अति उत्साह छोड़े इलेक्ट्रॉनिक मीडिया
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आमिर खान की चर्चित फिल्म पीपली लाइव में इलेक्ट्रानिक मीडिया पर जो तीखा और व्यंगात्मक प्रहार किया गया था, कमोबेश उसी तरह की स्थिति आतंकवाद के मामले में मीडिया दिखा रहा है| पहले सिडनी और फिर पाकिस्तान के पेशावर में आर्मी स्कूल में हुए आतंकी हमलों की जितनी निंदा की जाए कम है किन्तु इन आतंकी घटनाओं के चलते देश में खौफ का माहौल बनाया जाना और देश की अति-महत्वपूर्ण जानकारियां टेलीविजन के माध्यम से दिखाना कहीं से न्यायोचित नहीं जान पड़ता|
आईबी समेत तमाम सुरक्षा एजेंसियों ने देश में बड़े पैमाने पर आतंकी घटनाओं की संभावित सूचनाओं पर आगाह किया है| फिर २६ जनवरी का दिन निकट होने से खतरा अधिक बढ़ जाता है| इन संभावित खतरों के मद्देनज़र इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का काम यह होना चाहिए था कि वह सुरक्षा एजेंसियों के साथ सामंजस्य बिठाकर जनता को जागरूक करे किन्तु ऐसा देखने में आ रहा है कि टीआरपी के चलते कुछ समाचार चैनल सुरक्षा में खामी का मुद्दा उठाकर सरकार और सुरक्षा एजेंसियों को घेरने में लगे हैं| एक प्रमुख समाचार चैनल शुक्रवार सुबह अपने विशेष कार्यक्रम में देश की सबसे बड़ी जेल तिहाड़ में सुरक्षा कितने स्तर की है, अब कितने स्तर की होने वाली है, यहां कौन-कौन से कैदी बंद हैं, इत्यादि का ब्यौरा दे रहा था| यह कितना शर्मनाक है कि ऑस्ट्रेलिया के सिडनी में बंधक संकट के दौरान वहां की मीडिया की संतुलित कवरेज और उसके बाद सोशल मीडिया पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की हुई छीछालेदर के बाद भी समाचार चैनल और उनके पत्रकार कुछ समझने को ही तैयार नहीं हैं|
याद कीजिए मुंबई में २६/११ का हमला, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की लाइव कवरेज के चलते ताज होटल में मौजूद आतंकियों को भारतीय सेना की हर हरकत की सूचना प्राप्त हो रही थी और उन्होंने उसके बाद कई बार अपनी रणनीति बदली| अभिव्यक्ति का सशक्त हस्ताक्षर बन चुका सोशल मीडिया इस मायने में पारम्परिक मीडिया से लाख गुना अच्छा साबित हो रहा है| हालांकि इससे जुड़े कुछ मुद्दों पर सरकार सहित बुद्धिजीवियों को कुछेक तकलीफें हैं किन्तु उन्हें फिलहाल नज़रअंदाज करना ही श्रेष्ठकर है| दरअसल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के समक्ष इन दिनों जिस तरह साख का संकट उत्पन्न हुआ है उसने पत्रकारिता के इस माध्यम को अंदर तक झकझोर दिया है| सोशल मीडिया की बढ़ती ताकत, प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता और वेब जर्नलिज्म की मजबूती ने दृश्य माध्यम को जमकर नुकसान पहुंचाया है| उसपर से रोज़ खुलते-बंद होते समाचार चैनलों ने भी इस माध्यम की प्रासंगिकता और भरोसे को तोडा है| अतः समाचार चैनल इन दिनों किसी भी खबर को सनसनी बनाकर पेश करने से नहीं चूक रहे| फिर जब मुद्दा आतंकी घटनाओं से जुड़ा हो तो मानो समाचार चैनलों की लॉटरी खुल गई हो| सभी के सभी देश की खामियों को उजागर करने में लगे हैं| ठीक है, आप सरकार पर, उसके काम-काज पर, उसकी नाकामयाबियों पर, उसकी अक्षमताओं पर नज़र रखिए और उन्हें जनता तक भी पहुंचाइए किन्तु देश की सुरक्षा से समझौता कर आप कौन से राष्ट्र धर्म का पालन कर रहे हैं? यदि आप अपनी कमजोरियों को दुनिया के समक्ष यूंही पेश करते रहेंगे तो दुश्मन को ही लाभ होना है|
किस संभावित स्थल पर कितनी सुरक्षा है और अब भारतीय सुरक्षा एजेंसियां क्या कदम उठाने वाली हैं की नीति अंत में देश पर ही भारी पड़ती है| देश ऐसी स्थिति का सामना कई बार कर चुका है| किसी भी घटना या संभावित खबर पर अति-उत्साहित होकर की गई रिपोर्टिंग अब बंद होना चाहिए| जिस तरह समाचार चैनल चीख-चीख कर घटना को जनता पर थोपने की कोशिश करते हैं, उससे जनता अब आजिज़ आ चुकी है और संभव है कि इसी कारण समाज में सोशल मीडिया को व्यापक तवज्जो प्राप्त हो रही है| सरकार के समक्ष मीडिया पर अंकुश लगाए जाने का मुद्दा कई बार उठाया गया है और सरकार ने हर बार लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की ताकत को मान देकर स्व-नियमन की बात कही है किन्तु लगता है कि मीडिया स्व-नियंत्रित होना ही नहीं चाहता| क्या इस तरह की स्थिति पैदा होना मीडिया, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए हितकर है कि जिस जनता के हितों की वे बात करते हैं, वह जनता ही उन्हें नकार दे| सच को सामने आना मीडिया का दायित्व होता है पर उस सच की कीमत कौन चुकाएगा? मरणासन्न होते समाचार चैनलों को यह बात जितनी जल्दी हो समझ लेना चाहिए वरना यदि देर हो गई तो यह उनके अस्तित्व का संकट भी हो सकता है।