‘हमारे नामी पत्रकारों को क्या हो गया ,एक कुत्ता भी नहीं भौंका..! इंदिरा गांधी ने ऐसा क्यों कहा?

userराज खन्ना

कहीं अखबार के दफ्तरों की बिजली काटी गई तो कहीं बीच में ही अखबारों का छपना रोका गया. सुबह वितरण सेंटरों से अखबारों के तमाम बंडल कब्जे में ले लिए गए. जो अखबार पाठकों के हाथों में पहुंचे , उनमें कुछ के संपादकीय कॉलम ब्लैंक थे तो कुछ काले बॉर्डर के जरिए अपनी आजादी छीने जाने का शोक गीत सुना रहे थे.

बीती रात विपक्षी नेताओं -कार्यकर्ताओं पर भारी पड़ी थी. अब प्रेस की बारी थी. वह प्रिंट मीडिया का दौर था. गुजरे कुछ महीनों के भीतर विपक्ष के आंदोलन और उसके नेताओं को अखबारों में मिलने वाली कवरेज से सरकार काफी खफा थी. असलियत में इन आंदोलनों की आंच तेज करने के लिए सरकार, अखबारों की बड़ी भूमिका मानती थी. अब उन्हें ढर्रे पर लाने की पूरी तैयारी थी. 25/26 की रात से ही इस दिशा में काम शुरू हो गया. आगे उनकी नकेल पूरी तौर पर कस दी गई.

अखबारों के पन्नो पर दुनिया के अन्य देशों का हाल मौजूद था. लेकिन इर्द -गिर्द, प्रदेश और अपने देश की खबरों के नाम पर सिर्फ इंदिरा, संजय और उनके प्रशंसकों के भाषण या फिर सरकारों का गुणगान था.

चार न्यूज एजेंसी को किया एक ‘समाचार’

प्रतिबद्ध न्यायपालिका के बाद प्रतिबद्ध प्रेस की दिशा में सरकार आगे बढ़ रही थी. न्यायपालिका की तुलना में प्रेस को दंडवत कराना सरकार के लिए काफी आसान साबित हुआ. थोड़े से पत्रकारों और प्रकाशनों के विरोध के स्वरों को गिरफ्तारियों या फिर सत्ता के संसाधनों के जरिए कुचल दिया गया. दो बड़ी समाचार एजेंसियों पी. टी.आई. और यू.एन.आई. के साथ हिंदुस्तान समाचार और समाचार भारती का विलय करके एक एजेंसी ” समाचार ” गठित कर दी गई.

इसके बोर्ड पर सरकारी नियंत्रण था. अधिकांश अखबारों की खबरों का मुख्य स्त्रोत यही एजेंसियां थीं. अब सरकारी नियंत्रण की एक ही न्यूज़ एजेंसी सत्ता के अनुकूल खबरें परोस रही थी. आल इंडिया रेडियो और उस समय सीमित पहुंच के दूरदर्शन ने सरकार और उसकी नेता इंदिरा गांधी के साथ ही संजय गांधी का गुणगान और तेज कर दिया था.

खुशवंत सिंह को भी बचने के लिए लगानी पड़ी गुहार

सत्ता विरोधी पत्रकारों पर सरकार की कोपदृष्टि तो स्वाभाविक थी लेकिन इमरजेंसी समर्थक और गांधी परिवार के बहुत खास माने जाने वाले सरदार खुशवंत सिंह को भी बचने के लिए इंदिरा गांधी से गुहार लगानी पड़ी थी. दिलचस्प है कि सरकार की नाराजगी जिस लेख के कारण पैदा हुई , वह उनके संपादन वाली पत्रिका इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया में नहीं, अपितु टाइम्स समूह की एक अन्य पत्रिका में छपा था.

खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा में इसका जिक्र किया है, “इमरजेंसी ने सत्ताधारी लोगों में कितना अहंकार पैदा कर दिया था इसका उदाहरण मेरे दिल्ली से लौटने के कुछ दिन बाद सामने आया. राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के सम्मान में गवर्नर अली यावर जंग ने राजभवन में दोपहर भोज का आयोजन किया था. राष्ट्रपति ने इमरजेंसी के बारे में कोई आलोचनापरक लेख पढ़ा था.

