कश्मीर में काम करने वाले पत्रकारों को टीवी के राष्ट्रवादी एंकरों ने क्यों संदिग्ध बना दिया है ?

4 सितंबर 2016 की शाम को श्रीनगर में रहने वाले फ्रीलांस फोटो-पत्रकार ज़ुहैब मकबूल को एक साथी फोटो-पत्रकार का फोन आया जिसने उसे श्रीनगर के रेनवाड़ी इलाके में पत्थर फेंकने की घटना की जानकारी दी। ज़ुहैब ने अपनी बाइक और कैमरा उठाया और घटना स्थल की ओर चल पड़े। दरअसल कश्मीर में सुरक्षा बलों द्वारा आतंकवादी कमांडर बुरहान वानी को मर गिराने के बाद विरोध प्रदर्शन का यह दौर शुरू हुआ। अब तो यह पत्रकारों का रूटीन बन गया, एक कॉल मिलते ही पत्रकार अपनी बाइक और कैमरा उठाकर घटना स्थल की ओर चल पड़ते हैं। वह तस्वीरें क्लिक करते हैं और दुनिया को कश्मीर की सच्चाई से रूबरू करवाते हैं।

पत्रकार ज़ुहैब कहते हैं, ‘उस शाम को भी लगभग यही रुटीन था। एक तरफ युवा लड़कों का एक समूह पत्थर फेंक रहा था,और दूसरी तरफ पुलिस आंसू गैस और बन्दूक चला रही थी। ज़ुहिब और अन्य फोटो-पत्रकार, तस्वीरें खींच रहे थे और घटना को कवर कर रहे थे। वह कहते हैं ”तभी अचानक एक मुखौटे पहने पुलिस वाला अपनी पेलेट गन के साथ हमारी ओर आता हुआ दिखा, वह हमसे करीब 20 फीट दूर था। मैंने अपना प्रेस कार्ड निकाला और अपने कैमरे के ऊपर रखा और प्रेस, प्रेस, चिल्लाया”।

ज़ुहैब कहते हैं, ”तभी पैलेट गन की गोली हमारी आंखों, चेहरे, खोपड़ी, छाती और पैर को छलनी कर गई। “मैं अपने शरीर में दर्द महसूस कर रहा था मेरे शरीर से खून निकलने लगा”। ज़ुहैब ने अपने शरीर पर कई चोटें लीं, जिसमें बायें आँख के रेटिना को गंभीर छोटे लगी। पिछले 11 महीनों में ज़ुहैब ने अपनी आंखों को वापस लाने के लिए अपनी आंखों में तीन सर्जरी करवाई है। अभी वह केवल चीजों को धुंधला देख सकता है।

कश्मीर में फोटो पत्रकार होना जोखिम का काम 

स्यूद शाहिरयार हुसैनी भी एक स्वतंत्र पत्रकार हैं जो उस शाम को ज़ुहैब के साथ घटना स्थल पर मौजूद थे। वह कहते हैं कि “कश्मीर में एक फोटो-पत्रकार होना जोखिम से भरा काम हो गया है। खासकर ऐसे वक़्त में जब कश्मीर में अशांति फैली हुई है। ऐसे समय पुलिस के निशाने पर अक्सर पत्रकार भी आ जाते हैं। कई बार उन्हें पीटा जाता है और हमारे कैमरे तोड़ दिए जाते हैं। हाल के दिनों में घाटी के पत्रकारों को सड़क पर भी लोगों द्वारा निशाना बनाया गया है।

अपने ही लोग देख रहे संदेह की नज़रों से 

स्थानीय अंग्रेजी दैनिक राइज़िंग कश्मीर कश्मीर के एक संपादक डेनिश बिन नबी को 10 जुलाई 2016 को श्रीनगर में श्री महाराज हरि सिंह (एसएमएचएस) अस्पताल के दौरे पर भीड़ का सामना करना पड़ा। अस्पताल में घायलों और मरे हुए लोगों के परिवार दुःख और क्रोध से भरे हुए थे। जब उन्होंने सामान्य वार्ड में प्रवेश किया और घायलों के परिवारों से बात करना शुरू किया तो, एक व्यक्ति ने उन्हें कॉलर से पकड़ लिया जब उसे ने पता चला कि वह एक पत्रकार हैं। भीड़ ने मारना शुरू कर दिया, क्योंकि भीड़ ने उनपर “भारतीय टीवी मीडिया के साथ होने” का आरोप लगाया था।

