काश मुझे भी कोई हेमन्त दा मिल गये होते जिन्होंने डांट-फटकार कर पत्रकारिता में आने से मना कर दिया होता

पिछले कुछ दिनों से यह शेर बड़ी शिद्दत से याद आ रहा है-  ‘कभी लौट आएं तो पूछना नहीं देखना उन्हें गौर से, जिन्हें रास्ते में खबर हुई कि ये रास्ता कोई और है..’। एक कहानी भी याद आ रही है, बहुत पहले विख्यात संगीतकार हेमन्त कुमार की एक कहानी पढ़ी थी धर्मयुग में, शायद उनके निधन पर पत्रिका ने श्रद्धांजलि स्वरूप प्रकाशित की थी। कहानी का सार कुछ यूं था कि हेमन्त दा की कामवाली एक बार उनके पास अपने बेटे को लेकर आती है और उनसे अनुरोध करती है कि वे उसका गाना सुनकर उसे फिल्म नगरी में पांव जमाने के कुछ गुर बता दें। दादा उसका गाना सुनते हैं और फिर उसे फटकारते हुए भगा देते हैं। कामवाली हक्काबक्का रह जाती है, उसे भरोसा है कि उसका बेटा बहुत अच्छा नहीं तो भी ठीक-ठाक तो गाता ही है। दादा की फटकार का राज आखिर में खुलता है जब वह एक रोज यह बताते हैं कि वह नहीं चाहते थे कि उसका लड़का फिल्म नगरी के दलदल में आकर अपनी प्रतिभा और भविष्य का कबाड़ा करे। दादा आने वाले समय को देख रहे थे और नहीं चाहते थे कि कोई युवा केवल अपनी प्रतिभा के बल पर फिल्म नगरी में संगीतकार बनने के संघर्ष से गुजरे। उन्होंने देखा था कि तमाम प्रतिभाशाली लोगों के साथ फिल्म नगरी में कैसा बर्ताव हुआ है।

आज सोचता हूं कि काश मुझे भी कोई हेमन्त दा मिल गये होते जिन्होंने डांट-फटकार कर पत्रकारिता में आने से मना कर दिया होता। आज उन लोगों में शुमार तो नहीं होते-‘जिन्हें रास्ते में खबर हुई कि ये रास्ता कोई और है..’। इसी दिसम्बर माह में 24 साल पहले ‘आज’ से पत्रकारिता की शुरूआत की थी। आज इतना लम्बा समय बीतने और ‘आज’, ‘जागरण’, ‘हिन्दुस्तान’, ‘अमर उजाला’, ‘जनसंदेश टाइम्स’, ‘कल्पतरु एक्सप्रेस’ जैसे समाचार पत्रों में काम करने के बाद सोचता हूं तो लगता है कि क्या यह चुनाव सही था? इतना लम्बा वक्त बिताने के बाद दूसरे क्षेत्रों, नौकरियों में जिस प्रकार की एक आर्थिक सुरक्षा लोगों के साथ हो जाती है, क्या वह आश्वस्ति मेरे साथ है? मेरे साथ कहूं या कहूं उन सबके साथ नहीं है जो ईमानदारी से पत्रकारिता करना चाहते हैं, जिनकी रुचि अधिकारियों का दरबार लगाने या तबादलों से अधिक पेशेवर ढंग से अपना काम करने में है। अभी कुछ दिनों पहले लखनऊ के मेरे एक पत्रकार मित्र ने, जो ‘हिन्दुस्तान’ में मेरे साथ थे, फोनकर कहा कि मेरे लिए कोई नौकरी की व्यवस्था करें क्योंकि कल ही उन्हें पता चला है कि उनके अखबार में बड़े पैमाने पर छंटनी शुरू हुई है और मेरा भी उसमें नाम है। मैंने कहा कि भाई, मुझसे मत कहो, मेरे संस्थान में भी कुछ एेसा ही हाल है। जो मीडिया से जुड़ी साइटें नियमित तौर पर देखते हैं, वे जानते हैं कि किस प्रकार एक पत्रकार जो बड़ी मेहनत से आज अपना काम निपटाकर रात में घर लौटता है, उसे दूसरे दिन कार्यालय जाने पर पता चलता है कि उसके संस्थान पर ताला लग गया है या उसको निकाल दिया गया है। कहीं संस्थान बन्द हो जाते हैं, कहीं छंटनी हो जाती है, कहीं तीन-तीन महीने का वेतन बकाया कर पत्रकारों को संस्थान छोड़ने को बाध्य किया जाता है! ज्यादातर छोटे और मंझोले समाचार पत्रों के बारे में तो अक्सर ये खबरें आती हैं, बड़े संस्थानों में भी पिछले कुछ वर्षों में जो बाहर हुए हैं वे आज भी नौकरी ढूंढ रहे हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया में तो यह आम बात है!

