दबाव के बाद भी ‘ओपिनियन’ ने नहीं बदला अपना ओपिनियन

प्रतिरोध के प्रतिमान श्रृंखला की कड़ी में आज आप रू-ब-रू होंगे साप्ताहिक अखबार ‘ओपिनियन’ से. सिविल सेवा छोड़ कर पत्रकार बने एडी गोरवाला ने 1960 में इसे

दबाव के बाद भी ‘ओपिनियन’ ने नहीं बदला अपना ओपिनियनप्रतिरोध के प्रतिमान श्रृंखला की कड़ी में आज आप रू-ब-रू होंगे साप्ताहिक अखबार ‘ओपिनियन’ से. सिविल सेवा छोड़ कर पत्रकार बने एडी गोरवाला ने 1960 में इसे स्थापित किया. गोरवाला ने स्वतंत्र भारत में नागरिकों की स्वतंत्रता बनाये रखने के लिए कड़ा संघर्ष किया.

इसकी बानगी 1975 में आपातकाल के दौरान देखने को मिली. जब मात्र दो पृष्ठों के ‘ओपिनियन’ के प्रकाशन-मुद्रण-वितरण को रोकने के लिए 200 से अधिक सुरक्षा-गुप्तचर सेवाओं के अधिकारी जुटे थे.

अकबर इलाहाबादी का शेर ‘ न खेंचो कमान, ना तलवार निकालो. जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो’. समाचारपत्र, व्यवस्थाजन्य निराशा में आशा का संचार करने का एक माध्यम भी है और निरंकुश सत्ता से मोर्चा लेने का एक कारगर हथियार भी है. भारत में नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा आइसीएस की परीक्षा उत्तीर्ण करने और देश की स्वतंत्रता में भाग लेने के लिए औपनिवेशक नौकरशाही की इस चाकरी को अस्वीकार करने की प्रेरक कथा अत्यंत लोकप्रिय है.

इसके समान ही एक और दृष्टांत है, जब एक अन्य भारतीय आइसीएस अधिकारी, एडी गोरवाला ने स्वतंत्र भारत में भारतीयों की स्वतंत्रता बनाये रखने के लिए कड़ा संघर्ष किया था.

वर्ष 1975 में भारत में आंतरिक की घोषणा और प्रेस सेंसरशिप के विरुद्ध 75 वर्षीय एडी गोरवाला ने नितांत अकेले, निहत्थे और निर्भीक पत्रकारिता के बल पर सरकारी दमन के खिलाफ मोरचा लिया था. जब उनके केवल दो पृष्ठों के समाचारपत्र ‘ओपिनियन’ के प्रकाशन-मुद्रण-वितरण को रोकने के लिए 200 से अधिक सुरक्षा-गुप्तचर सेवाओं के अधिकारी बेचैन रहते थे.

अस्ताद दिनशा गोरवाला, जो एडी गोरवाला के नाम से भी प्रसिद्ध हुए का जन्म वर्ष 1900 में भारत के पारसी समुदाय में हुआ था. बंबई (अब मुंबई) और इंग्लैंड में शिक्षा प्राप्त करने के बाद, वर्ष 1924 में गोरवाला प्रतिष्ठित भारतीय सिविल सेवा में शामिल हुए. ब्रिटिश शासन के दौरान एडी गोरवाला ने और सिंध के उत्तर-पश्चिमी प्रांत सहित अनेक स्थानों पर अपनी सेवाएं दी और अपने सेवा काल में कार्यकुशलता और ईमानदारी के कारण प्रसिद्धि प्राप्त की.

वर्ष 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान एडी गोरवाला और कैंब्रिज विश्वविद्यालय के उनके साथी डीआर गाडगिल ने महात्मा गांधी के विरोध के बावजूद भी अनाज वितरण में सरकारी नियंत्रण पद्धति लागू की थी. गोरवाला-गाडगिल का तर्क था कि मुक्त बाजार की काला बाजारी के कारण निर्धन लोग अनाज खरीदने में असमर्थ रहेंगे. अत: इस अनाज वितरण पर सरकारी नियंत्रण आवश्यक है.

यह निर्णय इतना सफल रहा कि बाद में यह व्यवस्था सारे भारत में लागू की गयी. स्वतंत्र भारत में भी एडी गोरवाला ने अपनी कर्तव्यपरायणता और सच्चाई से कोई समझौता नहीं किया और भारतीय प्रशासनिक सुधारों के लिए गठित समिति के अध्यक्ष के रूप में जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों के भ्रष्ट होने का दावा किया था. अपनी रिपोर्ट में गोरवाला ने लिखा था- ‘ये स्पष्ट था कि नेहरू की कैबिनेट में कुछ मंत्री भ्रष्ट थे और यह बात सबको पता थी.

