दैनिक जागरण, भास्कर, अमर उजाला आदि के रैकेटियर फिल्म पत्रकारों की समीक्षाओं से रहें सावधान
…मुंबई के एक बड़े बुजुर्ग फिल्म पत्रकार के नेतृत्व में इन अखबारों के फिल्म पत्रकारों ने गैंग बनाकर अनारकली आफ आरा के फर्स्ट डे कलेक्शन को दस लाख रुपये की जगह न सिर्फ दस करोड़ छापा बल्कि फिल्म की तारीफ में झूठी समीक्षाएं छापी और ज्यादा से ज्यादा स्टार भी दिए…
Ashwini Kumar Srivastava : अनारकली ऑफ़ आरा अच्छी फिल्म है या सतही… इसका तो मुझे जरा भी अंदाज नहीं है क्योंकि मैंने यह फिल्म अभी देखी ही नहीं है। लेकिन इस फिल्म से मुझे फिल्म जगत और मीडिया जगत में गुटबाजी की एक नयी तसवीर जरूर पता चली है। ऐसी गुटबाजी, जिसमें फिल्म पत्रकार किसी फिल्म को हिट या फ्लॉप कराने की सुपारी ही ले लेते हैं। अविनाश के लिए जिस तरह से दैनिक जागरण, नई दुनिया, भास्कर और अमर उजाला के फिल्म पत्रकारों ने एकदम खुलकर बेहतरीन समीक्षाओं, रिलीज के पहले ही दिन अनुष्का शर्मा की फिल्लौरी फिल्म से भी ज्यादा और अपनी लागत के तीन गुना बॉक्स ऑफिस कलेक्शन की झूठी ख़बरें छापकर, फेसबुक पर बाकायदा ‘मुझे देखनी है अनारकली ऑफ़ आरा’ ग्रुप बनाकर, सोशल मीडिया पर अभियान छेड़कर और स्पेशल स्क्रीनिंग आदि में लोगों को अविनाश की तरफ से बुलाने की मुहिम चलाकर इस फिल्म और अविनाश को बॉलीवुड का चमकता सितारा बनाने की असफल कोशिश की है, उससे इन फिल्म पत्रकारों की कलई ही खुल गयी है।
अनारकली के जरिये आज हम सभी को यह पता चल गया कि ये फिल्म पत्रकार किस तरह अपना ईमान बेचकर झूठी समीक्षाएं या बॉक्स ऑफिस कलेक्शन की रिपोर्ट तैयार करते हैं… अविनाश के मामले में भले ही ये पत्रकार यह दावा करें कि चूँकि अविनाश भी भास्कर जैसे अख़बारों में बड़े पद पर पत्रकार रह चुके हैं, इसलिए उन्होंने मित्रता निभाने के लिए यह लॉबिंग की तो भी हर कोई यह आसानी से समझ सकता है कि आपका ईमान तो ऐसे ही बिक जाता होगा, कभी दोस्ती के नाम पर, कभी गिफ्ट-पैसे, पार्टी, शराब या अन्य किसी लालच में।
अगर अविनाश आपके दोस्त हैं और आप उनकी फिल्म हिट कराने के लिए इस कदर अभियान छेड़े हुए हैं और फर्जी खबर तक लिख मार रहे हैं तो फिर आपकी किसी भी समीक्षा या रिपोर्ट पर यकीन करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि आपके फेसबुक प्रोफाइल पर तो लगभग हर निर्माता-निर्देशक या बॉलीवुड हस्ती की तस्वीरों से आपकी दोस्ती की झलक मिल रही है।
