इलेक्ट्रॉनिक चैनल के जर्नलिस्ट, पत्रकार की परिभाषा में नहीं आते !

क्या ये सच है कि स्वर्गीय कमाल खान ने अपने राजनीतिक रसूख के चलते रियायती दर पर मिलने वाले दो-दो प्लाट अपने नाम करवा लिए

तत्कालीन मुलायम सरकार के कार्यकाल में राजधानी लखनऊ के अति विशिष्ट इलाके गोमती नगर में पत्रकारों के लिए रियायती दरों पर भूखण्डों की व्यवस्था की गयी थी। भूखण्ड पंजीकरण आवंटन पुस्तिका के 3.7 कालम में स्पष्ट लिखा हुआ है कि भूखण्ड उन्हीं पत्रकारों को दिया जायेगा जो वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट 1955 के अधीन आते हैं। गौरतलब है कि इलेक्ट्राॅनिक चैनलों को इस एक्ट में शामिल नहीं किया गया है। तत्कालीन अखिलेश सरकार के कार्यकाल में इस एक्ट में संशोधन किए जाने के लिए आवाज उठायी गयी थी, लेकिन मौजूदा समय तक इस एक्ट में कोई संशोधन नहीं किया गया है। लिहाजा खबरिया चैनल में काम करने वाले पत्रकारों को पत्रकार माना ही नहीं गया है।

इन परिस्थितियों में खबरिया चैनल से जुडे़ उन सैकड़ों पत्रकारों को सरकार की तरफ से रियायती दरों पर भूखण्ड दिया जाना पूरी तरह से गैरकानूनी है। दूसरी ओर सरकारी आवास का लोभ नहीं छोड़ने के पीछे कई कारण हैं। सरकारी आवास में रहने के दौरान न तो रखरखाव का खर्चा आता है और न ही भारी-भरकम बिजली बिल आने का डर सताता है। किराया नाम मात्र का। अब प्रश्न यह उठता है कि खबरिया चैनलों में काम करने वालों ने रियायती दरों पर मिले भूखण्डों का क्या किया? इस बारे में न तो पूर्ववर्ती सरकारों ने ऐसे पत्रकारों से पूछा और न ही वर्तमान सरकार ही मीडिया की आड़ में फर्जी तरीके से लाभ लेने वाले पत्रकारों से पूछने की जहमत उठा रही है। ऐसा लगता है जैसे वर्तमान योगी सरकार भी अपने पहलू में ऐसे पत्रकारों को शरण दिए रहना चाहती है जो सरकार की कमियों को खूबियों में परिवर्तित कर आम जनता के समक्ष परोस सकेें।

राजधानी लखनऊ में कुछ पत्रकार ऐसे भी हैं जिन्होंने मीडिया के बैनर का जमकर दुरुपयोग किया। जहां जैसे मिला, खूब बटोरा। चल-अचल सम्पत्ति बटोरने में साम-दाम-दण्ड-भेद के साथ ही राजनीतिज्ञों का भी सहारा लिया। ऐसे ही पत्रकारों में एक नाम है स्वर्गीय कमाल खान का।

आय से अधिक सम्पत्ति के बारे में सरकार और विधायक-मंत्रियों सहित सांसदों से सवाल-जवाब करने वाले पत्रकार कमाल खान का असली चेहरा देखना है तो विधानसभा से मात्र कुछ किलोमीटर की दूरी तय करनी होगी। यह इलाका है राजधानी लखनऊ की तहसील मोहनलालगंज। मोहनलालगंज से मात्र दो किलोमीटर की दूरी पर हाईवे से सटा एक गांव है ‘गौरा गांव’। इस गांव में गाटा संख्या 1458 कमाल खान और उनकी पत्नी रुचि कुमार के नाम से खाते में दर्ज है। इस जमीन का क्षेत्रफल 0.9820 हेक्टेयर है। यानी लगभग तीन बीघा। इसी से सटी जमीन (गाटा संख्या 1459) भी कमाल खान और उनकी पत्नी रुचि कुमार के नाम से राजस्व के अभिलेखों में दर्ज है। इस जमीन का क्षेत्रफल 0.6960 हेक्टेयर है। दस्तावेजों के आधार पर तो यह जमीन करीब छह बीघे के आसपास है लेकिन स्थलीय पड़ताल के दौरान यह जमीन 10 बीघे से भी ज्यादा नजर आयी। यहां तक कि कमाल खान के फार्म हाउस की देखरेख करने वालों ने भी यही जानकारी दी।

