तहलका की स्टोरी में प्रमोद रंजन
Pramod Ranjan। तहलका (हिंदी) ने इस पखवाडे अपनी कवर स्टोरी का शीर्षक दिया है – ‘पेशेवर आंदोलनकारी’। जिसमें जितेंद्र यादव, अनिता भारती और मुझे निशाना बनाया गया है।
रिपोर्ट मैंने दो दिन पहले ही पढ ली थी। पढने के बाद लगा कि इस पर कोई टिप्पणी करना व्यर्थ होगा। लेकिन एक सम्मानीय साथी का आग्रह है कि मुझे इस पर अपनी बात रखनी ही चाहिए अन्यथा ‘भ्रम’ की स्थिति बनेगी। हलांकि मैं उनसे सहमत नहीं हूं। मेरा मानना है कि तहलका ने जो छापा है, उसे सिर्फ विवेकपूर्ण ढंग से पढने की जरूरत है, उसी से सारी बातें स्पष्ट हो जाती हैं। इस असहमति के बावजूद अपने वरिष्ठ साथी के आग्रह को पूरा कर रहा हूं।
1.तहलका की यह जानकारी गलत है कि हम लोगों ने ‘जुलाई आते-आते’ भगाणा आंदोलन से कथित दूरी बनानी शुरू कर दी। सच यह है कि कम से कम मैंने 10 मई को ही यह फैसला कर लिया था कि मैं इस आंदोलन में अब और ज्यादा समय नहीं दे पाऊंगा। कई एनजीओ के लोग वहां सक्रिय हो गये थे, जिनके प्रभामंडल के आगे भगाणा गांव के लोग (बलात्कार पीडितों के परिजन नहीं) भी आ रहे थे। एनजीओ वालों में मेरी सहमति नहीं थी। 10 मई को मैंने अपने फेसबुक वॉल पर लिखा था – ” हे असुर, क्या अनिष्ट होने वाला है? अब तक आसमान में मंडरा रहे एनजीओ रूपी गिद्ध हमारे आंदोलन की मुंडेरों पर बैठ रहे हैं!” इसके बावजूद मैं वहां आयोजिक कार्यक्रमों में जाता रहा और जब एनजीओ वाले छोडकर चले गये तब भी गया। अनिता भारती जिस अथक धैर्य से वहां लगातार रहीं, वह इस आंदोलन को जानने वाला हर व्यक्ति जानता है। इसके लिए उनकी प्रशंसा करने की बजाय, तहलका की रिपोर्ट कहती है कि एक कथित एनजीओ उनके ‘भाई’ का है।
2.तहलका ने अपनी कवर स्टोरी का शीर्षक दिया है ‘पेशेवर आंदोलनकारी’। इस श्ीार्षक से ऐसा लगता है कि पत्रिका की मंशा शायद विभिन्न आंदोलनों में गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) की भूमिका की जांच-पडताल की रही होगी। लेकिन भागणा आंदोलन के संदर्भ में पत्रिका ने उन्हें मुख्य रूप से अपना शिकार बनाया है, जो न सिर्फ आंदोलनों के एनजीओंकरण के विरोधी रहे हैं, बल्कि किसी भी प्रकार से किसी राजनीतिक दल से संबद्ध नहीं रहे हैं। यानी, अनिता भारती, जितेंद्र यादव और मैं। मैं नहीं जानता कि ऐसा क्यों किया गया है और न ही इसमें ज्यादा सर खफाना चाहता हूं। हिंदी पत्रकारिता की साधन विहिनता और संवाददाता पर काम का दवाब भी एक कारण हो सकता है।
3. रिपोर्ट में साथी शिवानी ने प्रकारांतर से यह सच कहा है कि वे आंदोलन से जाति का कथित ‘रंग’ हटाना चाहती थीं। जितेंद्र यादव, अनिता भारती व अन्य अनेक साथियों का इससे विरोध था। उनका कहना था कि इस आंदोलन से ‘दलित’ शब्द नहीं हटाना चाहिए। जब उत्पीडन ‘दलित’ होने के कारण हुआ है, तो हम इस शब्द को क्यों हटा दें? मैं इन साथियों के मत से सहमत था लेकिन मैं यह भी चाहता था शिवानी के ‘मजदूर विगूल दस्ता’ का सहयोग आंदोलन को मिलता रहे। वास्तव में, मैं अपनी कमजोर नब्ज जानता था। एक ‘नौकरी’ में होने के कारण मेरे लिए आंदोलन को बहुत ज्यादा समय देना संभव नहीं था। इसलिए