विनोद मेहता कभी इस गलतफहमी का शिकार नहीं हुए

विनोद मेहता कभी इस गलतफहमी का शिकार नहीं हुए

मधुसूदन आनंद, नई दिल्ली। अंग्रेजी पत्रकार-संपादक विनोद मेहता उन पत्रकारों में से एक थे जिनकी प्रजाति अब विलुप्ति के कगार पर है। भारत में ऐसे कई पत्रकार हुए हैं जो इस गलतफहमी में रहे हैं मानो प्रधानमंत्री के बाद वे ही देश के सबसे ज्यादा ताकतवर आदमी हों। विनोद मेहता कभी इस गलतफहमी का शिकार नहीं हुए। उन्होंने एक से बढ़कर एक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया और लगातार खोजपरक समाचार कथाएं छापकर देश के राजनैतिक-सामाजिक विमर्श को प्रभावित किया मगर कभी अपनी कुर्सी को अपने सिर पर चढ़कर बोलने नहीं दिया।
जिन्होंने आउटलुक में उनके कॉलम पढ़े होंगे, वे इस बात से परिचित होंगे कि वे अपने पालतू कुत्ते को एडिटर कहकर बुलाते थे जो एक पात्र की तरह हास्य और व्यंग्य पैदा करता था। कोई चार साल पहले जब उनकी दिलचस्प और बेहद पठनीय आत्मकथा लखनऊ ब्वॉय छपी और बेहद प्रशंसित हुई तो पता चला कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहीं कहा है कि आजकल वे भी यही किताब पढ़ रही हैं। इस खबर से विनोद मेहता प्रभावित नहीं हुए और निरपेक्ष और विनम्र ही बने रहे। यों विनोद मेहता की शुरूआती ख्याति या कुख्याति डेबोनेयर के संपादक के रूप में थी, जो प्लेब्वॉय का भारतीय संस्करण माना जाता था और जो अपनी तथाकथित बोल्ड एंड ब्यूटीफुल नंगी-अधनंगी तस्वीरों के लिए खूब जाना जाता था। इस पत्रिका में उन्होंने कायदे की पठनीय सामग्री भी दी मगर इस पत्रिका को उसकी इमेज से वे बाहर नहीं निकाल सके। एक बार उन्होंने भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का एक इंटरव्यू इस पत्रिका में छापा। अटल जी से मिलने पर जब उन्होंने उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही तो उन्होंने कहा, भाई इंटरव्यू तो ठीक है मगर तुम्हारी पत्रिका को तो तकिये के नीचे छुपाकर रखना पड़ता है। विनोद मेहता ने बाद में बताया कि उस दिन उन्होंने तय कर लिया था कि अब इस बदनाम पत्रिका में नहीं रहना है।
संडे ऑब्जर्वर निकालकर उन्होंने भारत में ब्रॉडशीट साप्ताहिक की शुरूआत की, जिसकी देखादेखी और भी ऐसे कुछ साप्ताहिक अखबार शुरू हुए। विनोद मेहता की पत्रकारिता की खूबी यह रही कि उनकी पत्र-पत्रिकाएं जितनी समृद्ध कंटेंट में रहीं, उतना ही साज-सज्जा में भी वे आकर्षक रहीं। इंडियन पोस्ट इंडिपेंडेंट और पायनियर (दिल्ली संस्करण) इसके उदाहरण हैं। विनोद मेहता को इन अखबारों को चलाने के लिए किस तरह के संघर्षों, मालिकों की तुनकमिजाजियों और साथी पत्रकारों के विघ्नसंतोषों के प्रयासों का सामना करना पड़ा, इसका विवरण उनकी आत्मकथा लखनऊ ब्वॉय में पढ़ने को मिलता है। विनोद मेहता इस सच्चाई को समझने वाले पत्रकारों में अग्रणी थे कि पत्रकार की अभिव्यक्ति की