मीडिया को सत्ता का गुंडा बताने वाले रवीश के 4P- प्रपंच, पाखंड, प्रोपेगेंडा, प्रलाप

जल में उतपति जल में बास, जल में नलिनी तोर निवास।”

कबीर के इस दोहे का अर्थ है- “नलिनी तुम क्यों नाहक कुम्हलाई जाती हो, तुम्हारी नाल सरोवर के पानी में है, तुम्हारी उत्पत्ति और निवास ही जल में है, फिर कुम्हलाने की वजह?”

मार्केटिंग में 4’P का कॉन्सेप्ट होता है और यह पूरा उद्योग इन्हीं 4’P’ के आसपास मंडराता रहता है। इसी तरह से रवीश कुमार ने भी कुछ ‘P/प’ ईजाद किए हैं- प्रपंच, पाखंड, प्रोपेगंडा और प्रलाप!

दिन रात इन 4P’s से घिरे होने के बावजूद रवीश कुमार हैं कि कुम्हलाए ही जा रहे हैं। रवीश को जितना जल्दी हो सके कबीर को पढ़ना चाहिए। चाहे तो वो सोशल मीडिया से समय बचा लें लेकिन उन्हें यह दोहा ज़रूर पढ़ना चाहिए।

इंसान अपनी आँखों को अपनी ही हथेलियों से मूँदकर कहता है कि संसार में कितना अन्धकार है। अफ़सोस कि एक पुरस्कार, जो आजकल पुरस्कार कहलाए जाने के अलावा बाकी सब कुछ है, जैसे- एशिया का नोबेल या फिर ‘ऑस्कर’, भी कुछ नहीं बदल पाया। सुकून इतना है कि आजकल टीआरपी पर बवाल कम हो गया। लेकिन टीआरपी के आँकड़े इतने महत्वपूर्ण नहीं हैं क्योंकि आजकल निराशा का कारण यह है कि उनके लाडले पाकिस्तान की चारों ओर फजीहत हुई है।

ट्रम्प और मोदी ताली दे रहे हैं, एक-दूसरे को सबके सामने चूँटी काट रहे हैं। उन्होंने ‘मान लिया’ था कि ‘बराक’ के बाद अमेरिका से यह नाता टूट जाएगा, लेकिन नए राष्ट्रपति तो मोदी को चूँटी काट रहे हैं। बिना किसी औपचारिकता के ही यह सब हो रहा है।

जब जब ट्रम्प-मोदी ताली मरते हैं, तब-तब दुनिया के एक कोने में एक ज़ीरो टीआरपी पत्रकार खुद को कहीं अँधेरे में बैठकर कोड़े मारता है। हालाँकि, इसका कोई ऑफ़ दी रिकॉर्ड सूत्र नहीं है, लेकिन फिर भी मैं ‘मानकर’ चल रहा हूँ कि वो ऐसा करते होंगे। क्योंकि यही तो उनके अनुसार पत्रकारिता है।

पत्रकारिता; यानी ‘मान लेना’। गणित के गुरूजी कक्षा छह में समझाते थे कि मान लो, यह है नहीं लेकिन मानना पड़ता है क्योंकि गणित ऐसे ही काम करती है। तब यह नहीं सोचा था कि एक दिन पत्रकारिता में भी यही गणित घुसकर सब कुछ भुसकोल कर देगी।

इसी तरह रवीश कुमार दैनिक कार्यक्रम के तहत काली स्क्रीन वाले स्टूडियो कहते हैं- “भगत जनों, ‘मान लीजिए।”उधर से जवाब में उनके सौ-साठ भगत-जन और ज्यादा ऊँची आवाज में कहते हैं- ‘मान लिया।’

कितना सुखद अनुभव है कि रवीश कहते हैं और भगत-जन एक ही बार में बिना सवाल किए मान लेते हैं। फिर भी रवीश कहते हैं कि पत्रकारिता नहीं होने दे रहे हैं। इसी क्रम में आज के एक लेख में रवीश ने मीडिया को सत्ता का गुंडाबता दिया है।

इसका सीधा सा मतलब है कि जो आपके एकतरफा पत्रकारिता से सहमत नहीं है वो गुंडा है। चलिए एकबार फिर मान लेते हैं। यदि रवीश से असहमति मीडिया को गुंडा बनाती है तो सोचिए रवीश खुद कितने बड़े खलनायक हैं। उनकी बातों से तो सुप्रीम कोर्ट तक असहमति जता चुका है। कोर्ट कई बार रवीश कुमार से कह चुका है कि उन्होंने संसाधनों का समय बर्बाद किया है।

तो क्या सुप्रीम कोर्ट भी सत्ता का गुंडा है? क्या इस देश में अकेली जो आवाज लोकतंत्र की कहलाई जा सकती है वो रवीश कुमार द्वारा हवा में छोड़े गए तीर हैं? चाहे जस्टिस लोया केस हो या फिर NSA अजीत डोभाल और उनके बेटों को D-कम्पनी बताने का प्रपंच हो, रवीश के सभी इल्जाम झूठे निकल आए हैं। क्या उनके किसी भगत ने उनसे यह पूछा कि टीआरपी के लिए आपने इन सभी बेबुनियाद इल्जामों पर हमें यकीन करने को क्यों कहा?

