अडानी की खबर पर अपमानित किये जाने पर दिया था इस्तीफा- संपादक प्रणंजय का खुलासा
अंग्रेजी के प्रतिष्ठित खोजी संपादक प्रणंजय गुहा ठाकुरता ने खुलासा किया है कि अडानी प्रकरण पर अपमानित होने के कारण उन्होंने अपना इस्तीफा दिया था. प्रणंजय ने पहली बार बताया कि EPW पत्रिका के प्रबंधन ने उनसे इस्तीफा नहीं माँगा था पर जिस तरह का उनके साथ बुरा बर्ताव किया गया उसकी अपेक्षा इतने बुद्धिजीवी वर्ग से नहीं थी.” मैंने सेल्फ रिस्पैक्ट के चलते खुद ही इस्तीफा दे डाला. कोई भी स्वाभिमानी संपादक ऐसी परिस्थिति में और क्या कर सकता था ,” प्रणंजय ने चौंकाने वाली बात कही.
देश की जानी मानी आर्थिक और राजनैतिक विचारों की पत्रिका EPW के ट्रस्ट ने संपादक प्रणंजय गुहा ठाकुरता की कलम से उद्योगपति गौतम अडानी की कम्पनी पर लिखे खोजी लेख पर आपत्ति जताई थी. पत्रिका को चलाने वाले समीक्षा ट्रस्ट के बोर्ड में दीपक नायर से लेकर रोमिला थापर जैसी बड़ी हस्तियों के नाम शुमार हैं. ट्रस्ट का आरोप था कि प्रणंजय ने अडानी प्रकरण पर संपादक और ट्रस्ट के विश्वास भरे रिश्तों में दरार डाली. “ट्रस्ट का कहना था कि जब अडानी की खबर पर नोटिस आया तो मैंने खुद ही वकील से जवाब बनवाकर वेबसाइट पर सफाई दे डाली. मैंने उनसे कहा कि मुझसे प्रक्रिया के तौर पर गलती हुई लेकिन अडानी के लेख में मैंने कोई गलती नहीं की है.
लेकिन मीटिंग में अडानी के लेख पर कोई चर्चा नहीं हुई. चर्चा सिर्फ अडानी के नोटिस पर होती रही. बाद में उन्होंने कहा कि आप अडानी पर लिखी खबर को वेबसाइट से तुरंत हटा दें. उस वक़्त मैंने सोचा कि अब इस्तीफा दे ही देना चाहिए,’ प्रणंजय ने एक इंटरव्यू में ‘द वायर’ को बताया. प्रणंजय का कहना है कि पिछले वर्ष जब उन्हें इस प्रतिष्ठित पत्रिका का संपादक नियुक्त किया गया था तो उन्हें गर्व की अनुभूति हुई थी. ये एक ऐसी पत्रिका है जो कॉपोरेट या सरकार के विज्ञापन नहीं लेती. पत्रिका पर किसी प्रकार का दबाव नहीं होता है. लेकिन अडानी के कथित कस्टम ड्यूटी के घपले की खबर पर जब उन्हें नोटिस मिला तो पत्रिका के ट्रस्ट का उनके प्रति नजरिया बदलता दिखा. उधर जानकारों का कहना कि प्रणंजय के इस्तीफे से पत्रिका के ट्रस्ट की भूमिका विवादास्पद होने लगी है. अगर EPW जैसी पत्रिकाएं भी अडानी या सरकार के आगे दब जाएँगी तो फिर प्रेस की आज़ादी की बात कौन करेगा. ज़ाहिर तौर पर प्रणंजय के इस्तीफे के बाद लिबरल लेफ्ट से लेकर खोजी पत्रकारों तक बेचैनी बनी हुई है. संकट अब संपादक का ही नहीं है प्रकाशक और मालिक भी दबाव में फैसले लेते दिख रहे हैं.