हम कि मगलूबे जुबां थे पहले फिर वहीं हैं कि जहां थे पहले

शेखर पंडित पत्रकार

हम छोटे अखबार वाले लोग हैं। स्वांग को सच समझ लेना हमारी नियति है। तमाम नियम कायदे से गुजर राज्य मुख्यालय की मान्यता पाने के बाद भी हम हर वक्त अहसासे कमतरी के शिकार रहते हैं मानो बिना लायकियत के हमें कुछ दे दिया गया हो। हम बड़े मीडिया वालों के आगे सिर झुका कर रहते हैं और यूं हिकारत से देखे जाते हैं किसी प्रेस कॉन्फ्रेंस में आगे की कुर्सी पर बैठे जाने पर मानों बड़े पत्रकारों की जेब से पुलित्जर अवार्ड बस इसी वजह से सरक गया।
क्या हुआ जो बहुचर्चित राडिया कांड और हाल के कोबरा पोस्ट के स्टिंग मे किसी छोटे अखबार वाले का नाम नहीं है पर बड़ों की नजर में हम दलाली की दुकान कंधों पर लादे चलते हैं।
भले ही संपादकाचार्य अंबिका प्रसाद बाजपेयी मारवाड़ी बंधु और नृसिंह संपादक, प्रकाशक, प्रूफ रीडर, आफिस ब्वॉय का काम अकेले करते हुए आपकी प्रेरणा स्त्रोत बने पर हम जो अपनी मेहनत से एक छोटा अखबार निकालते हैं वो दोयम दर्जे के पत्रकार या वो भी नहीं हैं।
हम पर केंद्र सरकार जीएसटी का बोझ लाद मरने के लिए छोड़ देती है और उम्दा शराब की चुस्की लेते हुए आप आह्लादित हो उठते हैं कि चलो पत्रकारिता बचेगी।
जब हाल में पत्रकारों के एक चुनाव में हमारे वोट कुछ कर गुजरने की हालात में होते हैं तो हम पर आपकी इनायत होती है और आप भी दो बूंद आंसू हमारे लिए बहाना फर्ज समझ उठ खड़े होते हैं।
पर कहीं सच में हम बच न जाएं, सरकार पसीज न जाए, जीएसटी हट न जाए ये ख्याल रखा आपने।
सो जिस तरह चांद मांगते बच्चे को बाप कागज के टुकड़े पर चांद बना कर खुश करता है बस उसी तर्ज पर आप हमारी आवाज उठाने निकले हैं।
प्रेस क्लब में बनेगी योजना, लड़ने की बात होगी और गांधी जी को माला पहना हमारी लड़ाई लड़ने का स्वांग होगा।
फिर भी हम खुश होंगे आपके इस स्वांग पर, ताली भी पीटेंगे और जब बिरयानी की गोल बोटी चबाते हुए आप हमारी लड़ाई में साथ खड़े होने का अहसान लादेंगे तो हम बस मुलुर मुलुर ताकते हुए आपको दिल से दुआएं देंगे। कहेंगे कि
उपर वाला सलामत रखे नेता जी को
आमीन
सुम्मा आमीन

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