कुछ काफी ऊंचे पदों पर बैठे नौकरशाहों ने उनसे कहा था कि सरकार ने ऐसे भ्रष्ट लोगों को बचाने के लिए सारे हथकंडे अपनाये थे. भारतीय स्टेट बैंक के उपाध्यक्ष (वाइस-चेयरमैन) के पद के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति होने के बाद भी एडी गोरवाला की नियुक्ति को रोकने के लिए स्वयं प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने अग्रणी भूमिका निभायी थी. नेहरू, एडी गोरवाला द्वारा उनकी सरकार की नीतियों की सार्वजनिक आलोचना से बेहद क्षुब्ध थे.

भारत सरकार के मंत्रियों और अन्य राजनीतिज्ञों की कार्य शैली से व्यथित होकर गोरवाला ने भारतीय सिविल सेवा छोड़ कर एक पत्रकार बनने का निर्णय लिया. उनके लेख कई समाचार पत्रों में प्रकाशित किये जाते थे. विशेषकर टाइम्स ऑफ इंडिया में गोरवाला, विवेक के उपनाम से लिखा करते थे.

जब कुछ समाचार पत्रों को गोरवाला की आलोचनात्मक शैली से परहेज हो गया, तो वर्ष 1960 में उन्होंने ‘ओपिनियन’ नामक साप्ताहिक अखबार स्थापित किया. इस समाचारपत्र में उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक अभियान छेड़ दिया और राज्य के विरुद्ध नागरिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए बौद्धिक आंदोलन भी चलाया.

‘ओपिनियन’ अखबार का वार्षिक ग्राहक शुल्क मात्र दो रु पये था और इस अखबार के नाम के अनुरूप ही इस अखबार में एडी गोरवाला की बेखौफ-बेलौस-बेबाक राय प्रकाशित की जाती थी.

25 जून, 1975 को भारत में आपातकाल की घोषणा के साथ ही देश में प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गयी तब भी गोरवाला ने ‘ओपिनियन’ में आपातकाल को लोकतंत्र की हत्या के नाम से बुलाया और जुलाई 1975 में भारतीय संसद के अधिवेशन में सरकार विरोधी वक्तव्यों को प्रकाशित करने वाला एकमात्र समाचार पत्र था.

सेंसरशिप और सरकारी दमन के सारे प्रयासों के बाद भी जब एडी गोरवाला नहीं झुके, तो सरकारी अमले ने ‘ओपिनियन’ के पिछले 16 साल से मुद्रण कर रहे प्रिंटिंग प्रेस पर दबाव डाल कर अखबार का प्रकाशन रोक दिया. इसके बाद गोरवाला हर सप्ताह एक नये प्रिंटिंग प्रेस से अपना अखबार मुद्रित कराते थे और इस प्रकाशन के लिए उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने एक शपथ पत्र में उस प्रिंटिंग प्रेस का नाम भी देना होता था.

सरकारी अधिकारी तुरंत ही उस प्रिंटिंग प्रेस पर प्रकाशन रोकने के लिए धावा बोल देते थे. एक समय ऐसा भी आ गया कि गोरवाला को अपने अखबार के प्रकाशन के लिए कोई पिंट्रिंग प्रेस नहीं मिला, तो उन्होंने ‘ओपिनियन’ को साइक्लोस्टाइल करके अपने ग्राहकों को डाक से भेजना शुरू किया.

जब सरकार ने डाक विभाग से उनके बुक पोस्ट के वितरण से मना कर दिया, तो गोरवाला ने अपने ग्राहकों को ‘ओपिनियन’ की प्रति सादे लिफाफे में रख कर भेजना शुरू कर दिया. इसके कुछ दिनों के बाद एडी गोरवाला का समाचारपत्र चला पाना बिल्कुल असंभव हो गया, तो उन्होंने प्रकाशन बंद करने के ठीक पहले अपने संपादकीय में लिखा -‘26 जून, 1975 को स्थापित वर्तमान इंदिरा सरकार का जन्म झूठ से हुआ, झूठ से ही इसका पोषण होता है, झूठ से ही यह फल-फूल रही है. इसका संपूर्ण अस्तित्व ही झूठ पर टिका हुआ है.

परिणामस्वरूप इस सरकार के लिए एक सत्यप्रिय, स्पष्टवादी अखबार को बरदाश्त करना असंभव है, जो इस सरकार का परीक्षण करे और उसकी असत्यता को उजागर करता हो.’ एडी गोरवाला के बाद यह समाचारपत्र बंद हो गया, लेकिन अपने जीवन काल में ‘ओपिनियन’, आसमां में सुराख करने वाला तबीयत से उछाला गया एक कंकड़ ही नहीं, सत्ता मद में चूर शासकों और उनके अनुचरों के आंख की किरकिरी भी था.

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