बेस्ट नहीं , ब्रेस्ट मीडिया

बेस्ट होता है सबसे बढ़िया, ब्रेस्ट औरत के स्तन को कहते हैं। हालिया, “नंगई” करने में माहिर, “टाइम्स ऑफ इंडिया” नाम के “बेस्ट” अंग्रेजी अखबार, ने “ब्रेस्ट” जर्नलिज़्म की अपनी शातिराना परम्परा को जारी रखा। बॉलीवुड की अदाकारा दीपिका पादुकोण के आंशिक स्तनों का पूरा प्रदर्शन करने की चाह में आलोचना का पात्र भी बना। लोगों ने गरियाया भी। उधर नामचीन टीवी टुडे ग्रुप की “इंडिया-टुडे” मैगज़ीन को लीजिये। साल में एक-दो बार स्त्री-पुरुष के यौन संबंधों को, ये पत्रिका, चारदीवारी से जब तक बाहर नहीं निकाल लेती, चैन नहीं मिलता। स्त्री के स्तन और स्तन के प्रति पुरुषों का आकर्षण, इस पत्रिका के “मस्त-राम” अंक के अहम बिंदू होते हैं।

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इतना ही नहीं, इस ग्रुप के “आज-तक” की वेबसाइट देख लीजिये। कुछ जगह तो, ये वेबसाइट, पॉर्न और न्यूज़ वेबसाइट का अंतर खत्म कर देने पर आमादा दिखती है। ये शर्मनाक तस्वीर देश के दो बड़े मीडिया हाउस की है। पर शर्म ? शायद ही आये। और क्यों आयेगी? पब्लिक यही तो देखना चाहती है, ये तर्क़ इन मीडिया हाउस का है। इन मीडिया हाउस के तौर-तरीकों से लगता है कि “दुर्भाग्य” से ये लोग ब्लू-फिल्म के शौक़ीन दर्शकों/ पाठकों की चाहत अभी तक पूरी नहीं कर पाये हैं।

बेस्ट और ब्रेस्ट पत्रकारिता का ये अंतर तथा-कथित बड़े मीडिया हाउस समझ नहीं पा रहे हैं या इसमें काम करने वाले स्वयंभू बड़े पत्रकार इन मीडिया मालिकों को समझा नहीं पा रहे, ये बहस का मुद्दा हो सकता है। होना भी चाहिए। क्योंकि इन दोनों ग्रुप जैसे और भी कई बड़े मीडिया हाउस हैं, जो स्त्रीलिंग का उभार बेच कर अमीर तो बन ही रहे हैं, साथ ही पत्रकारिता की ऐसी की तैसी कर रहे हैं। ये वही मीडिया हाउस हैं, जो भारत को नंगा कर बाज़ार बनाना चाहते हैं। ये वही मीडिया हाउस हैं, जो, पत्रकारिता को राजनीतिक पार्टियों की “दूसरी औरत” बना चुके हैं।

समाज में, आज भी, दूसरी औरत को सम्मान पाने के लिए बड़ी जद्दोज़हद करनी पड़ती है। यहां हालात उलट हैं। इन मीडिया हाउस की बड़ी “इज़्ज़त” है। बड़ा “प्रभाव” है। पत्रकारिता नामक संस्थान में “मस्तराम” संस्करण का बहिष्कार होना चाहिए। कौन करेगा? क्योंकि इन मीडिया हाउस का एक ही राग है कि पब्लिक, “मस्तराम” संस्करण को पढ़ती और सुनती, ज़बरदस्त तरीके से है। यानि सर्कुलेशन और टीआरपी की बल्ले-बल्ले। टीआरपी के पैमाने बताते हैं, कि, ख़ालिस समाचार-चैनल्स हमेशा निचले और सनसनी मिक्स “मस्तराम” चैनल्स ऊपरी पायदान पर रहते हैं।

अभी तक जो तस्वीर सामने आयी है, उसके मुताबिक अखबार या चैनल्स चलाने के लिए, ऐसे मैनेजर्स चाहिए होते हैं जो कहने को पत्रकार होते हैं मगर इन मीडिया हाउस का “प्रोडक्ट” बेचने की कूबत रखते हैं और नैतिक सरोकार से हज़ार गज की दूरी बनाये रखते हैं। समाचारों की गुणवत्ता बनाये रखने के लिए कई पत्रकार शाबासी के हक़दार हैं। मगर ये हक़ वो निजी स्तर पर ही अदा करते हैं। चैनल्स या अखबार को “मस्तराम” संस्करण बनने से रोकने में ये अपनी आवाज़ या पद की गरिमा, अपवाद-स्वरुप ही बुलंद किये होंगें।

कहा जाता है कि आज के दौर में ताक़तवर का विरोध करने के लिए आप को सामाजिक और आर्थिक रूप से मज़बूत होना चाहिए। जो नहीं हैं, वो तो मजबूर हैं। उनकी प्रथम ज़िम्मेदारी अपने परिवार का पालन-पोषण है। मगर जो पत्रकार करोड़ों का बैंक-बैलेंस और ख़ासा सामाजिक रूतबा हासिल किये बैठे हैं, उनकी क्या मजबूरी? पर कहते हैं कि हवस के पुजारी होशो-हवास के साथ नैतिक रूप से भी कमज़ोर होते हैं। बदकिस्मती से ऐसे ही कमज़ोर नायक, इन मीडिया हाउस के “नेता” हैं। ये नायक ऐसे नेता हैं, जो अपनी और अपने मालिक की जेब भरने के चक्कर में भारतीय पत्रकारिता को “प्लेब्वॉय” और “मस्तराम” संस्करण बनाने पर आमादा हैं। ज़ाहिर है, बेस्ट-पत्रकारिता अपने दौर को कहीं और छोड़, ब्रेस्ट-पत्रकारिता की दौड़ में तेज़ी से शामिल हो चुकी है। ख़ुदा खैर करे।

नीरज……लीक से हटकर

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