विनोद मेहता, NDTV और चुनिंदा चुप्पियां

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जनपथ से। कल भारतीय मीडिया जगत के हिसाब से दो बड़ी अहम घटनाएं हुईं। एक, विनोद मेहता की मौत और दूसरे, एनडीटीवी का एक घंटे तक अपनी स्क्रीन को ब्लैंक रखना। दोनों पर बात होनी चाहिए। एक-एक कर के इन दोनों परिघटनाओं के मायने ज़रा तलाशे जाएं।
विनोद मेहता का जब देहान्‍त हुआ, तो कई के मुताबिक, जिन्होंने उनका स्मृतिशेष पढ़ा, वह इस पीढ़ी के अंतिम ‘अक्खड़, ईमानदार, अड़ियल, साफगो और निर्भीक संपादक’ थे। हमारी भारतीय संस्कृति में मौत के बाद किसी की बुराई करने या पंचनामा करने का चलन नहीं है, इसलिए ज़ाहिर तौर पर विनोद मेहता को भी महानता की श्रेणी में धकेल ही दिया जाएगा। बहरहाल, विनोद मेहता इस लेखक के लिए हमेशा उस वामपंथी(?) बौद्धिक बिरादरी का हिस्सा रहे, जो ‘चुनिंदा विस्‍मरण’ (सेलेक्टिव एमनेज़िया) का शिकार रहा है। इसके अलावा भी उनका व्यक्तित्व कोई शानदार नहीं रहा, और इसे पूरी शिद्दत से समझने की ज़रूरत है।
दरअसल, इस पूरी बिरादरी को ही ढंग से समझने की आवश्यकता है, जिसके विनोद केवल एक उदाहरण हैं। आज उनकी जयगाथा गाने वाले दरअसल उसी बिरादरी के सदस्य हैं, जो तरुण तेजपाल के छेड़खानी (या बलात्कार) मामले में आरोपित होने पर उनकी तरफदारी करते हैं क्योंकि वह उनकी बिरादरी से हैं। दूर क्यों जाएं, खुद विनोद मेहता ने ही अपनी किताब ‘एडिटर अनप्लग्ड’ में तेजपाल पर जिस भाषा और शैली में लिखा है, वह उनकी मानसिकता को उजागर करता है। वह बड़ी बेबाकी(?) से बताते हैं कि तरुण की पैंट की ज़िप के बारे में उनको आशंका रही थी, हालांकि किसी ने औपचारिक शिकायत नहीं की इसलिए वह उनके संस्थान में परेशानी का बायस नहीं बना। इसी किताब में आगे बढ़कर वह नौजवान पत्रकारों को यह सलाह भी दे डालते हैं कि उन्हें अपनी सेक्सुअल-फैंटेसी पूरी करने के लिए कार्यालय के बाहर रास्ते तलाशने चाहिए।
संपादक और एडिटर: पालतू कौन?
उनकी भाषा का जो स्तर है, उसे अगर यह लेखक हिंदी में लिख दे, तो वह पोर्न के दायरे में आ जाएगा। इसी तरह उनकी राजनीतिक समझ (या निष्ठा) या प्रतिबद्धता भी उस हद तक दल-विशेष या राजनीति-विशेष के विरोध में थी कि कई दफा वे हास्यास्पद हो जाते थे। खैर, वह विषय अभी नहीं है। यह लेखक बस आपको याद दिलाना चाहता है कि यह शहरी सुविधाभोगी अभिजात्‍य वामपंथी कुटुम्‍ब किस कदर अपने हिसाब से इतिहास की व्याख्या करता है, व्यक्तियों को प्रमाणपत्र देता है, लोगों का चरित्रहनन करता है और सेकुलर-कम्युनल के गणित में अपनी दुकान साधता है।
क्‍या दिसंबर 2013 की एक घटना किसी को याद है? पूर्वोत्तर की एक बाला के बलात्कार का आरोप स्वनामधन्य खुर्शीद अनवर पर लगा था, जिसके मीडिया और प्रकाश में आने के बाद एनजीओ चलाने वाले खुर्शीद ने आत्महत्या कर ली थी। उसके बाद तो वाम-बिरादरी का रोना-धोना सब को याद ही होगा। किस तरह खुर्शीद को शहीद बनाया गया, उनकी आत्महत्या को हत्या बता दिया और जावेद नकवी से लेकर ओम थानवी तक के बड़े लिक्खाड़ उस घटना की लीपापोती में जुट गए। इस लेखक ने उस वक्त भी वामियों-कौमियों के ‘सेलेक्टिव एमनेजिया’ पर सवाल उठाए थे और पूछा था कि आखिर ये मूर्द्धन्य पत्रकार ठीक उन्हीं तर्कों का इस्तेमाल क्यों कर रहे हैं, जिनके सतत विरोध में इन्होंने अपनी राजनीति की है।