आजादी इस बात पर ज्यादा निर्भर करती है कि वह पत्र-पत्रिका व्यवसायिक रूप से कितनी सफल है। पेड न्यूज के प्रचलन और खबर, इश्तहार के बीच धुंधली होती सीमा रेखा के इस दौर में विनोद मेहता ने इस सच्चाई को अच्छी तरह से आत्मसात कर लिया था। उन्हें सर्वाधिक यश आउटलुक की उनकी पत्रकारिता के लिए मिला जहां उन्होंने अपनी पत्रिका और अपने संपादकीय फैसलों की आलोचना करने के लिए पाठको को विस्तार से जगह दी। क्रिकेट में मैच फिक्सिंग की बुराई का भंडाफोड़ करने का श्रेय आउटलुक को ही जाता है। उनका एक योगदान यह भी है कि उन्होंने आउटलुक के जरिए सतह पर दिखाई देने वाले सच को ही नहीं उसके नीचे छिपे सच को भी पूरी साफगोई के साथ उजागर किया और व्यवसायिक दबावों से समझौता न करते हुए बहुत साफ-सुथरी पत्रकारिता की। वे सौ टंच एक पेशेवर पत्रकार थे जिन्होंने कलम की आजादी का इस्तेमाल बहुत रचनात्मक तरीके से किया और अरूंधती राय जैसी सत्ता से असहमत लेखिकाओं को भी अपने यहां जगह दी जिन्हें आज कोई पत्रिका छापने की हिम्मत भी नहीं करेगी। हर विचार से टकराना फिर वह चाहे कितना भी अप्रिय और खतरनाक क्यों ना हो, सरल बात नहीं होती। आज जब धर्मनिरपेक्षता के मूल्य संकट में हैं उनकी पत्रकारिता का महत्व और भी बढ़ गया है।
विनोद मेहता टेलिविजन चैनलों पर अपने चुटीले और बेबाक विश्लेषण के लिए भी याद किए जाएंगे। उन्होंने संजय गांधी और मीनाकुमारी की जीवनी भी लिखी हैं तो मिस्टर एडिटर हाऊ क्लोज्ड आर यू टू द पीएम (श्रीमान संपादक, आप प्रधानमंत्री के कितने नजदीक हैं) और एडिटर अनप्लग्ड जैसी पुस्तकें भी, मगर उनकी आत्मकथा लखनऊ ब्वॉय ज्यादा चर्चित हुई। तीन साल की आयु में वे विभाजन के बाद भारत आए थे और उनका परिवार लखनऊ बस गया था। लखनऊ की मिलीजुली संस्कृति ने उन्हें धर्मनिरपेक्षता और उदारता के संस्कार दिये जिनका उन्होंने आजीवन पालन किया। यों वे बीए थर्ड क्लास थे, लेकिन इतनी अच्छी अंग्रेजी उन्होंने अपनी मेहनत और लगन से अर्जित की। ब्रिटेन जाकर उन्होंने फैक्ट्री तक में काम किया वहीं एक यूरोपीय युवती के साथ संबंध से उन्हें एक बेटी मिली। अपनी पुस्तक में उन्होंने इस कठिन सत्य को बड़ी साफगोई से स्वीकार किया है। गालिब, इकबाल, फैज जैसे शायरों को वे पसंद करते थे, जबकि कई अंग्रेजी कवियों की कविताएं उन्हे कंठस्थ थीं। लेकिन सीनियर कैम्ब्रिज में वे हिन्दी में फेल हो गए थे। अंग्रेजी पत्रकार प्रायः हिन्दी पत्रकारिता को हिकारत से देखते हैं, लेकिन विनोद मेहता ने हिंदी में भी आउटलुक पत्रिका निकाली। ऐसा पढ़ा-लिखा जागरूक अपने समय की धड़कनों को पहचानने वाला उदार और खुद अपने पर हंसने वाल पत्रकार आज मुश्किल से ही देखने को मिलता है।

 

(मधुसूदन आनंद वरिष्ठ पत्रकार हैं और नवभारत टाइम्स के एडिटर रह चुके हैं।) यह आलेख साभार है!

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