‘माफ करना रवीश, मेरी नज़र में आज के बाद तुम पत्रकार नहीं हो…’
1982 में एक फर्ज़ी घोटाले में नाम आने के बाद मेरे पिताजी को सस्पैंड कर दिया गया। तब मेरे पिताजी एक सरकारी शुगर मिल के मैनेजिंग डायरेक्टर थे। शाम को 6 बजे एमपी की तत्कालीन अर्जुन सिंह सरकार ने ये फैसला लिया और सुबह 6 बजे प्रदेश के सबसे बड़े अख़बार दैनिक भास्कर के फ्रंट पेज पर मेरे पिताजी के सस्पेंशन की ख़बर पूरी ईमानदारी के साथ छपी, जबकि मेरे चाचा उस वक्त दैनिक भास्कर के संपादक थे।
एक संपादक के लिए ख़बर रोकना बेहद आसान है, लेकिन मेरे चाचा ने पत्रकार होने का अपना फर्ज निभाया। ख़बर तो ख़बर थी.. उसे छपना ही था। हालांकि इस घटना के 6 महीने बाद मेरे पिताजी बहाल हो गए। इसके बाद 8 साल तक चली जांच में वो निर्दोष साबित हो गए, क्योंकि ये एक राजनैतिक षडयंत्र था। खैर, आज भी उस दिन का अखबार मेरे घर पर रखा है, जो मेरे लिए किसी अपमान का नहीं बल्कि एक सम्मान का प्रतीक है। वो निशानी है अपना फर्ज निभाने की। 1982 के दैनिक भास्कर का वो पहला पन्ना एक पत्रकार होने के नाते मुझे हमेशा इस बात का हौंसला देता रहेगा कि। हे भगवान, कभी किसी अपने के खिलाफ लिखने का मौका आ जाए तो उस वक्त मेरी उंगलियां ना कांपे।
मैं ये व्यक्तिगत और बेहद पारिवारिक बात इसलिए यहां शेयर कर रहा हूं क्योंकि फेसबुक पर मैंने एनडीटीवी के रवीश कुमार के भाई पर लगे बलात्कार के आरोप पर जो लिखा उसके बाद कई लोग मुझसे सवाल पूछ रहे हैं, लेकिन मैं क्या जवाब दूं। मैं क्या करूं। बस इतना ही कहना है कि जो संस्कार मुझे मिले हैं, जो विरासत मुझे मिली है, उसी के आधार पर मैंने मन की बात कह दी थी।
रवीश को अपने भाई की ख़बर दिखानी चाहिए थी, इससे उनका कद कम नहीं होता, बल्कि दुनिया की नज़र में उनका सम्मान और बढ़ जाता और सिर्फ ख़बर दिखाने भर से रवीश के भाई दोषी तो साबित नहीं हो जाते। जांच पुलिस को और फैसला अदालत को करना है, तो फिर डर क्यों गए रवीश? चुप क्यों हो गए रवीश?
माफ करना रवीश तुम हमेशा की तरह आज भी चुप हो। चुप उस दिन भी थे जब स्क्रीन काली हुई थी। तुम चुप उस दिन भी थे जब सफेद चूना पोते चेहरे तुमने स्टूडियो मैं बैठाए थे। तुम चुप उस दिन भी थे जब “बरखा” बहार आई थी। और सुन लो दोस्त। जब भी असल मौका आता है तुम चुप हो जाते हो। आखिर तुम इतना चुप क्यों रहते हो। जबकि लोग कहते हैं कि तुम बहुत बोलते हो। क्या तुम सहलूयित देखकर बोलते हो। बहुत बोलते हो। लेकिन याद रखना अब तुम्हारे बोलों में सिर्फ शोर होगा। सच्चाई नहीं। वही शोर। जैसा गली में एक सब्ज़ीवाला चिल्लाता है। आलू ले लो। प्याज़ ले लो। माफ करना रवीश, मेरी नज़र में आज के बाद तुम पत्रकार नहीं हो।
(लेखक एक टीवी पत्रकार हैं और प्रतिष्ठित न्यूज चैनल में कार्यरत हैं)
(साभार: प्रखर श्रीवास्तव की फेसबुक वॉल से)