लंदन का समाचार पत्र द डेली टेलीग्राफ भी करता है खेल, पढ़िए उसी के कर्मचारी का आलेख
लंदन के समाचार पत्र द डेली टेलीग्राफ के पूर्व मुख्य राजनीतिक स्तंभकार ने एक खतरनाक आलेख लिखकर यह खुलासा किया है कि उनके इस पूर्व समाचार पत्र ने ब्रिटिश बैंक एचएसबीसी से संबंधित खबरों को जानबूझकर दबाया। एचएसबीसी बैंक अपनी स्विस गतिविधियों तथा कर वंचना और उससे जुड़ी अन्य भूमिकाओं की वजह से पहले पत्रकारों और अब पुलिस जांच के केंद्र में है। यही वजह है कि वह पिछले काफी समय से लगातार खबरों में भी बना रहा। अगर यह सच है तो एचएसबीसी ने एक प्रमुख ब्रिटिश समाचार पत्र का मुंह बंद करने की कोशिश की और इसमें कामयाब रहा।
एचएसबीसी ने ब्रिटेन के समाचार पत्रों में विज्ञापन देकर अपने बैंकिंग संबंधी अपराधों के लिए ब्रिटिश जनता से माफी मांगी है। अब यह जानना रोचक होगा कि टेलीग्राफ के पूर्व स्तंभकार के खुलासों और इन आरोपों पर उसका क्या कहना है कि उसने विज्ञापन के धन के जरिये संपादकीय विभाग को प्रभावित करने की कोशिश की। क्या भारत में भी कंपनियां ऐसी हरकतें करती हैं? आप कह सकते हैं कि हां वे करती हैं। देश के अधिकांश प्रकाशन समूह अपने अनुभव से यह जानते हैं कि देश के बड़े कारोबारी घराने अगर किसी समाचार पत्र की किसी रिपोर्ट अथवा संपादकीय टिप्पणी से आहत होते हैं तो वे उसे कालीसूची में डालने अथवा उसे दिया जाने वाला विज्ञापन रोकने में एक क्षण नहीं लगाते। अनेक राज्य सरकारें (जिन्हें प्राय: तत्कालीन मुख्यमंत्रियों के निजी साम्राज्य की तरह चलाया जाता है) भी यही करती हैं। अब तो सरकारी कंपनियों ने भी कमोबेश यही नीति अपना ली है जबकि निजी उद्यमों की मालिकों के मन के मुताबिक चलने की मनमौजी प्रवृत्ति से इतर वे अक्सर तयशुदा नियम कायदों से चलती हैं। ऐसे दबावों से निपटने का संस्थागत बचाव जाहिर तौर पर यही है कि प्रकाशन गृह में एक निष्पक्ष संपादक होना चाहिए। विज्ञापन और बिक्री विभाग के कर्मचारी काली सूची में डाले जाने का दबाव समझते हैं क्योंकि उनको बिक्री के लक्ष्य पूरे करने रहते हैं लेकिन अधिकांश संपादकों के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं होती। प्रकाशक विवाद को हल करने की कोशिश करते हैं लेकिन वे अक्सर स्वतंत्र संपादक से यह कहने में हिचकिचाते हैं कि वह संपादकीय सामग्री को विज्ञापनदाता की मर्जी के मुताबिक कतरब्योंत के साथ पेश करे। अगर संपादक पत्र का मालिक भी हुआ (यह रुझान बढ़ रहा है) या फिर संपादकीय विभाग पूरी तरह प्रकाशन समूह के कारोबारी हितों के अधीन हुआ तो हालात बदल जाते हैं। टेलीग्राफ के मामले में संपादक की जगह ‘हेड ऑफ कंटेंट’ (विषय सामग्री प्रमुख) की नियुक्ति से सारा खेल हुआ। ऐसे नवाचार से भारत भी अनभिज्ञ नहीं है। कंपनियों के