ख़बर का ‘ख’ भी न जानने वाले कुर्सी तोड़ रहे हैं
अगर कोई फ्रेशर नौकरी के लिए अप्लाई करता है तो नाक पर चश्मा रखे संपादक साहब पहला सवाल यही दागते हैं कि अनुभव कितना है। समझ नहीं आता किसी फ्रेशर से ऐसा सवाल पूछने वाले को कोई संस्थान भला संपादक कैसे बना सकता है। इसकी दो वजहें होंगी- या तो वह अतिप्रबुद्ध किस्म का संपादक होगा या फिर संस्थान उसे अपना दामाद मानता होगा…..
पत्रकार प्रवीन दीक्षित की फेसबुक वाॅल से
आज सवेरे एक मीडिया फ्रेशर से बात हो रही थी। नोएडा स्थित एक प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान में इंटर्नशिप कर रहा है। यह उसकी दूसरी इंटर्नशिप है। इससे पहले भी एक संस्थान से उम्मीदों के साथ जुड़ा रहा और नाउम्मीदी के साथ इंटर्नशिप खत्म की। शब्दों में निराशा, आवाज में मायूसी और सपने तो मानो हाशिए पर चले गये हों। बोला- भइया बहुत हुआ अब। दौड़-दौड़कर थक गया हूं। कॅरियर की शुरुआत करने के लिए एक अदद संस्थान के साथ के लिए घर वालों से कब तक पैसे लेता रहूंगा। अब मुझमें और ताकत नहीं बची है। शर्म आती है खुदपर।
बोला- जिस संस्थान में इंटर्नशिप कर रहा हूं वहां खबर का ‘ख’ भी न जानने वाले कुर्सी तोड़ रहे हैं। कुर्सी तोड़ने के लिए संस्थान उन्हें पैसे भी दे रहा है। उन्हें दे रहा है तो दे लेकिन हर संस्थान मुझे यह कहकर क्यों नकार रहा है कि मैं फ्रेशर हूं। जो लोग काम कर रहे हैं, क्या वो कभी फ्रेशर नहीं रहे। ये लोग पत्रकारिता के कोई अभिमन्यु तो हैं नहीं जो इन्होंने पेट में ही खबरनवीसों के सारे गुर सीख लिए थे। दोस्त न सही लेकिन अगर किसी फ्रेशर के नजरिये से देखा जाए तो क्या उसका कहना गलत था। मेरे हिसाब से बिल्कुल नहीं। अगर कोई फ्रेशर नौकरी के लिए अप्लाई करता है तो नाक पर चश्मा रखे संपादक साहब पहला सवाल यही दागते हैं कि अनुभव कितना है। समझ नहीं आता किसी फ्रेशर से ऐसा सवाल पूछने वाले को कोई संस्थान भला संपादक कैसे बना सकता है। इसकी दो वजहें होंगी- या तो वह अतिप्रबुद्ध किस्म का संपादक होगा या फिर संस्थान उसे अपना दामाद मानता होगा। ऐसा बेशक हो सकता है कि किसी फ्रेशर को खबर का ‘ख’ न आता हो लेकिन इसकी पुष्टि तो की ही जा सकती है। गजब तो तब हो जाता है जब फ्रेशर के हुनर का आंकलन उसके सीवी के आधार पर किया जाए। एक सीवी किसी व्यक्ति विशेष के हुनर का अक्स कैसे हो सकता है, यह मेरी समझ से परे है। अरे भाई, जब जीता जागता इंसान खुद-ब-खुद सामने खड़ा है तो उसको मौके पर ही टेस्ट कीजिए न। सीवी और अनुभव की औपचारिकताओं को कागजी फाइलों तक ही सीमित रहने दिया जाए तो शायद बेहतर हो। अरे मालिक, ऐसे अनुभव का क्या फायदा कि बरसों तक कुर्सी तोड़ने वाले को महज कार्य अवधि के आधार पर पदोन्नति दे दी जाए।मीडिया संस्थानों के चयनकर्ता किसी हुनरमंद फ्रेशर को बेहतर पद से शुरुआत देने की ताकत कब जुटा पाएंगे। अरे साब अगर अनुभव ही बेहतर कार्य की कसौटी है तो फिर हमारे पिछले प्रधानमंत्री में क्या कमी थी। मेरा मानना है कि अगर एक संपादक जो चयनकर्ता की भूमिका में रहता हो, उसे स्वछंद विचारों का होना चाहिए। हुनर का असली सम्मान तभी है कि जब उसकी पहचान वक्त रहते हो जाए। वरना ये अनुभव वाले संपादक ही तो थे जिनकी नाक पर चश्मा लगा रह गया और नाक के नीचे से हेडिंग निकल गई- कार एक्सिडेंट में ड्रीम गर्ल घायल, एक बच्ची की मौत। जिस संपादक को खबर के तत्वों की प्रमुखता तय करने की अक्ल न हो उससे हुनर परखने की गुंजाइश मात्र भी रखना बेईमानी होगी।
सभार जनयुग