मालिक नहीं, असल गुनहगार संपादक हैं


हाल ही अपने मित्र की मीडिया संबंधित बेवसाइट पर जारी घमासान देख रहा था। मसला जयपुर से निकलने वाले “राजस्थान पत्रिका” के मालिक गुलाब कोठारी और उनके बेटे निहार कोठारी को गरियाने से है। वजह पत्रकारों से जुड़े मजीठिया वेज बोर्ड है, जिसकी एक मीटिंग के बाद सोशल और मीडिया बेवसाइट में पिता-पुत्र को छद्म नामों से मां-बहन करने की बाढ़ सी आ गई है। ये वही पत्रकार हैं, जो बाहर निकले तो सौ रुपए दिहाड़ी पर कोई ना पूछे।
मेरा कोई दो साल का संबंध रहा है कि राजस्थान पत्रिका से। जब युवा निहार कोठारी ने जयपुर से “न्यूज़ टुडे” निकालने की सोची और मुझे खबर भेजी। मैंने साफ कहा, “पत्रिका के दफ्तर में ना आउंगा,,मुलाकात बाहर ही होगी।” जनसत्ता के बाद इंडियन एक्सप्रेस छोड़ने के बाद मेरा क्षेत्रीय पत्रकारिता का यह पहला और अब तक का आखिरी अनुभव रहा।
मुझे उम्मीद ना थी कि निहार आएंगे.लेकिन एक वो आए और एक क्लब में हमारी मीटिंग हुई। कोई आधे घंटे की मीटिंग में निहार ने मेरी जरूरत समझनी चाही, सो सवाल मैंने ही किए। अखबार का जेसटेंशन पीरियड पूछा..यानि अखबार को मुनाफे में आने के लिए कब तक का समय रहेगा.? बतौर संपादक मेरे पास। फिर मैंने जानना चाहा कि क्या मुझे “ऑफ हैंड” काम करने दिया जाएगा..? या हस्तक्षेप रहेगा? इस पर निहार ने कहा, “झांकूंगा भी नहीं।”
बहरहाल अखबार शुरू हुआ और जिस तेजी के साथ उस अखबार ने अपनी जगह बनाई, वो उस दौर के पत्रकार बता सकते हैं या फिर वो शहर।
दो महीने के बाद यह हाल था कि मैंने कहा, “इसे मॉर्निंग कर दीजिए, मैं भास्कर और पत्रिका दोनों को पीट दूंगा।” निहार चौंके थे तो मैंने कहा, “मेरी लॉयल्टी मालिक के साथ नहीं, अपने पेशे के साथ है।” निहार का पाला शायद किसी “”उज्जड संपादक से पहली बार पढ़ा था..पर अपन प्रभाष जी की टीम से निकले “निहंग” थे सो जो कह दिया उसी पर अड़े रहे।
मुझे हैरानी हो रही है गालियों को देखकर। जाहिर है सारे पत्रकार फर्जी नामों से गरिया रहे हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि बतौर मालिक मेरा शायद ही किसी से वास्ता पड़ा हो जो संपादक को स्वतंत्रता नहीं देता। आखिर पूंजी को फंसाने वाला तो मालिक ही होता है ना..?
दिक्कत यह है कि आज जो तमाम संपादक बैठे हुए हैं, खासतौर पर राजस्थान पत्रिका या भास्कर जैसे अखबारों में, उनकी समझ और चरित्र दोनों ही औसत से भी बहुत नीचे हैं। ये ऐसे संपादक हैं, जो खाते भी मालिक की हैं और छेद भी मालिक और अखबार में करते हैं। ऐसे संपादक रोज हत्याएं करते हैं. अपनी टीम के सदस्यों का, उनके हौसलों का..उनकी रोजी का। आखिर एक पस्त, असुरक्षित टीम से कैसे कोई संपादक बड़ी जीत हासिल कर सकता है…? वाकई बहुत बुरी स्थिति में जीते हैं, हिंदी चैनल और अखबारों में काम करने वाले युवा पत्रकार। जो अभिशप्त हैं, ऐसे संपादकों के साथ काम करने के लिए, जिससे ना तो बौदि्धक नेतृत्व मिलता है और ना ही भावनात्मक आश्रय ही। आखिर इन युवाओं का कसूर क्या है…?
