कैनविज टाइम्‍स, लखनऊ कल से बंद हो रहा है

sambhudayalकैनविज टाइम्‍स, लखनऊ कल से बंद हो रहा है।आज इसके आफिस का मेरा अंतिम दिन है। दो साल 11 महीने। इस बीच एक दिन को छोड कर कभी बीमार नहीं पडा । नियमित सुबह 10 बजे के आफिस आ जाना और रात 12 बजे तक अखबार में ही रचे बसे रहना । किसी पत्रकार के लिए उसके अखबार का बंद होना कितना पीडा दायक है यह उसमें काम करने वाला ही महसूस कर सकता है । संपादक के लिए तो और भी । उसके समक्ष अपने साथी पत्रकारों – कर्मचारियों के हित संरक्षण के अलावा अखबार रूपी पौध को खडा कर छाया-फलदायक बनाने का भाव -संकल्‍प रहता है। लेकिन प्रबंधन की अब्‍यवहारिक सोच और मनमानी के आगे कोई कर ही क्‍या सकता है।
ऐसे अखबार का बंद होना और कष्‍टकारी है जो अपने प्रकाशन क्षेत्र में बडे अखबारों के बाद ठीकठाक पहचान -प्रतिष्‍ठा रखता हो। डीएवीवपी से लेकर उप्र सूचना विभाग , उप्र पावर कारपोरेशन , रेलवे वगैरह सभी प्रमुख सरकारी विभागों में विज्ञापनों के लिए सूचीबद्ध हो। बडे अखबारों की तरह पत्रकारों की मान्‍यता हो।
मैंने प्राय: तीन साल पहले यहां बडी विषम स्थितियों में संपादक के रूप में काम संभाला था । ज्‍वाइनिंग होते ही प्रबंधन के साथ कुछ मनमुटाव के चलते इसके संपादक वरिष्‍ठ पत्रकार श्री प्रभात रंजन दीन पूरे स्‍टाफ को लेकर चले गए थे। आईटी वाले और झाडू लगाने वाला तक। तालाबंदी का संदेश – चर्चायें बाजार में तैर रही थीं। प्रबंधन भी मानता था कि अब जल्‍दी अखबार का प्रकाशन संभव नहीं। मैंने इसे चुनौती के रूप में लेते हुए अगले दिन से अखबार निकाल देने को कहा । रात में ही दैनिक जागरण, अमर उजाला , हिंदुस्‍तान के अपने संपादकीय साथियों को फोन कर मदद मांगी और स्‍टाफ दिलवाने को कहा। अगले दिन से ही प्रकाशन शुरू हो गया ।
तीन मुकदमे विरासत में मिले थे। अपने स्‍तर से भागदौड कर उन्‍हें समाप्‍त कराया । सब से कठिन काम उप्र सूचना निदेशालय में सूचीबद्ध कराना था। उसमें पसीने छूट गए । कुछ समाचारों को लेकर सूचना विभाग अखबार से नाराज था और उसी ने गृह विभाग को अखबार की टाइटिल रद्द करने व जांच वगैरह की कार्रवाई को लिखा था । बाद में मैंने अपने प्रयासों से कई बार देा दो , चार चार पेज के सरकारी सूचना विभाग से विज्ञापन दिलवाये। लेकिन प्रबंधन की मनमानी के चलते सब बिखरता गया । महीनों से अखबार में एक विज्ञापन का बंदा नहीं रहा । जो केवल सरकारी विभागों से विज्ञापन लाता और बिल वगैरह देखता । रूटीन में मिलने वाले पांच छह लाख रु. के विज्ञापनी राजस्‍व का नुकसान होता रहा है।
सुधारने के बजाय प्रबंधन ने खर्चे घटाने के नाम पर छटनी का दबाव बनाना शुरू किया। वेतन देर लटकाने और टुकडों में देने का क्रम शुरू हुआ। एक दर्जन से अधिक पत्रकार और कर्मचारी उसकी भेंट चढ गए । कई सडक में आ गए। अब रही सही कसर प्रंबंधन ने अचानक इस महीने के बाद अखबार बंद किये जाने की सूचना दे दी। बिस्मित – बेहाल कर्मचारी श्रम विभाग वगैरह के चक्‍कर काटने को मजबूर हो गए। लखनऊ में वैसे मीडिया क्षेत्र में नौकरियों के बहुत कम अवसर हैं। सैकडों पत्रकार 10- 15 हजार रु. की नौकरी के लिए मारे मारे घूम रहे हैं। सरकार को इस दिशा में भी कोई ठोस नीति बनानी चाहिए ।

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