अगर गुटों में बंटे तो अस्तित्व बचाना होगा मुश्किल

एक नया धड़ा तेज़ी से उभर रहा है। वो है सोशल मीडिया पत्रकार। यू-ट्यूब, इंस्टाग्राम और फ़ेसबुक पर चैनल बनाकर लकदक गाड़ियों पर ‘चीफ एडिटर’ लिखाकर ये चलते हैं। धाक और रुतबा दोनों ठीक-ठाक। थोड़ा और आगे बढ़े तो पोर्टल बना लिया और ‘एडिटर-इन-चीफ’ बन गए। अब ख़ुद को पत्रकार बताकर ठगी कौन कर रहा है, भगवान जानें… लेकिन सभी पत्रकारों को इसका ‘डेंट’ झेलना पड़ता है। अभी दो दिनों पहले ही तीन ‘तथाकथित पत्रकार’ लखनऊ पुलिस के हत्थे चढ़े हैं। ये वसूलीबाज किसे देखकर पत्रकारिता का ककहरा सीखे। हमारे आपके बीच के लोगों ने ही इन्हें सिखाया, अब झेलिए।

बड़ा सवाल कौन करेगा पत्रकार हितों की चर्चा…

नेता, मंत्री, नौकरशाह सभी चटखारे लगाकर ले रहे मज़ा

श्यामल त्रिपाठी (एडिटर भड़ास4जर्नलिस्ट)