कुछ मित्र कह सकते हैं कि ये तो बड़ी निराशाजनक और पलायनवादी बातें हैं। आखिर तमाम बड़े संस्थान अखबार निकाल रहे हैं और वहां बड़ी संख्या में पत्रकार काम कर रहे हैं। इस सम्बन्ध में मुझे एक वरिष्ठ पत्रकार,जो ‘जनसत्ता’ और ‘हिन्दुस्तान’ जैसे बड़े संस्थानों में काम कर चुके हैं, के एक वाक्य को उद्धृत करना चाहूंगा। वे अक्सर कहा करते हैं कि आज वे लोग पत्रकारिता में सर्वेसर्वा बने बैठे हैं, जिन्हें पत्रकारिता की नाक पोंछने तक की तमीज नहीं है! बनारस-लखनऊ से लेकर दिल्ली-मुम्बई तक नजर दौ़ड़ाता हूं, तो उनकी बात बार-बार याद आती है। थोड़े अपवादों को छोड़ दूं तो ज्यादातर जगहों पर एेसे लोग ही हावी दिखते हैं जो अपने संस्थान के सब एडिटर से बेहतर नहीं लिख सकते हैं लेकिन वे तय करते हैं कि उनके संस्थान में कैसे लोग काम करेंगे? वास्तव में वे पत्रकार से अधिक मैनेजर हैं। वे अपने ओहदों के कारण यदा-कदा अपने चित्रों के साथ पहले पेज से लेकर सम्पादकीय पृष्ठों तक खुद को राजेन्द्र माथुर-प्रभाष जोशी समझते हुए,उलटी-दस्त करते रहते हैं। लेकिन जैसे ही दुर्गन्ध अधिक फैलती है, वे कछुए की तरह अपनी खोल में दुबक जाते हैं। कुछ एेसे भी हैं जो ‘झूठ को अगर बार-बार बोला जाय तो वह सच मान लिया जाता है’ की तर्ज पर बार-बार छपकर यह मनवाना चाहते हैं कि वे अच्छे लेखक हैं। लखनऊ के एक दबंग सम्पादक के बारे में एक पत्रकार मित्र ने बताया था कि वे किसी शीर्षक की चर्चा में वे केवल विकल्पों में से कुछ तय कर पाते थे। मनमाफिक शीर्षक न मिलने पर वे तिलमिला उठते थे। कभी एकान्त में उन्होंने खुलासा किया था कि काश मैं भी कुछ लिख पाता तो बताता कि शीर्षक कैसा होना चाहिए! मित्रों पत्रकारिता की यात्रा में 24 वर्षों तक लगातार चलते हुए आज जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो एक द्ंवद्ंव और दुविधा में ही पाता हूं, क्या यह रास्ता कोई और है..!

(पत्रकार आलोक पराड़कर की फेसबुक वाल से।  ‘आज’, ‘जागरण’, ‘हिन्दुस्तान’, ‘अमर उजाला’ सहित कई समाचार पत्रों में काम कर चुके आलोक पराड़कर साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रकारिता में गहरी दखल रखते हैं।)

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