ग्रुप फोटो लेने का भी जबरदस्त क्रेज़ दिखा. ये लोग, जिनमें खासतौर पर युवा शामिल हैं, अपने उन दोस्तों के लिए मुसीबत रहे जो अपने डीएसएलआर से जेएलएफ के अलग-अलग पहलुओं को संजोना चाहते थे.
शौकिया तौर पर ऐसे आयोजनों में फोटोग्राफी करने वाले प्रशांत खीची इस समस्या से इतने आजिज़ आ गए कि उन्होंने आखिरी दिनों में जेएलएफ आना ही छोड़ दिया. पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहे प्रशांत कहते हैं, ‘हर रोज हमारे विभाग का कोई न कोई ग्रुप वहां आ धमकता था. कैमरा न होने पर दोस्त फोन से ही अच्छी तस्वीर लेने के लिए तंग करते. ऐसे में न तो पसंद की तस्वीरें ले पाया और न ही कोई ढंग का सेशन अटेंड हुआ.’
युवाओं की एक बड़ी संख्या जेएलएफ इसलिए भी आती है ताकि वह टीवी पर दिखने वाले कई चेहरों से रूबरू हो सके. बाद में उन्हें इन सत्रों या सेशन्स में नुक्स निकालना भी खूब भाता है. आमतौर पर इस तरह की चर्चाओं से जुड़े वाक्यों की शुरुआत ‘यू नो’ से होती है. जांनिसार अख़्तर और कैफ़ी आज़मी से जुड़े एक सेशन के बाद बीएससी कर रही रेणु का अपने साथियों से कहना था, ‘मजा नहीं आया, जावेद कुछ ज्यादा बताते; तो अच्छा लगता!’ हालांकि पूछने पर वे खुद यह नहीं बता पाई कि- एक घंटे के सेशन में जावेद अख़्तर को ऐसा और क्या बताना चाहिए था जो उन्हें अच्छा लगता. शायद रेणु ने यह बात पत्रकारों के किसी समूह के करीब से गुज़रते हुए सुन ली थी, जिसे उन्होंने जस का तस दोहरा दिया.
ऐसी ही कुछ बातें जेएलएफ-2019 के पहले दिन आयोजित गुलज़ार के सेशन ‘बिकॉज़ वी आर : अ पोर्टरेट ऑफ माइ फादर’ के बाद योगेश भी अपने दोस्तों से कर रहे थे. जब हमने उनसे पूछा तो वे इक्का-दुक्का फिल्मी नगमों के अलावा गुलज़ार की किसी और रचना के बारे में नहीं बता पाए.
किताबों की बिक्री वाले हॉल में भी बड़ी भीड़ जिस तरह खाली हाथ घुस रही थी, उसी तरह बाहर भी निकल रही थी. इनमें से कुछ किताब की कीमत को कोस रहे थे तो कुछ एक-दूसरे को सफाई सी दे रहे थे कि नाम नोट कर लिया है, बाद में ऑनलाइन मंगवाएंगे. गुरुचरण दास की किताब ‘कामा : द रिडल ऑफ डिज़ायर’ खरीदने की सलाह मिलने पर एक ने यह जिम्मेदारी सलाह देने वाले अपने साथी पर ही थोप दी कि ‘तुम क्यों नहीं खरीद लेते?’ उसका जवाब था, ‘पिछले साल वाली ही पूरी नहीं हुई यार’ और फिर दोनों हंस पड़े.
जेएलएफ में आने वाले कुछ ऐसे भी होते हैं जिनके लिए जावेद अख़्तर ने अपने सेशन में कहा था, ‘किताबें अब सजावट का सामान हो गई हैं. लोग उन्हीं किताबों को खरीदते हैं जिनके कवर का रंग फर्नीचर से मेल खाता है.’ वहीं, कुछ अन्य लोगों को कुछ अलग तरह की उम्मीदें यहां तक खींच आती हैं. एमबीए कर रहे अभिनव का शर्मीली मुस्कान के साथ कहना था, ‘किताबों के बहाने कई बार लंबे चलने वाले रिश्ते भी जेएलएफ में बन जाते हैं.’ इसके अलावा कई युवाओं ने इस बात से भी इन्कार नहीं किया कि यहां आकर उन्हें ताजातरीन फैशन ट्रेंड को जानने का मौका मिलता है.
