मालिक की नीतियों ने ही निगल लिया यूपी के 76 साल पुराने इस चर्चित अखबार को!
‘स्वतंत्रता की पहली किरण के साक्षी’ रहे अख़बार स्वतंत्र भारत को रिवाइव करने के बजाये लंबे समय तक ठप्प रखकर ख़त्म करने की साजिश!, दो साल के अंदर वीरान कर डाला राजधानी संस्करण का कार्यालय, केवल तीन महिलाएं संभाल रहीं ऑफिस
पत्रकार और समाचार से कोई सरोकार ना रखने वाले मालिक ने निकाल बाहर किया एक एक कर्मचारी को
दो बार में स्टाफ़ पुराने और वफादार पत्रकारों को निकाल कर बाहर किया संपादकीय संभाल रहे गैर पत्रकार मालिक ने
कइयों को निकालने के लिए महीनों वेतन ना देने, रोजाना बेज्जत किए जाने जैसे टैक्ट आजमाने के आरोप
कानपुर संस्करण का लंबे समय से बुरा हाल, अब किराए के पुराने भवन को खाली करके, कहीं एक कमरे का ऑफिस ढूंढने का प्रयास जारी…
शुगर मिल के अधिकारी रहे हैं अखबार के वर्तमान मालिक/संपादक केके श्रीवास्तव
लखनऊ। जिस समाचार पत्र की पूरे उत्तर प्रदेश में धमक थी, जिस अखबार की पॉलिटिकल खबरों से राजनैतिक पार्टियां थर्राती थीं, जिस अखबार के कांव कांव नाम के गॉसिप कॉलम तक से पॉलिटीशियन घबराते थे, जिस अखबार की रूटीन खबरों और फॉलोअप्स किसी घटना-दुर्घटना की इन्वेस्टिगेशन की दिशा तक तय कर देते थे…उसी अखबार रूपी पत्रकारिता की बगिया को बागवान ने ही उजाड़ डाला…यही सच है, 76 साल पुराना अखबार स्वतंत्र भारत अब अपनी आखरी सांसें गिन रहा है…
कुछ वर्ष पूर्व जब अखबार ठप पड़ गया था, कानपुर और लखनऊ संस्करण छुपना बंद हो गए थे..फिर एग्रो फाइनेंस एंड इन्वेस्टमेंट प्राइवेट लिमिटेड के लिए केके श्रीवास्तव ने इसकी बागडोर संभाली…कर्मचारियों और पाठकों में उम्मीद जगी।
श्रीवास्तव एक शुगर मिल में प्रबंधकीय पद से रिटायर हुए थे। लेकिन प्रबंधन संभालने के दो वर्ष के अंदर ही केके श्रीवास्तव ने सबसे पहले लखनऊ हेड ऑफिस संस्करण के ही एक एक कर्मचारी और संपादकीय स्टाफ को निकाल बाहर किया। एक अनुमान के अनुसार संपादकीय, विज्ञापन, अकाउंट, प्रशानिक आदि विभागों से पचास कर्मचारियों को निकाल दिया गया। चार दशकों से कार्यरत चपरासी तक को बाहर कर दिया गया। लखनऊ की जैपलिंग रोड स्थित स्वतंत्र भारत का विशालकाय ऑफिस एकदम खाली और भुतहा रहने लगा, जो आजतक पूरे दिन खाली पड़ा रहता है। अकाउंट और प्रबंधन संभालने के लिए केवल तीन महिलाएं ही हजारों गज के हाल में बैठी दिखती हैं।
विचित्र बात ये कि एक भी नई भर्ती नहीं की गई। अगर निकाले गए हर 10 कर्मचारियों के बदले केवल तीन या चार नए कर्मी ही भर्ती कर लिए जाते तो भी लगता कि अखबार को बेहतर करने के लिए छंटनी जैसा कदम उठाया गया है। लेकिन समस्या ये है कि चुन चुनकर निकाले गए सभी कर्मचारियों की जगह दो सालों में कोई भर्ती नहीं की गई।
सूत्रों के आज भी पुरानी साख के कारण एजेंसियों और सरकारी विभागों से टेंडर, निविदा जैसे विज्ञापन खुद अखबार तक चल के आ जाते हैं। प्रबंधन को इससे अधिक की जरूरत नहीं। इसीलिए “सफाई” के बाद विज्ञापन या मार्केटिंग विभाग में एक भी भर्ती नहीं की गई। शाम को आने वाला महज एक पेज मेकर (लेआउट आर्टिस्ट) एजेंसी की खबरें उठाकर 12 में से 7 पेज बना कर दो घंटे में घर चला जाता है।
कुछ वर्ष पूर्व अखबार का पोर्टल “स्वतंत्र भारत डॉट नेट” भी शुरू किया गया था। जिलों और ग्रामीण इलाकों के रिपोर्टरों को उम्मीद बंधी कि चलो बैनर के नाम पर पोर्टल में सही, लेकिन उनकी खबरें तो लग जाया करेंगी…लेकिन आज पोर्टल को देखें तो उसपर पिछले चार पांच महीनों से खबरें तक अपलोड नहीं की जा रही हैं। पता चला की संपादक केके श्रीवास्तव ने जानबूझकर अपने अखबार के पोर्टल के लिए एक अदद कर्मचारी तक नियुक्त नहीं किया।…तो फिर खबरें कौन अपलोड करता। बताया गया की अखबार में कार्यरत तीन कर्मचारियों में से एक, एडमिनिस्ट्रेशन संभालने वाली महिला ही किसी तरह कोशिश करके ये काम करती रही। पर समयाभाव में उसकी कोशिश जारी नहीं रह पाई। पोर्टल भी ठप हो गया।
इतना ही नहीं, कभी अखबार का नाम बुलंद करने वाला स्वतंत्र भारत के कानपुर एडिशन के कर्मचारियों को भी वेतन के लाले पड़े हैं। महीनों लेट वेतन मिलता है। प्रबंधन विज्ञापन के पैसों में पांच-छह सौ रुपए तक के लिए जिरह करता है। मालिक केके श्रीवास्तव कथित तौर पर कानपुर संस्करण के कैनाल रोड स्थित कार्यालय के 15 हजार किराए और बिजली बिल को देना नहीं चाहते। उन्होंने ऑफिस हटाकर कहीं एक कमरे का नया किराए का कार्यालय लेने का फरमान कुछ महीने पहले सुना दिया है।
यहां हाल ये है कि कभी चतुर्थ श्रेणी के तौर पर भर्ती एक कर्मी जैसे-तैसे अखबार के वो पांच पन्ने बनाता है, जो डाक-सिटी सहित कानपुर से बनाकर लखनऊ भेजे जाते हैं। ऐसा इसलिए कि प्रबंधन कानपुर संस्करण के लिए एक अदद प्रोफेशनल पेज मेकर आर्टिस्ट तक का वेतन देने को तैयार नहीं।
जानकारों का अनुमान है कि प्रबंधन ने दो वर्ष पूर्व ही अखबार को बेचने का सौदा कर डाला है। ख़रीदार अखबार के लिए मुंह मांगा रेट तो दे रहे हैं, लेकिन वो अखबार को बिना किसी लायबिलिटी, यानी बिना किसी जिम्मेदारी के खरीदना चाहते हैं। इसीलिए मालिक ने लखनऊ के स्टाफ को साफ कर डाला। अब कानपुर संस्करण को ठप करके वहां पर पर नए खरीदारों को ‘फुल स्कोप’ देने की तैयारी है।
लखनऊ से कन्हैया शुक्ला की रिपोर्ट.