‘राजनीति का शौक बहुत महंगा है’… कंगना रनौत ने मजाक किया है या बयां की कड़वी सच्चाई?
कंगान रनौत के बयान में बहुत हद तक सच्चाई है. यही कारण है कि राजनीति में आम और ईमानदार लोग नहीं आ पाते हैं. राजनीति भ्रष्ट लोगों की शरण स्थली बनकर रह जाती है. अगर आप सांसद बनते हैं तो सैलरी से काम नहीं चलने वाला है. देश के विकास के पहले अपना 'विकास' जरूरी हो जाता है. इसलिए विकास कार्यों में कट मनी महत्वपूर्ण हो जाती है.
कंगना रनौत, जो एक अभिनेत्री से राजनेता बनीं, ने हाल ही में अपने एक बयान में कहा कि राजनीति एक बहुत महंगा शौक है. उनके इस बयान पर सोशल मीडिया पर खूब चठखारे लिए जा रहे हैं. आम तौर पर कंगना ने अपनी इमेज ऐसी बना ली है कि जब कभी वह कोई गंभीर बात भी करतीं हैं तो लोगों को मजाक ही लगता है. उनके इस बयान को इस रूप में लिया जा रहा है कि बॉलिवुड की यह अदाकारा अपने संसदीय क्षेत्र मंडी की जनता की सेवा से भाग रही हैं. अभी हाल में मंडी में आए आपदा के समय उनके अपने क्षेत्र से नदारद रहने को लेकर भी उनकी आलोचना हुई थी. लोग उनके बयान को इस संदर्भ में ही ले रही है कि अभिनेत्री जानबूझकर ये सब बहाने कर रही है.
पर राजनीति को बहुत ही नजदीक से जानने वाले जानते हैं कि यह इतना आसान नहीं है. कंगना ने सही कहा कि राजनीति का शौक बहुत महंगा है. शायद यही कारण रहा कि बॉलिवुड के बहुत से सितारे राजनीति में आए पर बहुत जल्दी ही विदा हो लिए. अपनी गाढ़ी कमाई को जनता पर लुटाना ज्यादा दिन अच्छा नहीं लगता है. अमिताभ बच्चन जैसे सितारे को भी राजनीति छोड़नी पड़ी थी. अमिताभ बच्चन अपने संसदीय क्षेत्र इलाहाबाद में अपने पैसे के बल पर एक मेडिकल वैन चलवाते थे. पर बाद में उन्हें भी समझ में आ गया कि यह शौक उनके लिए बहुत महंगा पड़ रहा है. एक घोटाले में तत्कालीन पीएम राजीव गांधी के साथ उनका नाम भी आया और उन्होंने तुरंत ही राजनीति की काल कोठरी से खुद को अलग करने का फैसला ले लिया. उसके बाद बहुत एक्टर आए पर कुछ एक को छोड़कर करीब सभी ने राजनीति से तौबा कर ली. शायद कंगना भी अब उसी रास्ते पर हैं.
कंगना बताती हैं कि एक सांसद के रूप में मिलने वाला वेतन (लगभग 1.24 लाख रुपये मासिक) कर्मचारियों, कार्यालय और यात्रा जैसे खर्चों के बाद केवल 50-60 हजार रुपये ही बचते हैं. कंगना का यह कहना कि राजनीति में टिकने के लिए अतिरिक्त आय का स्रोत जरूरी है, और इसे शौक के रूप में देखा जाना चाहिए. कंगान के बयान में सच्चाई है. यही कारण है कि राजनीति में आम लोग नहीं आ पाते हैं.राजनीति भ्रष्ट लोगों की शरण स्थली बनकर रह जाती है. अगर आप सांसद बनते हैं तो सैलरी के अलावा विकास कार्यों की कट मनी जरूरी हो जाती है.जो लोग कट मनी नहीं ले पाते हैं उन्हें बहुत जल्दी राजनीति से दूर होने की नौबत आ जाती है.
सांसदों को मिलने वाली सैलरी और भत्ते
2018 में सांसदों की सैलरी बढ़ोतरी के बाद सांसदों को इस समय 1 लाख रुपये मासिक वेतन मिलता है. इसके अलावा, उन्हें दैनिक भत्ता लगभग 2,000 रुपये प्रति दिन जब संसद सत्र में हो, यात्रा भत्ता, मुफ्त आवास, चिकित्सा सुविधाएं और कार्यालय खर्च के लिए अलग से राशि मिलती है.