यह सच है कि हर उद्योग समूह के अपने हित भी होते हैं, और हर समूह उनको पूरा भी करता है..अखबार और चैनल के मालिक भी करते हैं, लेकिन ऐसे सौदे यदा कदा होते हैं।
सतह के नीचे की हकीकत यह है कि मालिक यदि एक रुपए कमाता है तो ये संपादक पत्रकारिता की साख बेचकर सौ कमाने की सोचते हैं, और ऐसा करते भी हैं।
राजस्थान पत्रिका के संपादक समूह भुवनेश जैन को ही ले लीजिए, यदि कक्षा सात के बच्चे के साथ गाय पर निबंध लिखने बैठा दीजिए तो आधे घंटे में, तीन बार छोटी अंगुली उठाकर कक्षा से बाहर जाने की इजाजत मांगेगा। ताकि बाहर निकल किसी से कुछ पूछताछ कर ले। कॉपी कोरी ना चली जाए कहीं..।
मुझे कहते हुए कोई हिचक नहीं है कि ऐसे संपादक ना तो बौदि्धक नेतृत्व करने की क्षमता रखते हैं ना ही टीम के लिए प्रेरणा बनते हैं।
शायद मेरे दौर में ही इस छोटे से अखबार ने सौ दिन में ढाई से इंपैक्ट छोड़े। आईपीएल चेयरमैन ललित मोदी के खिलाफ वारंट जारी करवाया। मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से दीन दयाल उपाध्याय के नाम पर ली गई जमीन वापस कराई, मुख्यमंत्री पर मुकदमा कराया। पुलिस महानिदेशक एके जैन को जेल भिजवाया। और मैं बेहद विनम्रता से स्वीकार करूंगा कि हूकमत के खिलाफ रोज ब रोज सैंकड़ों लाठिया फटरकारने के बावजूद निहार ने कभी मुझसे कैफियत नहीं मांगी।
ऐसा नहीं है कि राजस्थान में भ्रष्टाचार नहीं है. आज भी हैं और कल गहलोत के वक्त भी हुए। पर राजस्थान क्या करे..? मालिक तो हैं, पर संपादक नहीं है। और संपादक ऐसे हैं कि मालिक कहे थोड़ा झुक कर चलो तो ये “लंबलेट” कर पस्त हो जाते हैं। बेहद दोयम दर्जे के संपादकों की गिरफ्त में है मीडिया फिलवक्त।
वो दौर था जब दोपहर के इस अखबार की मांग गुवाहाटी से लेकर गुजरात के अलंग और दिल्ली के जामा मसजिद से आ रही थी। अखबार के सर्कुलेशन को लेकर मैं सड़को पर जनरल मैनेजर को फटकार रहा था और सेल्ज प्रेसीडेंट की खबर ले रहा था। मैं ही अखबार चला रहा था और मैं ही मालिक था। निहार ने बतौर मालिक मर्यादा रखी और मैंने बतौर संपादक अखबार को वो पहचान दे दी, जिसके लिए केलॉक्स यूनिवर्सिटी से पत्रकारिता पढ़े इस युवा मालिक की चाहत थी। मेरे दो साल के दौर में निहार एक बार आए वो भी जॉगिंग के बाद लौटते हुए और दो चार मिनट बतिया कर लौट गए। और अपन को भी कभी केसरगढ़ हाजिरी के लिए नहीं बुलाया।
तो यह कहना कि हर मालिक बेहूदा और दलाल है..मैं अपने अनुभव संसार से गलत मानता हूं। ऐसा नहीं कि बेहूदे और दलात मालिक नहीं होंगे, जरूर और ज्यादातर ऐसे ही होंगे। पर जिन्हें मैं जानता हूं. जिनके साथ मेरा वक्त गुजरा है..उनसे मेरा अनुभव ऐसा नहीं है। आज मेरा ना निहार कोठारी से कोई ताल्लुक हैं और ना ही गुलाब कोठारी मुझे पहचान पाएंगे। फिर जब एक तरफा प्रहार होते देखा तो लगा, वो सच भी सामने आना चाहिए..जिसका प्रत्यक्षदर्शी मैं खुद हूं..और मैं यदि चुप रहा तो यकीनन यह अनैतिक होगा..कम से कम मैं अपनी दृष्टि में तो अनैतिक हो ही जाऊंगा। लिखना मेरा काम है, सो लिख दिया। बाकि फैसला आप विवेकशील मित्रों को करना है।

 

सुमंत भट्टाचार्या के फेसबु वॉल से

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