भारत के बड़े पत्रकार जावेद नक़वी के लेख का शीर्षक ही था, ”रेप, लेफ्ट एंड राइट”। इसमें बलात्कार के मुद्दे को उन्होंने अपनी लच्छेदार भाषा से दाएं-बाएं ठिकाने लगाने का ही काम किया था। इस देश के बड़े पत्रकार छोटे पत्रकारों के लिए, बड़े अखबार छोटे अखबारों के लिए आखिर कौन सा आदर्श गढ़ रहे हैं, यह दिखाने के लिए उनके उक्त लेख का बस एक अनुच्छेद पर्याप्‍त होगा-
“He was a gentle soul who had waged many battles on behalf of and together with workers, peasants and women in different fields — abused Dalit women, dispossessed tribal women, raped Muslim women. He deserved to be heard at least by his fellow leftists”.
इस भाषायी उलटबांसी में दो बातें गौर करने की हैं। पहली तो यह, कि खुर्शीद ने दलित महिलाओं, आदिवासियों, मुस्लिम महिलाओं इत्यादि के लिए कुछ लड़ाई की थी, तो उनको बलात्कार का अधिकार मिल जाता है। दूसरे, ज़रा यह भी बताया जाए कि खुर्शीद के कौन से फेलो लेफ्टिस्ट थे, जो उनका साथ नहीं दे रहे हैं।
दरअसल, यह जेएनयू की ऊर्ध्वमूल खाप है, जिसका सिरा लंदन से लेकर वाया हांगकांग समूचे उपमहाद्वीप में फैला है। खाप ने तय कर लिया है कि अपने किसी सदस्य के लिए किस सीमा तक झूठ की सफेदी पोतनी है। विडंबना यह है कि हमारे समय के कुछ बचे-खुचे विश्वसनीय चेहरे भी इस खाप मानसिकता में नग्न होकर विजय के उन्माद में एक ऐसी प्रतिगामी भाषा बोले जा रहे हैं, जो शायद आज तक सिर्फ वाम खेमे में ही नहीं देखी गई थी। समय का पूरा पहिया घूम चुका है और विधाता इस प्रहसन पर अब ढंग से हंस भी नहीं पा रहा है।
यह लेखक भी जेएनयू की खदान का ही उत्पाद है और कविता से लेकर वीजू और कॉमरेड बत्तीलाल तक का दौर देख चुका है। जेएनयू में भी 89-90 तक रूस में बारिश होने पर छाता खोलने का चलन रहा है। भला हो गोर्बाचेव का कि नब्बे के बाद कई महारथियों ने अपनी लाइब्रेरी तक जला दी, तो कई पक्षाघात के भी शिकार हो गए। जेएनयू में फिलस्तीन से लेकर सीरिया तक के मसले तो निबटाए जाते हैं, लेकिन मेस के बिल या कंस्ट्रक्शन वर्कर पर कोई चर्चा नहीं होती है। हां, कभी कुछ लोगों का ‘वाइट मेन्स बर्डेन’ सिंड्रोम जागता है, तो वे कुछ बाल-मजदूरों को अक्षर-ज्ञान कराने लगते हैं। वैसे भी, डोल्‍चे-गबाना की जींस पहनकर अभय देओल जिस कौमी नेता का किरदार ”रांझना” में निभाते हैं, जेएनयू के हमारे कौमी भाई भी उस यूटोपिया से आगे नहीं निकल पाते।