प्रमुख काली सूची में डालने के अपने फैसले के परिणामों के प्रति अनभिज्ञता दिखाते हैं। अगर वे संपादकीय विषयवस्तु को आधार मानकर विज्ञापन देते हैं तो वे दोनों के बीच एक ऐसा रिश्ता जोड़ते हैं जिसे कोई भी स्वाभिमानी प्रकाशक अलग-अलग रखना चाहता है। अगर प्रकाशन उसी तरह विज्ञापनदाता को जवाब देने लगे तो इसका मतलब यह होगा कि विज्ञापन न देने वाली कंपनी के खिलाफ नकारात्मक सामग्री से अखबार भर जाएगा। इसे ब्लैकमेलिंग कहा जाएगा। लेकिन प्रकाशनों को काली सूची में डालना भी एक तरह की ब्लैकमेलिंग है। तो फिर प्रकाशन समूह को ऐसा क्यों नहीं करना चाहिए? किसी प्रकाशन समूह के ऐसा न करने के पीछे सिर्फ एक ही वजह होती है और वह है उसके संपादकीय मूल्य। वे मूल्य जो निष्पक्षता और संतुलन स्थापित करना चाहते हैं। लेकिन क्या विज्ञापनदाताओं के पास ऐसा कोई मूल्य होता है?
ऐसे समय में जबकि तकनीकी बदलाव समाचार प्रकाशन समूहों के मुनाफे पर लगातार दबाव बना रहे हैं, वित्तीय दबाव को लेकर उनकी संवेदनशीलता बढ़ गई है। निश्चित तौर पर प्रकाशन समूहों ने केवल वितरण में बाजी मारने के लिए कीमतें अत्यधिक कम कर रखी हैं और इससे समस्या उत्पन्न हुई है और इस बात ने विज्ञापन के पैसे पर उनकी निर्भरता बढ़ा दी है। पिछले कुछ सालों में यह स्पष्टï हो गया है कि विज्ञापन का पैसा प्रिंट माध्यम से दूर हो रहा है तो कुछ प्रकाशनों ने अखबारी कागज और छपाई की लागत निकालने के लिए कीमतों में इजाफा किया है। अगर विज्ञापनदाता भी पैसे नहीं देंगे तो पाठकों को देने होंगे। स्पष्टï है कि पाठक को संपादकीय गुणवत्ता और स्वतंत्रता तभी मिलेगी जब वे इसके लिए धन देने को तैयार होंगे।
एचएसबीसी ने ब्रिटेन के समाचार पत्रों में विज्ञापन देकर अपने बैंकिंग संबंधी अपराधों के लिए ब्रिटिश जनता से माफी मांगी है। अब यह जानना रोचक होगा कि टेलीग्राफ के पूर्व स्तंभकार के खुलासों और इन आरोपों पर उसका क्या कहना है कि उसने विज्ञापन के धन के जरिये संपादकीय विभाग को प्रभावित करने की कोशिश की। क्या भारत में भी कंपनियां ऐसी हरकतें करती हैं? आप कह सकते हैं कि हां वे करती हैं। देश के अधिकांश प्रकाशन समूह अपने अनुभव से यह जानते हैं कि देश के बड़े कारोबारी घराने अगर किसी समाचार पत्र की किसी रिपोर्ट अथवा संपादकीय टिप्पणी से आहत होते हैं तो वे उसे कालीसूची में डालने अथवा उसे दिया जाने वाला विज्ञापन रोकने में एक क्षण नहीं लगाते। अनेक राज्य सरकारें (जिन्हें प्राय: तत्कालीन मुख्यमंत्रियों के निजी साम्राज्य की तरह चलाया जाता है) भी यही करती हैं। अब तो सरकारी कंपनियों ने भी कमोबेश यही नीति अपना ली है जबकि निजी उद्यमों की मालिकों के मन के मुताबिक चलने की मनमौजी प्रवृत्ति से इतर वे अक्सर तयशुदा नियम कायदों से चलती हैं। ऐसे दबावों