ये कैसी कवरेज! शो-मैन रजत शर्मा, भक्तपुर का घंटा और भूकंप

नेपाल: ये कैसी कवरेज!शो-मैन रजत शर्मा, भक्तपुर का घंटा और भूकंप
सुशील उपाध्याय। नेपाल की भूकंप त्रासदी के बहाने हिंदी टीवी चैनल वो सब कुछ दिखा रहे हैं, जो बिक सकता है या जो उनका बिजनेस बढ़ा सकता है। ये काफी सरलीकृत टिप्पणी है, लेकिन इसे गहराई से देखेंगे और आंकेंगे तो पता चलेगा कि ये बिजनेस, वैसा लोक हितैषी नहीं है, जैसा कि इसके बारे में प्रचारित किया जाता है। इस धंधे की व्यावसायिक एवं राजनीतिक मजबूरियां और सीमाएं अब उघड़ कर सामने आ रही हैं। बीते चार दिनों में चैनलों पर जो कुछ दिख रहा है, उसे संतुलित, तथ्यपरक और सूवनाप्रद कहना काफी मुश्किल है। चैनलों के भीतर से दर्शकों पर हमले जैसे हालात हैं, अपवाद संभव हैं, लेकिन मोटे तौर पर तमाम हिंदी टीवी चैनल बेहद लाउड दिख रहे हैं। उनमें से ज्यादातर आत्मश्लाघा का शिकार हैं और अपने चैनल के व्यावसायिक हितों के संरक्षण में पुरजोर ढंग से चीख रहे हैं। सनसनी के लिहाज से दूरदर्शन, लोकसभा और राज्यसभा टीवी संतुलित लगते हैं, लेकिन दूरदर्शन अब भी सरकारी भौंपू ही बना हुआ है, उसका प्रथम लक्ष्य सरकार की इमेज बनाना, मोदी की छवि को उभारना और भारत की सरकारी एजेंसियों के नेपाल में काम की तारीफ करना ही दिख रहा है। निजी चैनलों के जो बड़े रिपोर्टर इस वक्त नेपाल में हैं, वे यहां-वहां से कुछ भी उठाकर परोसने को आतुर दिख रहे हैं, जो न्यूज रूम में बैठे हैं, उनमें से कई आत्मप्रशंसा में डूबे हैं। ऐसे आत्ममुग्ध लोगों में एक नाम एनडीटीवी के अभिज्ञान का भी है। वे जिस कार्यक्रम में दिखते हैं, उसे अपने निजी अनुभव के दायरे में समेटने की सायास कोशिश करते हैं।
नेपाल में काम कर रही भारतीय एजेंसियों, खासतौर से सेना को लेकर चैनलों का रुख काफी असंतुलित है। एंकर और रिपोर्टर बार-बार कह रहे हैं-हमारी सेना, हमारे डाॅक्टर, हमारे रक्षक! जबकि, हर रिपोर्टर को पता है कि रिपोर्टिंग के वक्त उसके लिए न कोई हमारा होता है और न ही तुम्हारा! सरकारी माध्यम हमारा-हमारा चिल्लाते रहें, कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन निजी चैनल जब अपना लाभ इस हमारा के भीतर देखने लगें तो फिर सवाल उठने ही चाहिए। ये सभी को पता है कि चैनलों और समाचार माध्यमों के लोग काफी चुनौतीपूर्ण स्थितियों में काम कर रहे हैं, लेकिन इस बात को बुलेटिनों में बताने का कोई औचित्य नहीं दिखता। 28 अप्रैल को एनडीटीवी पर प्राइम टाइम में पट्टी चलती रही कि हमारी टीम बाल-बाल बची, खतरों के बीच रिपोर्टिंग कर रही है। जबकि, एबीपी न्यूज अंबाला के दंपति की उसके घर पर मोबाइल से बात करा देने भर को अपने महान कामों में गिनाता रहा। कई दिन से मेरे मन में ये सवाल था कि भूकंप की रिपोर्टिंग को लेकर चैनलों ने बुलेटिनों की जगह पर शो शुरू कर दिए हैं। मेरे इस सवाल की पुष्टि 27 अप्रैल को इंडिया टीवी की कवरेज देखकर हो गई। चैनल ने बताया-आज रात नौ बजे सबसे बड़ी त्रासदी का स्पेशल शो देखिए रजत शर्मा के साथ! यकीनन, टीवी के धंधे में त्रासदी की कवरेज भी शो ही है। और रजत शर्मा जैसे हमारे महान संपादक, उन्हीं की परंपरा के रिपोर्टर-एंकर, हर कोई शो-मैन है। 