जिस आलेख की लेखक चर्चा कर रहा है, उसी में जावेद, सोनी सोरी और तहलका के मामले का भी वर्णन करते हैं। तो, क्या यह मान लिया जाए कि चूंकि तहलका ने सोनी सोरी के मामले को उजागर किया, इसीलिए तरुण तेजपाल को यौन हिंसा का अधिकार मिल जाता है? उन्होंने लिखा है-
“Tehelka editor Tarun Tejpal has been put on trial for apparently molesting a junior colleague…”
तेजपाल के बारे में ”अपेरेंटली” लिखकर जावेद ने पहले ही तरुण को क्लीनचिट दे दी है। इसी तरह चूंकि जस्टिस गांगुली ने कुछेक बड़े और ऐतिहासिक फैसले दिए, तो उनको भी छेड़खानी के आरोप से बरी कर देना चाहिए और फिर खुर्शीद अनवर तो सेकुलर चैंपियन थे ही। बहरहाल, इसी सांस में अगर वह आसाराम और नारायण साईं का भी जिक्र कर देते तो उनका आलेख और भी संतुलित और सेकुलर हो जाता। जावेद नक़वी शायद उन कुछेक पढ़े-लिखे पत्रकारों में हैं जो लगातार इस देश के ”सेकुलर-कम्युनल कम्बाइन” को आड़े हाथों लेते रहे हैं। उस संदर्भ में ज़रा उनके उक्त आलेख को देखिए। राजनीति में निष्पक्ष प्रेक्षक की भूमिका से कैसे आप पार्टी में बदल जाते हैं, यह पता भी नहीं चलता. नतीजा, जिंदगी भर का सारा लिखा-पढ़ा ऐन उसी वक्त कूड़ा हो जाता है जब इसका सबसे कड़ा इम्तिहान आता है। विनोद मेहता, तरुण तेजपाल, जावेद नकवी, ओम थानवी, रवीश कुमार, अभय कुमार दुबे, बरखा दत्त, वीर सांघवी… और यह सूची अंतहीन है। ये सारे बड़े नाम ऐन परीक्षा के वक्त असफल हो गए।

ज़रा याद कीजिए राजदीप सरदेसाई का वह उन्मुक्त बयान, जब उन्होंने संसद मामले के स्टिंग को प्रसारित करने का एलान किया। फिर क्या हुआ, सबको मालूम है। उन्होंने उस स्टिंग का प्रसारण नहीं किया। आज भी वह मुल्क के नामचीन पत्रकारों में हैं। याद कीजिए राडिया टेपकांड औऱ उसमें हमारे समय की जुझारू पत्रकार बरखा दत्त की भूमिका। आज, वह पत्रकारों को बनाने की फैक्टरी लगाने चली हैं। हमें पूरी उम्मीद है, वह अपने प्रशिक्षुओं को ज़रूर वे सारे गुर सिखाएंगी, जो उन्होंने राडिया-कांड में आजमाए थे। इन सभी घटनाओं को याद दिलाने का एक ही मकसद है, वामी-कौमी प्रपंच को, दोहरेपन को उजागर करना। इनकी चुनी हुई चुप्‍पी इतनी दमदार है कि आज भी ये मीडिया की संप्रभुता और ईमानदारी का बखान करने का दुस्साहस करते हैं।
संवेदना का काला परदा
इसी क्रम में आखिरी बात, एनडीटीवी इंडिया के कल ब्लैंक हो जाने की। इससे हास्यास्पद बात तो कुछ हो ही नहीं सकती है। पहली बात, तो यह कि किसी डॉक्यूमेंट्री पर बैन, आपातकाल नहीं है कि आप उसका विरोध करने में ब्लैंक हो जाएं। मार्केंटिंग के लिए इससे भी बेहतर तरीके ढूंढे जा सकते थे, प्रणयदा। दूसरी बात यह, कि बीबीसी को हमेशा भारत की अंडरबेली ही पसंद आती है। हम केवल बलात्कार के आंकड़ो पर आ जाएं, तो 30 लाख की आबादी वाले ब्रिटेन में 80,000 से अधिक बलात्कार सालाना होते हैं, जबकि सवा अरब की आबादी वाले भारत में यह आंकड़ा 25,000 का है।इस पर कुछ वामी मित्र रिपोर्ट दर्ज न होने की दुहाई दे सकते हैं। कह सकते हैं कि भारत में तो रिपोर्ट ही दर्ज नहीं होती। मित्रों, हालात बदल चुके हैं। यदि रिपोर्ट दर्ज नहीं होती, तो यह भी पता नहीं चलता कि भारत में दलितों के साथ बलात्कार में 500 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है, पिछले दशक में। यह केवल रिपोर्ट दर्ज होने का ही परिणाम है।

