वरिष्ठ पत्रकार डॉ. वैदिक ने की ये मांग, डॉक्टरेट की डिग्री का बंद करें अपमान

डॉ. वेदप्रताप वैदिक (वरिष्ठ पत्रकार)

आज एक अंग्रेजी अखबार ने देश में चल रही पी.एच.डी. (डॉक्टरेट) की उपाधियों की हेरा-फेरी पर एक खोजपूर्ण खबर छापी है। देश के लगभग सभी विश्वविद्यालय ऐसे लोगों को भी मानद पी.एच.डी. की डिग्री दे देते हैं, जिनके मैट्रिक पास होने का भी पता नहीं हैं।

पिछले 20 साल में 160 विश्वविद्यालयों ने 2000 से ज्यादा लोगों को मानद डॉक्टरेट की उपाधियां बांटी हैं। ऐसी मानद डिग्री पाने वालों में देश के राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और कई मंत्री तो हैं ही, सरकारी अफसर, कई अनपढ़ पूंजीपति और कई तथाकथित समाजसेवी भी हैं। इस मामले में मेरा कहना यह है कि ये सब लोग किसी न किसी कारण सम्मान पाने के हकदार हो सकते हैं लेकिन इन्हें डॉक्टरेट (पी.एच.डी.) की डिग्री ही क्यों दी जाए।

यह डॉक्टरेट या डी.लिट की डिग्री का दुरुपयोग है। उस डिग्री का अपमान है। किसी भी विषय में डॉक्टरेट करने के लिए पांच-सात साल शोध करना पड़ता है। मैंने स्वयं जब अंतरराष्ट्रीय राजनीति में डॉक्टरेट की उपाधि के लिए शोध किया तो लगातार पांच साल सुबह 8 बजे से रात आठ बजे तक बैठकर पुस्तकालयों में काम किया। अंग्रेजी के अलावा तीन विदेशी भाषाएं सीखीं। सैकड़ों विदेशी नेताओं और विद्वानों से वार्तालाप किया। चार देशों में रहकर गहरा अनुसंधान किया। अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विख्यात विशेषज्ञों ने उसे स्वीकार किया। तब जाकर (जेएनयू) ने मुझे डॉक्टरेट की उपाधि दी। आप जिस विषय पर डॉक्टरेट करते हैं, उस विषय के पंडित ही नहीं, महापंडित माने जाते हैं जबकि मानद डॉक्टरेट पाने वाले कुछ लोग तो विद्वानों के बीच बैठने लायक भी नहीं होते।

कुछ ऐसे भी लोगों को डॉक्टरेट दे दी जाती है, जिनसे उन विश्वविद्यालयों को आर्थिक लाभ हुआ हो या होने की संभावना हो। उन पर हुई तरह-तरह की कृपाओं को लौटाने का यह प्रमुख साधन बन गया है। इसके पीछे वे विश्वविद्यालय अपनी कमियों, धांधलियों और भ्रष्टाचार पर पर्दा डाल देते हैं। कुछ लोग पैसे के जोर पर ये मानद उपाधियां या फर्जी डिग्रियां भी हथिया लेते हैं। वे अपने नाम के पहले ‘डॉक्टर’ लगाना कभी नहीं भूलते। उनके सारे नौकर-चाकर उन्हें ‘डॉक्टर साहब’ कहकर ही बुलाते हैं। मैं तो सर्वोच्च न्यायालय से कहता हूं कि ऐसी मानद और फर्जी उपाधियों पर वह कड़ा प्रतिबंध लगा दे ताकि हमारे विश्वविद्यालय बदनाम होने से बच सकें।

इस तरह की उपाधियां और पद्मश्री और पद्मभूषण- जैसे सम्मान पाने वाले अपने निजी मित्रों को मैं प्रायः सहानुभूति का पत्र लिख देता हूं, क्योंकि इन कागजी उपाधियों के लिए उन्हें पता नहीं, किस-किस के आगे नाक रगड़नी पड़ती है।

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