स्वर्गीय कमाल खान के फार्म हाउस पर मौजूद एक व्यक्ति ने बताया कि 8 बीघे में तो सिर्फ केले की फसल लगी है। शेष खाली जमीन को मिलाकर कमाल खान के कब्जे में दस बीघा के आसपास जमीन मानी जा रही है। यदि दस्तावेजों को आधार मानकर चलें तो सिर्फ गौरा गांव में ही कमाल खान के हिस्से वाली जमीन की मौजूदा कीमत लगभग 15 से 17 करोड़ के आसपास है। कृषि भूमि के रूप में दर्ज इस जमीन पर कमाल खान का विशाल फार्म हाउस बना हुआ है जिस पर केले की खेती होती है।

कमाल खान के इस फार्म हाउस पर पूर्व कैबिनेट मंत्री शिवपाल यादव की विशेष कृपा रही है। कहा तो यहां तक जाता है कि इस जमीन को भी दिलाने में शिवपाल यादव की भूमिका प्रमुख थी। बेशकीमती जमीन का सौदा कौड़ियों के दाम पर करवाने के लिए पूर्व मंत्री ने अपने पद का भरपूर दुरुपयोग किया और कमाल खान को स्थानीय किसानों के भारी विरोध के बावजूद जमीन मुहैया करवा दी।

पूर्व कैबिनेट मंत्री शिवपाल यादव की कृपादृष्टि का अहसास गौरा गांव में घुसते ही हो जाता है। ऊबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरते हुए अचानक चमचमाती इंटरलाकिंग टाइल्स लगी समतल सड़क नजर आ जाती है।

स्थानीय ग्रामीणों से पूछते ही इशारा करके बता दिया जाता है कि चमचमाती बाउण्ड्रीवाल में जो हरे रंग के लोहे के दरवाजे लगे हैं, वही कमाल खान का फार्म हाउस है। फार्म हाउस पर केले की खेती लहलहा रही है। फार्म हाउस की देखभाल करने वाले एक व्यक्ति से मुलाकात होती है। वह बताता है कि आठ बीघे में तो सिर्फ केले की खेती होती है। शेष खाली जमीन यूं ही पड़ी है। अब प्रश्न यह उठता है कि जब राजस्व अभिलेखों में कमाल खान और उनकी पत्नी रुचि कुमार के नाम से लगभग छह बीघा जमीन है तो शेष चार बीघा जमीन किसकी है जिस पर कमाल खान केले की खेती कर रहे हैं।

इसके अतिरिक्त मोहनलालगंज तहसील के पुरसेनी गांव में भी कमाल खान और रुचि कुमार के नाम से जमीनें मौजूद हैं। दोनों पत्रकार पति-पत्नी ने अपनी जमीनों को के.ए.पी.एस. ट्रेडिंग कम्पनी प्राइवेट लिमिटेड को दे रखी है। इस कम्पनी में कमाल खान और रुचि कुमार के साथ ही एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार शरत चन्द्र प्रधान बोर्ड आफ डायरेक्टर में शामिल हैं। कम्पनी अम्बरीश अग्रवाल के नाम से है। कमाल खान, रुचि कुमार और शरत चन्द्र प्रधान का कम्पनी में कितना शेयर है? यह तो जांच का विषय हो सकता है लेकिन पत्रकारिता से रोजी-रोटी चलाने वाले कमाल खान और उनकी पत्नी रुचि कुमार के पास इतना पैसा कहां से आया जिन्होंने चंद वर्षों में ही करोड़ों की अचल सम्पत्ति खरीद ली।

