गंदा है पर धंधा है ये : लखनऊ की जितनी जनसंख्या नहीं उसके कईगुना लखनऊ के अखबारों की है प्रसार संख्या
इन अखबार कर्मियों में से ज्यादातर ने फर्जी प्रसार संख्या के आधार पर सूबे के सरकारी खजाने से विज्ञापन की शक्ल में लगभग सवा अरब से भी ज्यादा की रकम लूटी है। यदि हम बात करें यूपी की राजधानी लखनऊ की, तो और भी अधिक चौंकाने वाले आंकड़े नजर आते हैं। सूचना विभाग की निरीक्षा शाखा से गुजरकर कम्प्यूटर शाखा में दर्ज आंकड़ों के अखबारों ने अपना प्रकाशन स्थल लखनऊ दर्शा कर विज्ञापन के लिए सूचीबद्ध करा रखा है। महत्वपूर्ण पहलू यह है कि राजधानी लखनऊ की जितनी आबादी है उससे कई गुना ज्यादा तो लखनऊ से छपने वाले अखबारो की प्रसार संख्या है। यह आंकड़ा सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग में दर्ज है। मीडिया के इस फर्जीवाडे़ पर विभाग के अधिकारी और कर्मचारी भी खामोश हैं। उनकी खामोशी का रहस्य क्या है ? यह जांच का विषय हो सकता है लेकिन मीडिया के फर्जीवाड़े के फेर में सरकारी खजाने में सेंधमारी की जा रही है। अधिकतर वे अखबार सेंधमारी कर रहे हैं जो अस्तित्व में ही नहीं हैं। जो हैं भी वे महज फाइल कॉपी तक ही सीमित हैं।
यूपी की जनसंख्या से कहीं अधिक दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक पत्र-पत्रिकाओं की प्रसार संख्या
लखनऊ में ही 3000 से अधिक सूचीबद्ध अखबार
फर्जी प्रपत्रों के आधार पर प्रसार संख्या अधिक दिखाने के पीछे भी कई महत्वपूर्ण कारण मौजूद हैं। सर्वप्रथम डीएवीपी और यूपीआईडी से मिलने वाले विज्ञापन की दरों में इजाफा तो इन अखबार कर्मियों के लिए महत्वपूर्ण है ही साथ ही जिला, मण्डल और मुख्यालय से मान्यता हासिल करने और सरकारी आवास हासिल करने के लिए भी फर्जी सर्कुलेशन का खेल खेला जा रहा है।
भ्रष्टाचार की खबरों को नमक-मिर्च लगाकर परोसने वाला कथित ‘चतुर्थ स्तम्भ’ स्वयं कितना भ्रष्ट है, इसका अंदाजा उसकी फर्जी प्रसार संख्या केा देखकर सहज ही लगाया जा सकता है। यूपी की जनसंख्या से कहीं अधिक दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक पत्र-पत्रिकाओं की प्रसार संख्या है। यह चौंकाने वाला आंकड़ा सूचना एवं जनसम्पर्क निदेशालय की कम्प्यूटर शाखा में दर्ज है। 3000 हजार से भी ज्यादा अखबार सरकारी विज्ञापन की लालसा में सूचीबद्ध हैं जबकि बाजारों और घरों में गिने-चुने अखबार ही नजर आते हैं।
इन अखबार कर्मियों में से ज्यादातर ने फर्जी प्रसार संख्या के आधार पर सूबे के सरकारी खजाने से विज्ञापन की शक्ल में लगभग सवा अरब से भी ज्यादा की रकम लूटी है। यदि हम बात करें यूपी की राजधानी लखनऊ की, तो और भी अधिक चौंकाने वाले आंकड़े नजर आते हैं। सूचना विभाग की निरीक्षा शाखा से गुजरकर कम्प्यूटर शाखा में दर्ज आंकड़ों के अखबारों ने अपना प्रकाशन स्थल लखनऊ दर्शा कर विज्ञापन के लिए सूचीबद्ध करा रखा है। महत्वपूर्ण पहलू यह है कि राजधानी लखनऊ की जितनी आबादी है उससे कई गुना ज्यादा तो लखनऊ से छपने वाले अखबारो की प्रसार संख्या है। यह आंकड़ा सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग में दर्ज है। मीडिया के इस फर्जीवाडे़ पर विभाग के अधिकारी और कर्मचारी भी खामोश हैं। उनकी खामोशी का रहस्य क्या है ? यह जांच का विषय हो सकता है लेकिन मीडिया के फर्जीवाड़े के फेर में सरकारी खजाने में सेंधमारी की जा रही है। अधिकतर वे अखबार सेंधमारी कर रहे हैं जो अस्तित्व में ही नहीं हैं। जो हैं भी वे महज फाइल कॉपी तक ही सीमित हैं।
फर्जी प्रपत्रों के आधार पर प्रसार संख्या अधिक दिखाने के पीछे भी कई महत्वपूर्ण कारण मौजूद हैं। सर्वप्रथम डीएवीपी और यूपीआईडी से मिलने वाले विज्ञापन की दरों में इजाफा तो इन अखबार कर्मियों के लिए महत्वपूर्ण है ही साथ ही जिला, मण्डल और मुख्यालय से मान्यता हासिल करने और सरकारी आवास हासिल करने के लिए भी फर्जी सर्कुलेशन का खेल खेला जा रहा है।