उन्होंने यह मानकर कि वह ‘द इलेस्ट्रेटेड वीकली’ में छपा है,मुझसे दिल्लगी के लहजे में पूछा,’ क्या इरादा है तुम्हारा ? क्या तुम्हें इमरजेंसी के बारे में नहीं बताया गया ? मैंने अपनी अनभिज्ञता प्रकट की. मेरी समझ में नहीं आया कि आखिर वे क्या कह रहे हैं? महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एस. बी. चव्हाण जो राष्ट्रपति के बगल बैठे थे , उनकी भी यही स्थिति थी. फिर भी,बिना तथ्यों की जांच के उन्होंने द इलेस्ट्रेटेड वीकली के विरुद्ध कार्रवाई का आदेश दे दिया. मैं जब दफ्तर लौटा तो मुझे एक आदेश पकड़ा दिया गया जिसके अनुसार प्रकाशन से काफी पहले हर चित्र और लेख को सेंसर को भेजना जरूरी था.

मैंने श्रीमती इंदिरा गांधी को फोन मिलाया. उनके प्रेस सलाहकार शारदा प्रसाद से बात हुई. श्रीमती गांधी उस उसी शाम मास्को जाने वाली थीं. शारदा प्रसाद ने वह नाराज करने वाला लेख ढूँढ़ लिया था. वह ‘ फेमिना ‘ में छपा था. राष्ट्रपति ने स्वीकार किया कि उन्होंने विवेकहीनता का परिचय दिया था. ”

कुछ ने अंधेरे में उम्मीदों के दिए जलाए रखे !

बेशक प्रेस के अधिकांश हिस्से ने सरकारी दमनचक्र या फिर प्रलोभनों के आगे घुटने टेक दिए और लेकिन लड़ने वालों ने उस अंधेरे के बीच भी उम्मीदों के दिए जलाए रखे. इमरजेंसी के दौरान 253 पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया. इनमें 110 को मीसा,110 को डीआईआर और 33 को अन्य संगीन दफाओं में जेल में रखा गया. 51 विदेशी पत्रकारों की मान्यता रद्द की गई.

29 का भारत में प्रवेश प्रतिबंधित किया गया और सात को देश से बाहर निकाल दिया गया , जिसमे बीबीसी के मार्क टली भी शामिल थे. इंडियन एक्सप्रेस , स्टेट्समैन जैसे दो मशहूर अखबारों ने भरसक अपनी लड़ाई जारी रखी. कुछ छोटे अखबारों और पत्रिकाओं ने आजादी से समझौते की जगह अपना प्रकाशन बंद करके विरोध व्यक्त किया.

कार्टून की चर्चित पत्रिका ” शंकर्स वीकली” भी इसी कतार में थी. केशव शंकर पिल्लई की व्यंग्य कला और उसके मारक कार्टूनों के पंडित नेहरू भी प्रशंसक थे और उन्होंने शंकर से किसी मौके पर कहा था ,” शंकर मुझे भी न छोड़ना !” नेहरू की बेटी के राज में शंकर के लिए रियायत मुमकिन नहीं थीं. अगस्त 1975 में पत्रिका का प्रकाशन बंद करते हुए लिखा ,” केवल वही लोग विनोदी भावना को विकसित कर सकते हैं, जो सभ्य व्यवहार वाले हों और जिनमें सहनशीलता भी हो. तानाशाही हास्य – व्यंग्य सहन नहीं कर सकती, क्योंकि लोग तानाशाह पर हंस सकते हैं और वे इसे सहन नहीं कर सकते.”

‘आपसे झुकने को कहा ,आप रेंगने लगे’

प्रेस सेंसरशिप का विरोध करने के लिए मशहूर पत्रकार कुलदीप नैयर ने 28 जून को पत्रकारों से दिल्ली के प्रेस क्लब में इकठ्ठा होने को कहा. नैयर के अनुसार इस अपील पर 103 पत्रकार वहां पहुंचे थे. प्रस्ताव पर 27 पत्रकार दस्तखत की हिम्मत जुटा सके थे. बाद में सूचना प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने उन्हें फोन करके बुलाया. धमकाते हुए कहा,” बहुत से लोग कह चुके हैं कि आपको गिरफ्तार कर लेना चाहिए. ” कुछ देर बाद फिर दोहराया ,”आपको गिरफ्तार किया जा सकता है.”

कुछ दिनों बाद नैयर गिरफ्तार किए गए और कई महीने जेल में बिताए. नैयर ने अपनी आत्मकथा में इस बात का अफसोस जताया है कि कुछ संपादक इमरजेंसी लागू करने के लिए इंदिरा गांधी को बधाई देने गए. और तब इंदिरा ने उन लोगों से कहा था ,”हमारे नामी पत्रकारों को क्या हो गया ? एक भी कुत्ता नहीं भौंका ..!” आगे जनता पार्टी की सरकार के सूचना -प्रसारण मंत्री ऐसे ही पत्रकारों के विषय में कहने वाले थे,” आपसे सरकार ने झुकने को कहा. आप रेंगने को तैयार हो गए.”

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