रवीश कुमार खुद क्यों नहीं उस मीडिया का उदाहरण पेश कर देते हैं जिसकी वो कामना करते देखे जाते हैं?
खुद जिस रवीश कुमार का व्यवसाय दैनिक-प्रलाप और ‘4P’ बन चुका है, वह किस हैसियत से यह कह देता है कि मीडिया मर चुका है? एक ऐसे वरिष्ठ पत्रकार जिनकी टीआरपी सिर्फ उनका रोता हुआ चेहरा देखने की वजह से बढ़ती या घटती हो, वो जब अपने विष के लिए कश्मीर और अर्थव्यवस्था की आढ़ लेने लगे तो इसे सिर्फ कोरा प्रवचन कहते हैं।

अगर ऐसा न होता तो अर्थव्यवस्था से शुरू होने वाले रवीश के लेख मीडिया को कोसते हुए ख़त्म नहीं हो रहे होते।
चुनाव से ठीक पहले रवीश कुमार ने कहा था कि यह सरकार ‘इवेंट’ की सरकार है। हालाँकि, उनका यह तकिया-कलाम चुनावों में उनके मनमुताबिक नतीजे लाने में नाकामयाब रहा लेकिन फिर वो यही बात आज भी कहते सुने जा सकते हैं।

रवीश कुमार के लिए यह जानना आवश्यक है कि एक इवेंट की सरकार कॉन्ग्रेस की उन तमाम लोकसभाओं में से लाख बेहतर है जिसने अपनी जनता को वर्षों तक तुष्टिकरण और घोटालों के दलदल में डुबोकर रखा।

टीआरपी की तलाश में समाजवादी गुंडों के स्टेज पर चढ़ जाने को तैयार होने वाले रवीश कुमार को किसी को पत्रकारिता सिखाने की आवश्यकता नहीं है। उनका दैनिक रुदन देखकर तो इस समय यही लगता है कि अगर किसी को पत्रकारिता सीखने की जरूरत है तो वो खुद रवीश कुमार हैं।

वो हिंदी के दोषी हैं, वो पत्रकारिता के दोषी हैं, वो तमाम उन लोगों के दोषी हैं जिनके साथ वो अपनी कुटिल मुस्कान से रोजाना नए छल कर जाते हैं। वो लोगों को जागरूक करने से ज्यादा उन्हें भ्रम में रखने में यकीन करते हैं।

वो अपने स्टूडियो में बैठकर कहते हैं कि मोदी सरकार की मुद्रा योजना फेल है, जबकि आँकड़े इसके उलट कुछ और ही कह रहे हैं। वो कहते हैं कि स्वरोजगार का वादा इस सरकार का इवेंट है। जबकि ग्रामीण पृष्ठभूमि से जुड़े होने के कारण मैं स्वयं ये बात जानता हूँ कि मुद्रा बैंक और रोजगार सृजन से लेकर कौशल विकाश जैसे कार्यक्रमों ने देश के युवाओं और छोटे-बड़े व्यापारियों को एक बड़े हद तक प्रभावित किया है।

लेकिन रवीश ने अपने स्टूडियो में बैठकर सब कुछ तय कर लिया है। उन्होंने उसी बीजगणित के अध्याय की तरह सब कुछ अब ‘मान लिया’ है। इससे बड़ी हानि यह है कि वो चाहते हैं कि उनके इसी ‘मान लेने’ को बाकी लोग भी मान लें, जबकि उनका यह बीजगणित एकदम ऊसर है, इससे कुछ भी सृजन नहीं हो सकता है।

अर्थव्यवस्था का टेंशन छोड़िए रवीश बाबू, और उस टीआरपी पर ध्यान दीजिए जो आपको सोने, खाने से लेकर उठने-बैठने तक पर मोदी-स्मरण करवाने लगी है।

आपको कश्मीर का दर्द नहीं है आपका दर्द कश्मीर पर सरकार की होने वाली वाहवाही है। यह समय आत्म चिंतन का है। आपके एक कट्टर-भगत की आपसे यही माँग है। जितना जल्दी हो सके, लौट आइए, आपको कोई कुछ नहीं कहेगा।

आशीष नौटियाल

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