स्वर्गीय कमाल खान की सम्पत्ति की जांच भी जरूरी है। राजधानी लखनऊ के कुछ वरिष्ठ पत्रकारों का दावा है कि कमाल खान की यह सम्पत्ति तो महज हाथी के दांत समान है जबकि इनके नाम से कई अन्य स्थानों में भी जमीन-जायदाद हैं। कमाल खान के अलावा सैकड़ों अन्य पत्रकारों की जमात भी प्रदेश की सरकारों की चरण वन्दना तक करती रही है। इनमें से अधिकतर पत्रकार ऐसे हैं जिन्होंने सिर्फ सरकारी लाभ लेने और अधिकारियों के बीच धौंस जमाने से लेकर ट्रांसफर-पोस्टिंग के लिए ही इस पेशे को चुना है।

खबरिया चैनलों पर बड़ी-बड़ी बहस करने वाले पत्रकार भी सरकार की चरण वन्दना करते आसानी से देखे जा सकते हैं। किसी को करोड़ों का विज्ञापन लेना है तो कोई अपने चैनल-अखबार के लिए विज्ञापन की दलाली कर रहा है। सरकारी सम्पत्ति पर कब्जा जमाने की गरज से ऐसे पत्रकार अधिकारियों के समक्ष ठीक वैसे ही गिड़गिड़ाते हैं कोई जरूरतमंद इंसान साहूकारों से कर्ज लेने के लिए गिड़गिड़ाता है। यह सारा खेल मुफ्त में नहीं खेला जाता। पत्रकार को मकान-जमीन-सरकारी आवास और मुख्यालय की प्रेस मान्यता मिल जाती है तो दूसरी ओर प्रदेश सरकार को मुफ्त का प्रचार।

जब कोर्ट ने चाबुक चलाया तो अगस्त 2016 में तत्कालीन अखिलेश सरकार के निर्देश पर राज्य सम्पत्ति विभाग ने 586 पत्रकारों, ट्रस्ट, संस्थाओं और निजी व्यक्तियों को आवंटित आवास खाली करने का नोटिस भेज दिया गया। यह नोटिस सुप्रीम कोर्ट के एक अगस्त के आदेश के मद्देनजर भेजा गया था। हालांकि कोर्ट ने अपना निर्णय एक पीआईएल के आधार पर पूर्व मुख्यमंत्रियों को आवंटित बंगलों को खाली करवाने के लिये दिया था, लेकिन राज्य सम्पत्ति विभाग ने इसी आदेश को आधार बनाकर पत्रकारों को भी नोटिस भेज दिया। इस पर राज्य सम्पत्ति विभाग कहता है कि आदेश में निजी व्यक्तियों के भी आवंटन स्वतः निरस्त करने के लिए लिखा गया है, इस वजह से पत्रकारों के मकान भी खाली कराए जाएंगे। लगभग एक वर्ष का समय बीत जाने के बावजूद किसी पत्रकार से सरकारी आवास खाली नहीं करवाया जा सका।

 

राजधानी लखनऊ के बहुतायत कथित पत्रकारों ने रियायती दरों पर मकान-भूखण्ड की सुविधा लेने के साथ ही सरकारी मकानों पर भी फर्जी दस्तावेजों के सहारे कब्जा जमा रखा है। इस बात की जानकारी राज्य सम्पत्ति विभाग को भी है लेकिन शीर्ष स्तर से आदेश न मिलने की वजह से उसके हाथ बंधे हुए हैं। राज्य सम्पत्ति विभाग के एक कर्मचारी की मानें तो ऐसे पत्रकार सत्ताधारी दल से सम्बन्ध बनाते ही इसीलिए हैं कि उन्हें सरकारी आवासों से बेदखल न किया जाए। जानकर आश्चर्य होगा कि ये सरकारी आवास भी एक वर्ष से लेकर सिर्फ तीन वर्ष के लिए ही आवंटित किए जाते हैं लेकिन इन सरकारी आवासों में दशकों से पत्रकारों का कब्जा बना हुआ है। जिन्हें राज्य सम्पत्ति विभाग समय पूरा होने के बाद भी खाली नहीं करवा पा रहा है।