यानी आपने कभी कोई समीक्षा या कोई खबर ईमानदारी से लिखी ही नहीं। आपकी हर खबर या समीक्षा पढ़ कर उस पर यकीन करने से पहले क्या यह पाठक की ही जिम्मेदारी है कि वह यह जानकारी हासिल करे कि इस फिल्म के निर्माता-निर्देशक या हीरो से आपकी दोस्ती है या नहीं! मीडिया और सोशल मीडिया में झूठा-सच्चा यह अभियान छेड़कर आपने अविनाश से दोस्ती नहीं निभायी है बल्कि उनका नुकसान ही किया है। काश अविनाश को यह साधारण सी सच्चाई पता होती कि जिस तरह राजनीति पर लिखने वाले पत्रकार किसी नेता को मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री नहीं बना सकते, उसी तरह अविनाश के पुराने फ़िल्मी पत्रकार मित्र न तो उन्हें बॉलीवुड में एक बड़े निर्देशक के रूप में स्थापित कर सकते हैं और न ही बेहतरीन समीक्षाएं लिख कर या बॉक्स ऑफिस कलेक्शन की फर्जी रिपोर्ट तैयार करके उनकी फिल्म के लिए दर्शकों को हॉल तक बुला सकते हैं।
फ़िल्में हिट कराना या नामचीन निर्देशक बनाना इतना ही आसान होता तो बड़े बड़े बजट और भारी पब्लिसीटी, मीडिया कवरेज, बेहतरीन समीक्षाओं के बावजूद फ़िल्में यूँ फ्लॉप न हो जातीं। किसी को नहीं पता कि फिल्म हिट कराने का फार्मूला क्या है। हर बड़ा एक्टर या निर्देशक कभी न कभी सुपर फ्लॉप फिल्में दे चुका है। ये फिल्म पत्रकार अगर किसी काम के होते तो फ्लॉप फिल्मों से बर्बाद हो चुके निर्माता-निर्देशक आज इन्हीं के चरण धो धोकर पी रहे होते और नोटों में खेल भी रहे होते।
शायद अविनाश यह सोच रहे होंगे कि उन्होंने कोई मास्टरपीस बनायी है, जिसकी जानकारी कम बजट के कारण लोगों तक पहुंच नहीं पायी… वरना तो हॉल में अनारकली के दीवाने कुर्सियां भी तोड़ देते।
मुझे आज भी याद है कि जब मैं इलाहाबाद में अपनी पढ़ाई के दिनों में अपने दोस्त के साथ घूमने निकला था। टाइम पास न हो पाने के कारण हम मज़बूरी में वहीँ एक हाल में पहुंचे। वहां रामगोपाल वर्मा की ‘सत्या’ फिल्म का पहला शो शुरू होने वाला था। उर्मिला का भी तब बहुत जाना माना नाम नहीं था और फिल्म के बाकी के कलाकारों को तो कोई पहचानता भी नहीं था। इसलिए हम दोनों के अलावा गिनती के 10-15 लोग और थे हॉल में। हम दोनों ने टिकट ले लिया और यह कहकर अंदर घुसे कि यार थोड़ी देर टांग फैलाकर सो लेंगे, फिर इंटरवल में हॉस्टल लौट चलेंगे।
…मगर हम दोनों ने फिल्म के पहले ही दृश्य के बाद आपस में एक शब्द बात तक नहीं की। बस टकटकी बांधे देखते रहे। इंटरवल में भी हम जल्दी से टॉयलेट होकर सीट पर आ गए कि कोई सीन न छूट जाए। फिल्म ख़त्म हुई तो कल्लू मामा, भीखू म्हात्रे भी हमारे साथ हमारे दिमाग में ही हॉस्टल लौटे। फिर हमने कई बार वह मूवी हाल में जाकर देखी। फिर हर बार हमें हाल हाउस फुल मिला। यानी दर्शक जान चुके थे, बिना किसी रैकेटियर पत्रकार के बताये हुए ही, कि फिल्म कैसी है।
अगर रैकेटियर पत्रकार ही फिल्म चलाते या फ्लॉप करवाते हैं तो फिर सत्या के अंजान सितारों की तुलना में उसी महान निर्माता- निर्देशक राम गोपाल वर्मा को अमिताभ जैसे महानायक के साथ ‘आग’ मूवी को महज एक हफ्ते में ही समेट कर शर्मिंदा क्यों होना पड़ा था? अविनाश जी मेरी सलाह आपको यह है कि मीडिया अगर आप छोड़ चुके हैं तो फर्जी खबरों के दम पर दिखने वाली उसकी फर्जी ताकत का भ्रम भी अपने दिमाग से निकाल दीजिये। आपके जैसे कई ऐसे नवोदित निर्माता-निर्देशक हैं फ़िल्मी दुनिया में, जिन्होंने बड़ी बड़ी कामयाबियां हासिल की हैं, बिना किसी रैकेट और बिना अथाह धन के। हाल ही में आयी मराठी फिल्म सैराट भी इसका एक अच्छा उदाहरण है, जो न सिर्फ सराही गई बल्कि कमाई में 100 करोड़ के आस पास भी पहुँच गयी।