इसके अलावा सांसद को जनता की सेवा के लिए सांसद निधि (MPLADS) मिलती है.प्रत्येक सांसद को अपने क्षेत्र के विकास के लिए प्रतिवर्ष 5 करोड़ रुपये की राशि खर्च कर सकता है. इस फंड का उपयोग जनसेवा वाले कार्यों जैसे स्कूल, सड़क, अस्पताल आदि के लिए खर्च किया जाता है. शायद इस फंड की व्यवस्था इसलिए ही की गई है कि सांसदों का पॉकेट खर्च निकलता रहे. हमारे देश में जो विकास कार्य होते हैं सबमें इंजीनियर , ठेकेदार, प्रशासन सबके लिए एक निश्चित कमीशन की रकम बंधी होती है. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने बहुत साफगोई से स्वीकार किया था कि ऊपर से चला रुपया अंतिम शख्स तक पहुंचते पहुंचते केवल पंद्रह पैसे रह जाता है. जाहिर है कि एमपीलैड फंड का भी बहुत दुरुपयोग होता है.
पर लगातार बढ़ती जागरुकता, उत्तरदायित्व और ट्रांसपेरेंसी ने इतना दबाव बना दिया है कि सांसद इसे खर्च ही नहीं करता है. क्योंकि रुपया खर्च होने पर उसका दुरुपयोग होना निश्चित है. पर बदनामी सिर्फ सांसद की होती है. देश का कोई भी सांसद चाहकर भी बिना कट मनी बांटे अपने एमपीलैड फंड से विकास कार्य नहीं करवा सकता है. यही कारण है कि आज एमपीलैड फंड का इस्तेमाल नहीं होता है. रकम आती है और वापस हो जाती है. मगर जो धुरंधर खिलाड़ी हैं वो अपने फंड का पूरा इस्तेमाल भी करते हैं और कट मनी का लाभ भी उठाते हैं. तमाम रिपोर्ट्स में यह बात सामने आई है कि औसतन, 70-90% सांसद अपने पूरे कार्यकाल में MPLADS निधि का उपयोग पूरी तरह नहीं कर पाते हैं.
2024 के लोकसभा चुनावों में, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) के अनुसार, 543 नव निर्वाचित सांसदों में से 504 (लगभग 93%) करोड़पति हैं, जिनके पास 1 करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति है.साफ है कि चुनाव लड़ना और जीतना आम लोगों के लिए नहीं है. दरअसल जो पैसा खर्च करने की हैसियत रखता है वही जनसेवा कर सकता है. अमीर सांसदों की हिस्सेदारी लगातार बढ़ रही है. 2019 में करोड़पति सांसदों की हिस्सेदारी (88%) और 2014 में (82%) के करीब थी.साफ दिख रहा है कि चुनाव दर चुनाव अमीर सांसदों की हिस्सेदारी बढती जा रही है. भाजपा के 240 सांसदों में 95% करोड़पति हैं, जबकि कांग्रेस के 99 सांसदों में 92% इस श्रेणी में आते हैं.
दरअसल जिसके पास जितना पैसा होगा वही आम लोगों की नमुदार होगा. जनता के बीच जाना और उनसे मिलते रहना, उनके लिए सुख दुख में कुछ खर्च करना , रैलियों में कार्यकर्ताओं के लिए खान पान की व्यवस्था करना, सोशल मीडिया और पीआर पर खर्च भी अब शामिल हो गया है. जाहिर है कि फिल्म एक्टर और एक्ट्रेस अपनी गाढ़ी कमाई जिसका वो टैक्स भी देते हैं को जनता के बीच ज्यादा दिन खर्च नहीं कर पाते . पैसे के लिए उन्हें फिर से अपनी दुनिया में मन लगाना होता है. जाहिर है कि दोनों काम यानि जनसेवा और फिल्मों में एक्टिंग एक साथ नहीं हो सकती है.
सांसदों को अक्सर अपने क्षेत्र में सामाजिक कार्य, जनसंपर्क, और अन्य गतिविधियों के लिए निजी खर्च करना पड़ता है. जैसे पूरे क्षेत्र में लोगों की खुशी और दुख में शामिल होना. शादी विवाह के दिनों में एक एमपी को लगातार अपने इलाके में लोगों से मिलना जुलना होता है.
करोड़ों का टिकट खरीदकर आने वाले सांसदों को चुनाव जीतने के बाद कमाने का भी दबाव
ADR (एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स) की 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, एक औसत लोकसभा उम्मीदवार का खर्च 50-100 करोड़ रुपये तक हो सकता है, जबकि आधिकारिक सीमा केवल 95 लाख रुपये है. सबसे बड़ी बात यह है कि सांसदों को कई बार टिकट के लिए खर्च करना होता है. ये कोई ढंकी छुपी बात नहीं है कि टिकट के लिए भी कई बार करोड़ों की रकम खर्च करनी होती है. इस खर्च को पूरा करने के लिए और अगली बार फिर से सांसद बन सके इसके चलते सांसदों पर धन जुटाने का दबाव रहता है. जिसके लिए वे ठेकेदारों या व्यापारियों से कट मनी मजबूर हो जाती है. या यूं कहिए बहुत से लोगों के लिए सांसद बनने का यही आकर्षण होता है.