विभाग के ही एक अधिकारी की मानें तो फर्जी प्रसार संख्या दर्शाने का खेल बिना अधिकारियों और कर्मचारियों की मिली-भगत से संभव ही नहीं है। गौरतलब है कि सूचना विभाग में अखबारों की प्रतियां नियमित जमा किए जाने का प्राविधान है। तभी उस अखबार को नियमित मानते हुए विज्ञापन और अन्य सुविधाएं प्रदान की जाती हैं। सम्बन्धित विभाग के अधिकारी और कर्मचारी भी यह बात भली-भांति जानते हैं कि कौन से अखबार कितनी संख्या में छपता है। वे चुप इसलिए रहते हैं क्योंकि अखबार कर्मियों की ओर से उन्हें नियमित सुविधा शुल्क सहित त्योहारों पर उपहार मिला करते हैं। कुछ अखबार कर्मी तो सीधे उच्चाधिकारियों से सम्पर्क साधकर अपना उल्लू सीधा करते आ रहे हैं।
इस पूरे फर्जीवाडे़ के लिए प्रमुख सचिव सूचना को भी उनकी जिम्मेदारी से अलग नहीं किया जा सकता। विभागाध्यक्ष होने के नाते प्रमुख सचिव की नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने विभाग की गलती से सरकारी खजाने को लुटने से बचाए। फिर क्यों प्रमुख सचिव ने इस मामले में चुप्पी साध रखी है? यह जांच का विषय हो सकता है। विभागीय अधिकारियों की मानें तो इस मामले की यदि सीबीआई जांच करवा ली जाए तो यूपी सरकार के खजाने से अरबों की लूट के मामले का पर्दाफाश हो सकता है। गौरतलब है कि अभी हाल ही में हाई कोर्ट ने भी फर्जी प्रसार संख्या के आधार पर सरकारी खजाना लूटने वालों के बाबत सम्बन्धित विभाग से जानकारी मांगी है लेकिन विभाग अभी तक पूरी जानकारी न्यायपालिका को उपलब्ध नहीं करा सका है। आखिर क्यों सरकारी खजाने को लूटने वाले अखबार कर्मियों को बचाया जा रहा है ? इसका जवाब सम्बन्धित विभाग के किसी भी अधिकारी के पास नहीं है।
सरकार की चमचागिरी बनी संजीवनी!
प्रदेश सरकार की चमचागिरी करने वाले अखबार फर्जी प्रसार संख्या के सहारे राजकीय कोष को लूटने वाले अखबार कर्मियों ने सरकार के कोप से बचने का अनोखा रास्ता भी ढूंढ निकाला है। सूबे में जिस किसी की सरकार हो, ये अखबार कर्मी कभी-कभार प्रकाशित होने वाले अपने अखबार में निःशुल्क सरकार की स्तुति वाला विज्ञापन छापकर सम्बन्धित विभाग के अधिकारियों के सहारे मुख्यमंत्री और पार्टी कार्यालय तक पहुंचाने में कोताही नहीं करते। चुनाव के दौरान इस तरह के विज्ञापन ऐसे अखबारों में आसानी से देखने में मिल जाते हैं। इसी आधार पर वे भविष्य में सरकार से विज्ञापन के लिए गुहार भी लगाते रहते हैं। राजनैतिक दल के लोग अब मीडिया को महज बिकाउ समझने लगे हैं। यही वजह है कि अब गंभीर से गंभीर खबरों पर कोई खास ध्यान नहीं दिया जाता। इन पत्रकारों का कहना है कि ऐसे अखबार मालिकों का बहिष्कार तो होना ही चाहिए साथ ही ऐसे संगठनों का भी विरोध होना चाहिए जो महज स्वयंहित के लिए संगठन बनाते हों।
चिराग तले अंधेरा!
युवा मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ ने यूपी की सत्ता संभालते वक्त दावा किया था कि उनका प्रदेश भ्रष्टाचार मुक्त प्रदेश होगा। शुरूआती दौर में जिस तरह से प्रयास किए गए थे उससे यह लगने लगा था कि कम से कम राजधानी लखनऊ के सरकारी विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सकता है लेकिन विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार ‘रक्तबीज’ की भांति बढ़ता ही गया है। यहां तक कि वह विभाग भी भ्रष्टाचार से अछूता नहीं रह सका है जो स्वयं मुख्यमंत्री के पोर्टफोलियो में है। यहां बात हो रही है सरकार के अति विशिष्ट विभाग सूचना एवं जनसम्पर्क निदेशालय की। गौरतलब है कि यह विभाग सरकार की योजनाओं से लेकर उसके विकास कार्यों के प्रचार-प्रसार का जिम्मा संभालता है। इस विभाग में हजारों की संख्या में तथाकथित फर्जी प्रसार संख्या वाले अखबारों की भरमार है। फर्जी प्रसार संख्या के आधार पर ही अखबारों ने यूपी के सरकारी खजाने को दीमक की तरह अन्दर से खोखला कर रहे हैं। कहा तो यही जा रहा है कि विभाग की मिली-भगत के बगैर यह
संभव नहीं है। इतनी बड़ी लूट की जानकारी विभाग के आला अधिकारियों से लेकर विभागाध्यक्ष को भी है। इसके बावजूद किसी अधिकारी/कर्मचारी अथवा फर्जी प्रसार संख्या वाले अखबारों के खिलाफ कार्रवाई न करना इस बात की पुष्टि करता है कि सरकारी खजा
ने पर तथाकथित डाका डालने वालों के साथ विभाग के कर्मचारी और अधिकारी भी शामिल हैं।