से निपटने का संस्थागत बचाव जाहिर तौर पर यही है कि प्रकाशन गृह में एक निष्पक्ष संपादक होना चाहिए। विज्ञापन और बिक्री विभाग के कर्मचारी काली सूची में डाले जाने का दबाव समझते हैं क्योंकि उनको बिक्री के लक्ष्य पूरे करने रहते हैं लेकिन अधिकांश संपादकों के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं होती। प्रकाशक विवाद को हल करने की कोशिश करते हैं लेकिन वे अक्सर स्वतंत्र संपादक से यह कहने में हिचकिचाते हैं कि वह संपादकीय सामग्री को विज्ञापनदाता की मर्जी के मुताबिक कतरब्योंत के साथ पेश करे। अगर संपादक पत्र का मालिक भी हुआ (यह रुझान बढ़ रहा है) या फिर संपादकीय विभाग पूरी तरह प्रकाशन समूह के कारोबारी हितों के अधीन हुआ तो हालात बदल जाते हैं। टेलीग्राफ के मामले में संपादक की जगह ‘हेड ऑफ कंटेंट’ (विषय सामग्री प्रमुख) की नियुक्ति से सारा खेल हुआ। ऐसे नवाचार से भारत भी अनभिज्ञ नहीं है। कंपनियों के प्रमुख काली सूची में डालने के अपने फैसले के परिणामों के प्रति अनभिज्ञता दिखाते हैं। अगर वे संपादकीय विषयवस्तु को आधार मानकर विज्ञापन देते हैं तो वे दोनों के बीच एक ऐसा रिश्ता जोड़ते हैं जिसे कोई भी स्वाभिमानी प्रकाशक अलग-अलग रखना चाहता है। अगर प्रकाशन उसी तरह विज्ञापनदाता को जवाब देने लगे तो इसका मतलब यह होगा कि विज्ञापन न देने वाली कंपनी के खिलाफ नकारात्मक सामग्री से अखबार भर जाएगा। इसे ब्लैकमेलिंग कहा जाएगा। लेकिन प्रकाशनों को काली सूची में डालना भी एक तरह की ब्लैकमेलिंग है। तो फिर प्रकाशन समूह को ऐसा क्यों नहीं करना चाहिए? किसी प्रकाशन समूह के ऐसा न करने के पीछे सिर्फ एक ही वजह होती है और वह है उसके संपादकीय मूल्य। वे मूल्य जो निष्पक्षता और संतुलन स्थापित करना चाहते हैं। लेकिन क्या विज्ञापनदाताओं के पास ऐसा कोई मूल्य होता है?
ऐसे समय में जबकि तकनीकी बदलाव समाचार प्रकाशन समूहों के मुनाफे पर लगातार दबाव बना रहे हैं, वित्तीय दबाव को लेकर उनकी संवेदनशीलता बढ़ गई है। निश्चित तौर पर प्रकाशन समूहों ने केवल वितरण में बाजी मारने के लिए कीमतें अत्यधिक कम कर रखी हैं और इससे समस्या उत्पन्न हुई है और इस बात ने विज्ञापन के पैसे पर उनकी निर्भरता बढ़ा दी है। पिछले कुछ सालों में यह स्पष्टï हो गया है कि विज्ञापन का पैसा प्रिंट माध्यम से दूर हो रहा है तो कुछ प्रकाशनों ने अखबारी कागज और छपाई की लागत निकालने के लिए कीमतों में इजाफा किया है। अगर विज्ञापनदाता भी पैसे नहीं देंगे तो पाठकों को देने होंगे। स्पष्टï है कि पाठक को संपादकीय गुणवत्ता और स्वतंत्रता तभी मिलेगी जब वे इसके लिए धन देने को तैयार होंगे।
टी. एन. नाइनन
यह आलेख बीएस से साभार है
यह आलेख बीएस से साभार है
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