कम से कम मेरी ओर से यह कोशिश लगतार रही कि इस आंदोलन को कोई ‘नेता’ मिल जाए। सच यह है कि मैने इसके लिए आम आदमी पार्टी का दरवाजा भी खटखटाया था कि वे आएं नेतृत्व करें और न्याय की इस लडाई को मुकाम तक पहुंचाएं। शिवानी चाहे जो कहें, लेकिन उन्हें यह सच जानना चाहिए कि अपनी पत्नी की बीमारी के कारण जितेंद्र यादव भी आंदोलन का नेतृत्व नहीं करना चाहते थे और वे मई में ही अपनी पत्नी को देखने बिहार स्थित गांव चले गये थे। बाद में मेरे और वेदपाल तंवर के आग्रह पर बीमार पत्नी को छोडकर वे पुन: दिल्ली आए, लेकिन उन व्यक्तिगत परिस्थितियों के कारण उनके लिए आंदोलन को लंबे समय तक लीड करना संभव ही नहीं था। यह आरोप ही हास्यास्पद है कि हम इस आंदोलन का ‘नेतृत्व’ नहीं मिलने पर अलग हुए थे। हां, जब एनजीओ वालों ने नेतृत्व के लिए और पर्चों पर अपने संगठन के नाम के लिए घंटों-घंटों की बैठकें शुरू की तो मुझे कोंफ्त भी हुई और यह भी लगा कि अगर वे आंदोलन का नेतृत्व करना चाहते हैं ओर हम समय देने में सक्षम नहीं हैं तो बेहतर है कि वे ही कमान संभालें। इसी क्रम में शिवानी से फोन पर मेरी बहस भी हुई थी।
3. मजदूर बिगुल दस्ता को बस से मजदूर साथियों के साथ जंतर मंतर आने के लिए 2500 रूपये नहीं बल्कि जहां तक मुझे याद है 1800 रूपये दिये गये थे। यह पैसा उन्होंने मांंगा नहीं था, जैसा कि रिपोर्ट में कहा गया है। बहरहाल, यह समझना कठिन है कि इस आरोप के माध्यम से पत्रिका क्या कहना चाहती है? आंदोलन के दौरान जो चंदा इकट्ठा किया गया था, उसे अगर आंदोलन को तेज करने के लिए न खर्च किया जाता तो क्या डिनर पार्टियों में खर्च किया जाना चाहिए था? मजदूर विगुल दस्ता ने कहा था कि मजदूर साथी आपस में चंदा करके बस कर लेंगे। इस पर मैंने कहा कि हम लोगो ने यहां चंदा किया है, उसी से बस का किराया दे दिया जाएगा। और हमने बस का किराया दिया।
4. रिपोर्ट कहा गया कि एक व्यक्ति को 1000 रूपये प्रति दिन पर प्रेस नोट तैयार करने के लिए रखा गया। जीं हां, बिल्कुल रखा गया। मेरी पुरानी पोस्टें देखिए। मैंने कई बार ऐसे लोगों के सामाने आने की अपील की जो, स्वयंसवेी रूप में मीडिया आदि का काम देखने में सहयोग कर सकें। लेकिन हमें कोई भी नहीं मिल सका, जिसे प्रेस नोट आदि बानाना आता हो, तथा जिसे दिल्ली के मीडिया के संस्थानों का अता-पता हो। मजबूरी में हमें एक व्यक्ति को पैसे देने पडे। हमने उसे शाायद सात दिनों के लिए 500 रूपये प्रतिदिन के हिसाब से दिये। लेकिन आंदोलन के आरंभ लेकर अभी तक न तो किसी प्रेस नोट में मैंने अपना नाम देने दिया, न ही आंदोलनकर्ता के रूप में मेरा नाम आप कहीं प्रकाशित पाएंगे। मेरे फेसबुक पेज पर उस दौरान भेजे गये कुछ प्रेस नोट हैं, जिन्हें : भगाणा गांव के वासी सतीश काजला और ‘भगाणा कांड संघर्ष’ समिति की ओर से भेजा गया था।