विभाग के एक कर्मचारी का कहना है कि इसकी जानकारी पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव से लेकर पूर्व मुख्यमंत्री मायावती, अखिलेश यादव सहित वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भी दी जा चुकी है। हालांकि शुरुआती दौर में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने घोषणा की थी कि सरकारी आवासों का लुत्फ उठा रहे पत्रकारों से मकान खाली करवाया जायेगा, लेकिन चरण चापन करने वाले पत्रकारों ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के प्रयासों पर पानी फेर दिया। कोई उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या और दिनेश शर्मा से सिफारिश करता नजर आया तो किसी ने प्रदेश भाजपा के दूसरे दिग्गज नेताओं का दामन थामकर अपने मकान बचा लिए। अब पत्रकारों से सरकारी आवास खाली करवाने सम्बन्धी गर्जना भी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तरफ से सुनायी नहीं देती।

 

गौरतलब है कि फर्जी तरीके से सरकारी अवासों पर दशकों से अध्यासित पत्रकारों का खुलासा समस्त दस्तावेजों सहित मुख्यमंत्री सहित सम्बन्धित विभाग को पहुंचाया जा चुका है। पत्रकारों के फर्जीवाडे़ की पुष्टि सूचना विभाग भी कर चुका है, इसके बावजूद फर्जी दस्तावेजों के आधार पर सरकारी भवनों पर कुण्डली मारकर बैठे कथित पत्रकारों के खिलाफ न तो विधिसम्मत कार्रवाई की जा रही है और न ही सरकारी भवनों से कब्जा वापस लिया जा रहा है।

कानूनी पक्ष तो यही कहता है कि फर्जी हलफनामे और फर्जी दस्तावेजों के सहारे किसी सरकारी अथवा निजी सम्पत्ति को हथियाना जुर्म की श्रेणी में आता है। ऐसे लोगों के खिलाफ आईपीसी की धारा 420 के तहत कार्रवाई होनी चाहिए। इस धारा के अन्तर्गत अधिकतम सजा (जुर्माना या जुर्माने के बिना) 7 साल है।

उत्तर-प्रदेश राज्य सम्पत्ति विभाग अनुभाग-2 ने अपने सरकारी आदेश (संख्या-आर-1408/32-2-85-211/ 77टीसी) में स्पष्ट उल्लेख किया है कि यदि कोई भी आवंटी शर्तों और प्रतिबंधों को भंग करता है तो राज्य सम्पत्ति विभाग उस आवंटी का आवंटन बिना कारण बताए निरस्त कर उसे सरकारी आवास से बेदखल कर सकता है। इसके बावजूद सैकड़ों की तादाद में सरकारी बंगलों में कुण्डली मारकर बैठे पत्रकार खुलेआम नियमों की धज्जियां उड़ा रहे हैं। कई कथित पत्रकार ऐसे हैं जिनका कई महीनों से किराया बकाया होने के साथ ही भारी-भरकम बिजली का बिल भी बाकी है। चूंकि सत्ता के गलियारों से लेकर नौकरशाही तक में ऐसे पत्रकारों का बोलबाला है लिहाजा सरकार चाहकर भी नियमों के तहत इनके खिलाफ कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही।

राज्य सम्पत्ति विभाग के एक अधिकारी की मानें तो ऐसे पत्रकारों के खिलाफ कार्रवाई तभी हो सकती है जब मुख्यमंत्री चाहेंगे। राज्य सम्पत्ति विभाग के अनुसार सरकारी बंगलों पर सैकड़ों की संख्या में ऐसे पत्रकार काबिज हैं जो विभाग की नियमावली में फिट नहीं बैठते। इतना ही नहीं कुछ तो ऐसे कथित पत्रकारों को सरकारी बंगला आवंटन किया गया है जिनका पत्रकारिता से दूर-दूर का नाता नहीं है। कुछ तो ऐसे हैं जिन्होंने पत्रकारिता का पेशा त्याग दिया है फिर भी सरकारी मकानों पर कब्जा जमाए हुए हैं।

 

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