वह कहते हैं “मैं चौंक गया था, मैंने इस स्थिति की कल्पना भी नहीं की थी। यह मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। मुझे शारीरिक और मानसिक रूप से चोट लगी थी। वह कहते हैं यह पहली बार हो रहा था जब अपने ही लोगों द्वारा मुझे संदेह के साथ देखा गया जा रहा था।

कश्मीर इमेज के वरिष्ठ पत्रकार और मुख्य संपादक बशीर मंजर भी घाटी ऐसे ही पत्रकारों में शामिल हैं। वह कहते हैं, ”मुख्यधारा के भारतीय मीडिया संस्थानों का आक्रामक राष्ट्रवाद लोगों के गुस्से के लिए जिम्मेदार हैं। यही कारण है कि भारतीय टीवी चैनलों ने हर रिपोर्टर को कश्मीर में एक संदिग्ध बना दिया है”।

सभी कश्मीरियों को टीवी मीडिया ने खलनायक बना दिया है। जब एक कश्मीरी दिन भर में छर्रों, आंसू गैस और गोलियों का सामना करता है और शाम को राष्ट्रीय टीवी एंकर उन्हें कई प्रकार के नामों से बुलाता है तो वह गुस्सा हो जाता है। वह अपना गुस्सा एंकर पर नहीं निकाल सकता है। वह केवल एक स्थानीय पत्रकार से ही मिल सकता है। जिसके बाद पत्रकारों को क्रोध का सामना करना पड़ता है। वह कहते हैं जबकि हमारी कोई गलती नहीं होती है।

कार में प्रेस स्टीकर का इस्तेमाल करना बंद कर दिया है 

अब तो स्थिति यह हो चुकी है कि घाटी में पत्रकार अक्सर लोगों के गुस्से से बचने के लिए पत्रकार नहीं होने का बहाना करते हैं। एक फ्रीलान्स पत्रकार अनीस ज़रगर ने अपनी कार पर “प्रेस” स्टिकर का इस्तेमाल करना बंद कर दिया है। कश्मीर में इसे पहले “इससे स्टिकर बहुत प्रतिष्ठित माना जाता था। लेकिन अब यह एक अब यह एक जोखिम बन गया है।

पिछले साल जब ज़रगर ज़ी न्यूज़ के लिए एक रिपोर्टिंग असाइनमेंट पर थे तो उनपर नाराज प्रदर्शनकारियों ने हमला किया। वह कहते हैं “मैं एक ओबी (आउटडोर प्रसारण) वैन में था और अचानक  लोगों ने पत्थर फेंकने शुरू कर दिए। एक पत्थर ने मेरी कोहनी कोहनी को फेक्चर कर दिया।

ज़रगर कहते हैं कि पत्रकारों पर गुस्से (पत्रकार) कश्मीर में गुस्से का कारण भारतीय टीवी मीडिया रिपोर्ट्स हैं। हिंदुस्तान टाइम्स के कश्मीर ब्यूरो के संवाददाता अभिषेक साहा को कई अवसरों पर कश्मीरी लोगों के गुस्से का सामना करना पड़ा। वह कहते हैं कि “मैं भाषा नहीं बोल सकता और इससे भी बदतर मैं दूर से एक कश्मीरी की तरह नहीं दिखता हूं। उनके लिए, मैं उन टीवी के लंगर का प्रतिनिधित्व करता हूं जो उन्हें आतंकवादी कहते हैं।

पत्रकारों को सड़कों पर सुरक्षा कर्मियों और स्थानीय आबादी से जोखिम का सामना करना पड़ा है। इसी कारण पिछले साल (2016) अशांति के दौरान कश्मीर के बड़े हिस्सों से पत्रकार रिपोर्ट नहीं कर सके। दक्षिण कश्मीर के कुछ हिस्सों थे जहां अशांति सबसे ज्यादा हिंसक थी। यहां तक ​​कि रिपोर्टिंग करते समय, पत्रकारों को ध्यान से चलना पड़ता है।

(यह लेख अंग्रेजी वेबसाइट मिंट से अनुवादित किया गया है )

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