5. भगाणा गांव के लोगों के एक ग्रुप को, जिन्होंने बाद में बलात्कार पीडित लडकियों मेें से एक के पिता की पिटाई तक की, को मैंने समझाया या ज्यादा से ज्यादा कह सकते हैं कि डांटा था। वह ग्रुप चाहता था कि लडकियों को जो 1.50 लाख रूपये मुआवजा के तौर पर मिले हैं, उस राशि को वे लोग ‘आंदोलन’ पर खर्च करें। मेरा कहना था कि यह पैसा लडकियों का है। वैसे भी यह रकम बहुत छोटी है। इनके गरीब पिता अगर कुछ नहीं हो सका तो इस पैसे को भविष्य में उनके विवाह आदि पर खर्च कर सकते हैं। मैंने एक रात उनकी मातओं को इस बारे में बडे आत्मीय महौल में बात की थी तथा उन्हें इस पैसे को फिक्स डिपॉजिट में डाल देने के लिए समझााया था। लेकिन जब वह ग्रुप उनपर वह पैसा खर्च करने का दवाब बनाने लगा तो उन्होंने इस बारे में हमसे फिर शिकायत की। पैसा खर्च करने का दवाब बनाने वालों में एक व्यक्ति शायद रामफल जांगडा रहा होगा, जिसका तहलका ने जिक्र किया है। मैं उसे चेहरे से तो पहचानता हूं लेकिन नाम तहलका से ही मालूम चला। इसी व्यक्ति ने उससे कुछ दिन पहले एक और अशोभनीय हरकत की थी। बहरहाल, तहलका ने इसे बिना प्रमाण के जिस तरह सिर्फ आरोप के आधार पर प्रस्तुत किया है, वह मानहानि का सीधा मामला है। रामफल जांगडा से ज्यादा कडवी बहस तो मेरी साथी शिवानी से फोन पर हुई थी। गनीमत है कि तहलका वालों को यह न मालूम चला अन्यथा, न जाने वे इसे क्या रंग देते!
6. अपने पुराने फेसबुक स्टेटसों को देखकर याद आता है कि 2 मई को मुझे लगा कि इस आंदोलन के बारे में लोग बहुत कम जानते हैं। भगाणा का मामला सिर्फ 4 लडकियों के बलात्कार तक सीमित नहीं है, पिछले 3 वर्ष से जारी कथित सामाजिक वहिष्कार व अन्य जटिलताएं भी इसमें शामिल हैं। 2 मई को मैंने लिखा कि ”क्या भगाणा कांड पर एक बुकलेट जारी की जाए? इससे एक तो इस संघर्ष का डेक्यूमेंटेशन हो जाएगा और तात्कालिक रूप से यह फायदा होगा कि लोगों को इस मामले को समझने में सुविधा होगी।” इसी की परिणति एचएल दुसाध जी द्वारा ‘भगाणा की निर्भयाएं’ पुस्तक के संपादन के रूप में हुई, जिसके लिए वेदपाल तंवर, मैने व अन्य साथियों ने आर्थिक मदद की। मेरी जानकारी के अनुसार, इस मदद के बावजूद पैसे कम पडे तथा दुसाध गत 7 अगस्त तक प्रिंटिंग प्रेस वाले को पैसा देने के लिए परेशान थे। बहरहाल, दुसाध जी का कहना था कि आंदोलन के लिए ‘चंदा’ मांगना उचित नहीं है। इसमें एक दया भाव छिपा होता है। हम कुछ देकर पैसे लेंगे। यानी, लोग पैसे देकर किताब खरीदें और उस पैसे को आंदोलनकारियों को दे दिया जाए। इस क्रम में पहली और संभवत: एकमात्र मदद जेएनयू में 14 मई को आयोजित विमोचन समरोह में प्रो. वीरभारत तलवार (5000 रूपये) और शायद दलित लेखक सुदेश तनवर ने की। उस रात कुल 8000 रूपये जमा हुए, जिसे दुसाध जी ने आयोजन के दौरान ही डाबरा कांड की बलात्कार पीडित किशोरी को दे दिया। इस मामले में दुसाध जी पर जो लांक्षण लगाए गए हैं, वे या तो किसी कुत्सित मंशा से लगाए गये हैं, या फिर पत्रिका के संवाददाता में कुछ भी ‘सिद्ध’ करने की जिद रही होगी। अन्यथा, आंदोलन स्थल पर, उसी आंदोलन से संबंधित किताब बेचाना और उस पैसे से प्रिंटर का बकाया बिल देना और शेष राशि को आंदोलनकारियों के हवाले करने का इरादा क्या दुसाध जी गलत मंशा से प्रेरित कहा जाएगा?
कुल मिलाकर यह रिपोर्ट तथ्यों को मैनुपुलेट करने और उन्हें सर के बल खडा करने के प्रयास का एक नमूना है। इससे अधिक मुझे कुछ नहीं कहना है।