साल दर साल जेएलएफ की बढ़ रही भीड़ के साथ उन लोगों की शिकायतें भी बढ़ती जा रही हैं जो सही मायने में साहित्य का रस लेना चाहते हैं. डॉक्यूमेंट्री निदेशक और सामाजिक टिप्पणीकार दीपक महान ने बताया, ‘शुरुआत में जेएलएफ ऐसे सुखद अवसर के तौर पर उभरा था जहां लेखक को अपने पाठकों से और पाठकों को अपने लेखक से संवाद करने का मौका मिलता था. लेकिन अब यह रोमांस और आउटिंग पॉइंट जैसा नज़र आता है. इसके आयोजकों को अब आत्ममंथन की ज़रूरत है कि वे जेएलएफ की सफलता को यहां आने वाली भीड़ की संख्या से नापना चाहते हैं या फिर उसकी गंभीरता से.’
हालांकि, ऐसा भी नहीं है कि जेएलएफ में हर कोई मन बहलाने ही आता है. पहली बार यहां आए कई लोगों में साहित्य के लिए खासी उत्सुकता देख राहत भी मिलती है. अपने 13 साल के बेटे यश के साथ सिर्फ जेएलएफ में भाग लेने इंदौर से जयपुर आई आशा मिश्रा उन्हीं लोगों में शुमार थीं. वरिष्ठ पत्रकार करण थापर के सेशन ‘द डेविल्स एडवोकेट : द अनटोल्ड स्टोरी’ के दौरान वे बार-बार यश को थापर की कई बातों का संदर्भ बड़ी सजगता के साथ समझाती रहीं. पूछने पर उन्होंने बताया कि कभी उनके पिता ने भी किताबों से उनकी दोस्ती कुछ इसी तरह करवाई थी.
युवा पत्रकार जया गुप्ता की मानें तो उनके हमउम्र लोगों में साहित्य के प्रति झुकाव बढ़ा है. उन्होंने बताया, ‘कई नए सहभागी अपने पसंदीदा सेशंस से पहले खास तैयारी कर के आए थे. स्पीकर्स से पूछे जाने वाले उनके सवालों में भी समझ और गंभीरता झलक रही थी.’
जेएलएफ में हमने ऐसे भी कई लोगों को देखा जो किसी आयोजन स्थल या वेन्यू पर एक-एक घंटे पहले पहुंच जाते, ताकि उनकी पसंद के सेशन का कोई हिस्सा छूटने न पाए. हालांकि ऐसा करने की एक वजह यह भी थी कि भीड़ ज्यादा होने पर अक्सर बैठने और कभी-कभी खड़े होने तक भी जगह नहीं मिलती.
स्थानीय पत्रकार ललित तिवारी जयपुर साहित्य महोत्सव को बहरहाल एक सकारात्मक कवायद बताते हैं. करीब एक दशक से जेएलएफ को कवर कर रहे तिवारी कहते हैं, ‘अहमद फ़राज़ की एक मशहूर ग़ज़ल है. रंजिश ही सही, दिल दुखाने के लिए आ. हमारे बच्चे फोटो खिंचवाने के बहाने सही, साहित्य महोत्सव में आते तो हैं! हो सकता है कि आज वे चलते-फिरते किसी किताब का नाम ही सुनकर लौट जाएं. लेकिन इससे उनके कोश में कुछ तो नया जुड़ेगा.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘कोई बड़ी बात नहीं कि इसी तरह किताबों के नाम सुनते-सुनाते हमारे कई युवाओं में एक दिन साहित्य प्रेम भी पैदा हो जाएगा.’
और न हुआ तो? यह सवाल हम अगली बार के लिए बचा लेते हैं.