यह मीडिया नहीं है अविनाश जी, जहाँ लोग क्षेत्र या जाति के नाम पर गुटबाजी करके संपादक या बड़े पत्रकार बन जाते हों। हाँ, बॉलीवुड में शहंशाह बनने के बाद जरूर बड़े लोग गुटबाजी करने लग जाते हैं। लेकिन यह ध्यान रखिए कि बॉलीवुड में गुटबाजी का यह मीडिया जैसा सुख भोगने के लिए यहाँ पहले कामयाब हो कर दुनिया को दिखाना बहुत जरूरी है… और वह भी अपनी प्रतिभा के दम पर… दोस्ती या क्षेत्र के दम पर नहीं।
Khushdeep Sehgal यशवंत भाई, फिल्म तो जो है सो है लेकिन इसकी कमाई को 10 लाख की जगह 10 करोड़ बताना (फिल्लौरी से ढाई गुणा) और इस गलती को अभी तक ठीक नहीं किए जाने को आप क्या कहेंगे…
सन्तोष लखनवी : फिल्म तो मुझे भी अच्छी नहीं लगी. अनारकली ऑफ़ आरा में कुछ भी नया नहीं है. कुछ चापलूस टाइप पत्रकारों ने अच्छी समीक्षा की थी. मुझे लगा रिव्यू बढ़िया है तो मूवी भी बढ़िया होगी, लेकिन देखने लगा तो बर्दाश्त नहीं हो रही थी.
Sanjay Bengani : ‘अनारकली ऑफ़ आरा’ उन्ही अविनाश की फिल्म है शायद जिनके ब्लॉग पर ‘सविता भाभी’ के कोमिक किरदार को “नारी मुक्ति” का प्रतिक बताया था. यानी विशुद्ध वामा-मार्गी मुक्ति. फिल्म अनारकली ऑफ़ आरा का रिव्यु भड़ासी यशवंत सिंह की पोस्ट पर अभी पढ़ा तो विश्वास हो गया वही अविनाश दास हो सकते है. वामपंथ के सरोकार को सलाम.
Ashish Kumar Anshu : अनारकली की जो खबर सोशल मीडिया पर मिल रही थी, वह उत्साहित करने वाला था। जिसे आप जानते हों, वह अच्छा करे तो अच्छा ही लगता है लेकिन इन दिनो दो अर्थों वाले संवाद जिन फिल्म में हो उसका सेटेलाइट राइट भी कोई नहीं लेता। मतलब टेलीविजन के लिए इस फिल्म के रास्ते पहले से ही बंद थे। अविनाश की फिल्म ने पहले दिन दस लाख रुपए की कमाई की। जिसे आप डिजास्टर कह सकते हैं। अब तक का कलेक्शन 30 लाख से उपर गया है। फिल्म अविनाश ने बड़ी मेहनत से बनाई है लेकिन महिला सशक्तिकरण को दिखाने के लिए फिल्म में द्विअर्थी संवाद डालना होगा और गाली—गलौच होना ही चाहिए, यह कहां लिखा है?
Rajan Dharmesh Jaiswal : कई दिनों से देख रहा हूँ फिल्म के द्विअर्थी संवाद को लेकर कई समीक्षक बचाव की मुद्रा में हैं। समझ न आ रहा था ऐसा क्यू? आज आपकी समीक्षा पढ़ समझ आया। वैसे कहानी को फूहड़पन के साथ ही दिखाना है तो बता दूँ की C-D-E ग्रेड के निर्माता कान्ति शाह अविनाश जी पर जरूर भारी पड़ेंगे। 😉
पत्रकार अश्विनी कुमार श्रीवास्तव, खुशदीप सहगल, संतोष लखनवी, संजय बेंगानी, आशीष कुमार अंंशू, राजन धर्मेश जायसवाल की एफबी वॉल से.