27 अप्रैल को प्राइम टाइम में ये दावा कर रहा था कि जहां अब तक कोई नहीं पहुंचा, वहां इंडिया टीवी पहुंचा है। इस चैनल पर जिस भक्तपुर इलाके की स्टोरी दिखाई जा रही थी, कुछ देर पहले उसी इलाके की तथाकथित एक्सक्लूवि स्टोरी जी न्यूज पर चल चुकी थी। जी न्यूज ने इसे भक्तपुर के मंदिर के घंटे पर केंद्रित किया हुआ था। रिपोर्टर इस बात को स्थापित करने में जुटा था कि किस प्रकार भक्तपुर मंदिर के विशाल घंटे ने भूकंप में बजना शुरू कर दिया और लोग घरों से बाहर निकल आए, जिससे उनकी जान बच गई! घंटे ने अलार्मिंग बेल का काम किया! है ना कमाल! ऐसे ही ‘घंटे’ भारतीय टीवी चैनलों में भी होंगे! चार दिन बाद भी भारत के हिंदी चैनलों को नेपाली प्रैंक्सटर्स की फुटेज के सहारे काम चलाना पड़ रहा था। 27 और 28 अप्रैल को एनडीटीवी के अलावा इंडिया ने भी नेपाली प्रैंक्सटर्स की फुटेज दिखाई। हद तो यह है कि इंडिया न्यूज ने समाचार एजेंसी एपी के हवाले से बताया कि नेपाल में 4000 लोग मारे गए हैं। दूसरे चैनलों या एजेंसियों की खबरों का उपयोग करना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन तब इन चैनलों को एक्सक्लूसिव, सबसे पहले हम, सबसे आगे हम, सबसे तेज हम, जैसे राग नहीं अलापने चाहिए और अपनी सीमाओं को ठीक प्रकार स्वीकार करना चाहिए। ज्यादातर चैनलों में बुलेटिनों के हेडिंग और टाइटल पत्रकारीय सीमाओं से परे जाकर किसी सनसनी फैलाने वाली फिल्म या किसी भावुक-नाटक के संवादों के जैसे नजर आए। मसलन, ‘आज तक’ पर ‘तेरे दुख-मेरे दुख’, इसी चैनल पर ‘त्राहिमाम-कथा’, आईबीएन7 पर ‘पत्थर का कब्रिस्तान’, ‘भक्तपुर का घंटा’, ‘तबाही की आंखों देखी’, ‘तीसरी आंख से भूकंप’, ‘पशुपतिनाथ से हारा प्रलय’, ‘किस तरह बचा पशुपतिनाथ’, ‘1700 साल पुराना रहस्य’, ‘हाहाकार में चमत्कार’। इन टाइटल्स को देखकर यही लगता है कि जैसे ये किसी चालू टाइप फिल्म के नाम हों। भाषा का प्रयोग तो और भी चिंताजनक था। न्यूज24 ने भूकंप को प्रलय बता दिया। क्या भूकंप और प्रलय में कोई अंतर नहीं ? ऐसे ही एबीपी न्यूज के एंकर ने कहा-‘भूकंप शबाब पर है’। आज तक के संपादक कंवल ने कहा, ‘नेपाल में सदियों-साल पुराने मंदिर ढह गए हैं।’ सदियों-साल का अर्थ समझ सकते हैं ? और जी न्यूज किसी कपिल मुनि को पकड़ लाया जो यह साबित करने में जुटे थे कि पशुपतिनाथ मंदिर का बचना बाबा का चमत्कार है! ऐसे कई संत अलग-अलग चैनलों पर दिख रहे थे जो धार्मिक एंगल से भूकंप को भुनाने का जरिया बने हुए थे। 28 अप्रैल की शाम को एनडीटीवी पर रवीश कुमार का कार्यक्रम देखा। इसमें सार्क भूकंप केंद्र के प्रो. संतोष कुमार, नेपाल से आए प्रो. आमोद मणि दीक्षित ने भूकंप के भौगोलिक और तकनीकी पहलुओं पर गंभीर चर्चा की। और ये स्पष्ट हुआ कि जो मंदिर बचे हैं, वे अपने इंजीनियरिंग ढांचे की वजह से बचे हैं। प्रो. दीक्षित ने तो यहां तक कहा कि काठमांडू में आशंका से काफी कम नुकसान हुआ है, क्योंकि बीते सालों में लोगों ने अपने भवनों को भूकंपसह बनाने पर ध्यान दिया था। चालू किस्म के चैनलों का तथ्यपरक बातों की बजाय सनसनी पर ध्यान है और सनसनी ‘भक्तपुर के घंटे’ में है न कि प्रो. दीक्षित के तर्काें में!

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