यह सवाल उनसे है, जो सवाल खड़ा करते हैं? यह प्रश्न उनसे है जो प्रश्न पूछने का माद्दा रखते हैं। लेकिन आज टुकड़ों में खड़े होने के कारण हर कोई हमारे मज़े ले रहा है। सवाल हमारे बारे में पूछे जा रहे हैं। प्रश्न हमारे अस्तित्व के बारे में खड़ा किया जा रहा है। ऊपर से देखने से सब सामान्य है। लेकिन जो घट रहा है, क्या वो सही है? प्रतीकों से राजनीति चलती है तो इशारों में ही पत्रकार अपना काम कर जाता है। विचार करने पर दिल की धुकधुकी बढ़ जाती है। क्या यही वो पेशा है, जिसे लेकर बाल गंगाधर तिलक ने ‘स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है’ का नारा खड़ा किया था। हम कोई नारा तो नहीं बखेड़ा ज़रूर खड़ा कर ले रहे हैं। किसी को पत्रकार हित की चिंता है क्या? नेता सभी बनना चाहते हैं। जो हैं, वो अपने में मगन हैं। किसी को चिंता नहीं है। लोकसभा चुनाव के दौरान पत्रकारों की हत्या हुई, कितने पत्रकार नेता अपनी आवाज़ सरकार तक पहुँचाए। सरकार को छोड़िये प्रमुख सचिव गृह तक कोई गया… जवाब मिलेगा नहीं।
हम पहले से तीन टुकड़ों में बंटे हैं। एक हैं- मान्यता प्राप्त पत्रकार। यानी सरकारी मोहर चस्पाई पत्रकार। दूसरे हैं- ग़ैर मान्यता प्राप्त पत्रकार। ये पत्रकार तो हैं, लेकिन मान्यता पाने की पहुँच नहीं रखते। सम्पादक इनके नाम को मान्यता के लिए नहीं भेजता। तीसरे हैं- ख़बरों को माँजकर पाठकों तक पहुँचाने वाले डेस्क पर कार्यरत पत्रकार। ये बहुत तेज़ होते हैं। ख़बरों की समझ होती है। पाठकों की फ़िक्र होती है। शब्दों की मर्यादा भी जानते हैं। कूड़े जैसी ख़बर को ‘लीड’ बनाने का माद्दा केवल इन्हीं की कलम में होता है। लेकिन ये न तो मान्यता प्राप्त पत्रकार हैं और न ग़ैर मान्यता प्राप्त पत्रकार। ये अपने-अपने दफ़्तरों में अपने-अपने बैनर को ऊँचाई तक ले जाने वाले हैं, वहीं पड़े रहते हैं। कोई पत्रकार नेता इनकी फ़िक्र नहीं करता। कोई इनकी सुधि नहीं लेता। अंडा ठेला लगाने वाले, चाय की दुकान चलाने वाले और मोटर साइकिल-कार स्टैंड वाले ज़रूर मान्यता प्राप्त पत्रकार हैं। अब कैसे बनें, इस पर आज बहस ज़रूरी नहीं है। कभी और बता दूँगा, इसकी असल वजह।
इसके अलावा एक नया धड़ा तेज़ी से उभर रहा है। वो है सोशल मीडिया पत्रकार। यू-ट्यूब, इंस्टाग्राम और फ़ेसबुक पर चैनल बनाकर लकदक गाड़ियों पर ‘चीफ एडिटर’ लिखाकर ये चलते हैं। धाक और रुतबा दोनों ठीक-ठाक। थोड़ा और आगे बढ़े तो पोर्टल बना लिया और ‘एडिटर-इन-चीफ’ बन गए। अब ख़ुद को पत्रकार बताकर ठगी कौन कर रहा है, भगवान जानें… लेकिन सभी पत्रकारों को इसका ‘डेंट’ झेलना पड़ता है। अभी दो दिनों पहले ही तीन ‘तथाकथित पत्रकार’ लखनऊ पुलिस के हत्थे चढ़े हैं। ये वसूलीबाज किसे देखकर पत्रकारिता का ककहरा सीखे। हमारे आपके बीच के लोगों ने ही इन्हें सिखाया, अब झेलिए।
एक साथी अफ़सर से चर्चा हो रही थी। राजनीति में पतन हुआ। नेताओं की हेकड़ी तो बढ़ी, लेकिन रुतबा घट गया। अब अफ़सरशाही भी कमजोर पड़ गई है। वो जलवा, ज़लज़ला नहीं रहा। तभी एक अन्य अफ़सर ने कहा- ‘सबसे ज़्यादा पतन लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ’ का हुआ है। दबी जुबां से ही स्वीकार करना पड़ा। हाँ, पतन हुआ है। आदि गुरु नारद की शुरू की गई परम्परा को गणेश शंकर विद्यार्थी, लोकमान्य तिलक, अटल बिहारी वाजपेयी और प्रभास जोशी जैसे लोगों ने इसे आगे बढ़ाया। उसके पतन का ज़िम्मेदार कौन है, कभी आपने सोचा। हमने सोचा। किसी भाई ने सोचा। हम केवल चुनाव की सोच रहे हैं। एक धड़ा नहीं दो धड़ों में होगा चुनाव।क्यों न हर 20 लोगों को अपना एक ग्रुप हो और उसमें 10 पदों पर चुनाव हो जाए। 10 पदाधिकारी और 10 पत्रकार। हम उसी तरह बताते फिरें कि ‘सर, मैं झमाझम टाइम्स का एडिटर-इन-चीफ फलाने बोल रहा हूं’। अब बदल जाएगा कि मान्यता प्राप्त पत्रकार समिति-17 का अध्यक्ष बोल रहा हूँ। हमारी टीम के कुछ लोग आपसे बात करने की अनुमति चाह रहे हैं। भले ही जवाब मिले की फ़लाँ महीने के तीसरे सप्ताह में आइएगा, अभी तो 6, 10 और 15 नम्बर वालों ने समय ले रखा है।
आपको मालूम है पीएमओ और देश के बड़े विभागों के सचिवों से मिलने के लिए नार्थ ईस्ट और छोटे सूबे के मुख्यमंत्रियों को भी घंटों इंतज़ार करना पड़ता था। लेकिन जबसे नेताओं के पीछे लगकर ब्यूरोक्रेसी ‘बड़ी कुर्सी’ माँगने लगी, तबसे लेकर आज तक की स्थिति को ख़ुद देखिए। कुछ उसी तरह जबसे हमारी जमात ठेका-पट्टा और टेंडर माँगने लगी, अपनी स्थिति भी देख लीजिए। वो भी एक दौर था, जब लखनऊ के एक अख़बार के सम्पादक से मिलने राज्यपाल को भी दफ़्तर आना पड़ा था। मुख्यमंत्री के बुलाने पर ब्यूरो चीफ और सम्पादक मिलने जाते थे। आज हम दिन-रात केवल सूचना विभाग के चक्कर इसलिए काट रहे हैं कि हमको भी दो पेज विज्ञापन छापने को मिल जाएँगे। इस हालात में पत्रकारों की एकजुटता नहीं हुई तो हालात कैसे होंगे ये जगज़ाहिर है। दो छोटे-छोटे वाक़या भी याद कर लीजिए। वो इसलिए क्योंकि हमारी याददाश्त बिल्कुल कमजोर पड़ चुकी है। लखनऊ विधानसभा से हमारी कुर्सी हटा दी गई। लोकसभा में हमारी एंट्री बंद हो चुकी है। कई जगहों पर केवल फ़ोटोग्राफरों की एंट्री है। कई जगहों पर लिंक से वीडियो लेने की सूचना दी जा रही है। बंटिये, खूब बंटिए… ऐसा बंटिए, जैसा भारत देश का हुआ। क्या हुआ, थोड़ा जान लीजिए।
भारत से अफ़ग़ानिस्तान बना, हिंदू, बौद्ध और जैन ख़त्म हो गए। अगड़े-पिछड़े सब ख़त्म हो गए। ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र, यादव, कुर्मी सभी ख़त्म हो गए। भारत से मालदीव बना, हिंदू, बौद्ध और जैन ख़त्म हो गए। अगड़े-पिछड़े सब ख़त्म हो गए। ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र, यादव, कुर्मी सभी ख़त्म हो गए। भारत से पाकिस्तान बना, हिंदू, बौद्ध और जैन ख़त्म हो गए। अगड़े-पिछड़े सब ख़त्म हो गए। ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र, यादव, कुर्मी सभी ख़त्म हो गए। भारत से बांग्लादेश बना, हिंदू, बौद्ध और जैन ख़त्म हो रहे हैं। अगड़े-पिछड़े सब ख़त्म हो गए। ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र, यादव, कुर्मी सभी ख़त्म हो गए। कुछ ऐसा ही हश्र पत्रकारिता का न हो, इसलिए टुकड़ों में मत बँटिए। अध्यक्ष भारत का प्रधानमंत्री नहीं हो जाएगा। सचिव गृहमंत्री जितना ताकतवर नहीं हो जाएगा। एक चुनाव कराइये, एक साथ रहिए। प्रतिस्पर्धा स्वस्थ हो और पत्रकार, पत्रकारहित तथा पत्रकारिता की चिंता हो…। जय हिंद… जय पत्रकारिता।

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