बहरहाल, खुद एनडीटीवी की शुरुआती कहानियां भी विवादास्पद रही हैं। आइसीआइसीआइ बैंक से कर्ज के मामले में एनडीटीवी का बड़ा घपला जब ‘संडे गार्जियन’ में सामने आया था तो भ्रष्‍टाचार के खिलाफ रह-रह कर बोलने वाले शुचितावादी सेकुलरों की जबान पर ताला क्‍यों लग गया था? जिस दिन नियमगिरि के पहाड़ों में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर डोंगरिया कोंड आदिवासी वेदांता कंपनी के खिलाफ अपना आखिरी रेफरेंडम दे रहे थे उसी दिन आखिर प्रणयदा को अनिल अग्रवाल के साथ वेदांता का सीएसआर अभियान दिल्‍ली में लॉन्‍च करने का खयाल क्‍यों आया? टीवी देखने वाला एक आम दर्शक भी इस बात को जानता है कि कॉरपोरेट कंपनियों का सीएसआर एनडीटीवी का सबसे बड़ा धंधा है। धरती की छाती को सुखा देने वाली कोका-कोला कंपनी से लेकर रियो टिन्‍टो और टोयोटा तक जब अपना धर्मार्थ अभियान एनडीटीवी जैसी ‘पवित्र गाय’ के माध्‍यम से चलाती हों, तो आखिर 8 मार्च को ऐन महिला दिवस के अवसर पर स्‍क्रीन ब्‍लैंक रखने को हम क्‍यों न एनडीटीवी की कारोबारी बुद्धि का कोई कारनामा समझें? बैन तो पहले लग चुका था, फिर एनडीटीवी ने 6 या 7 मार्च को ऐसा क्‍यों नहीं किया?
यह बात अब खुले में है कि दुनिया भर में निर्भया कांड के बाद भारत की जो थू-थू हुई है, उसके बाद अचानक ईव एन्‍सलर नाम की एक ग्‍लोबल महिला भारत में नारी अधिकारों को लेकर सक्रिय हुई हैं। ‘वेजाइना मोनोलॉग्‍स’ नामक चर्चित नाटक की लेखिका ईव एन्‍सलर निर्भया कांड के ठीक बाद भारत आती हैं, दिल्‍ली के फिक्‍की सभागार में शहर भर की धवलकेशी अनुदानप्रेमी महिलाओं के साथ एक जलसा रखती हैं और महिला अधिकारों के नाम पर अचानक से भारत के कुछ नारीवादी संगठनों के पास महज कुछ करोड़ का फंड आ जाता है। महिला अधिकारों की बात करते हुए एनडीटीवी की झोली में कुछ लाख ही सही आ जाएं तो क्‍या उसे कोई परहेज़ होगा? इस मामले में ज्‍यादा छानबीन की जाए तो कुछ दिलचस्‍प उद्घाटन हो सकते हैं, बहरहाल…
अंग्रेजी में एक कहावत है- No one’s closet is without skeletons. जिस चैनल में बरखा दत्त और राजदीप काम कर चुके हैं, वह अगर पत्रकारिता की दुहाई दे रहा है, तो फिर दुहाई पर ही दुहाई दी जानी चाहिए। मुझे लगता है, पत्रकारिता (जो अब भारत की हिंदी में तो बची ही नहीं है) का इतिहास जब भी लिखा जाएगा, कल का दिन बड़ा तवारीखी होगा क्योंकि इस दिन एक बड़ी मूर्खता एनडीटीवी के परदे पर दुनिया के सामने आयी, तो दूसरी इस दुनिया से फानी हो गयी। मरहूम विनोद मेहता मुझे माफ़ करेंगे, लेकिन एक संपादक अपने कुत्‍ते को अगर ‘एडिटर’ कह कर पुकारता हो तो यह मेरे लिए सेलीब्रेट करने वाली बात नहीं हो सकती।

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