अजीत अंजुम के तर्कों के तीर से तार-तार हुआ मृणाल के बचाव में चल रहा ‘गधा विमर्श’
अजीत अंजुम
स्कूली दिनों में साथियों के बीच तू-तू-मैं-मैं का संघर्ष जब चरम पर पहुंचने लगता था तब संवाद में गधे की इंट्री होती थी. तुम गधे हो के जवाब में तुम महागधे हो का तमगा एक दूसरे पर चिपकाते हुए तुम चू** हो से लेकर तुम महाचू** तक पहुंचकर युद्धविराम होता था.
ग और च से शुरू होने वाले ये दोनों शब्द हमारे आसपास रोज मंडराते हैं. हमारे चेतन/अवचेतन अवस्था में हमेशा दर्ज रहते हैं. सोशल मीडिया पर विरोधियों और आलोचकों की निंदा में हर रोज खर्च होने वाले ये दोनों शब्द असंसदीय और अमर्यादित की परिभाषा के बाहर भी जगह पा चुके हैं.
तभी तो निजी महफिलों/व्हाट्सऐप ग्रुपों और चौक-चौराहों के संवादों में धड़ल्ले से इस्तेमाल होने वाले शब्दों से बने चुटकुलों को कांग्रेस नेता ट्वीट कर देते हैं और जब दूसरे पक्ष से टिड्डी दल की तरह साइबर स्पेस में घेर लिए जाते हैं तो गलती मानकर पीछे हट जाते हैं.
मेरा मानना है कि मनीष तिवारी को किसी भी सूरत में ऐसे चुटकुले को अपने अकाउंट से ट्वीट नहीं करना चाहिए था. अब बात मृणाल पांडे जी और वैशाखनंदन विमर्श की.
दो दिन से मृणाल जी की टिप्पणी का बचाव करने वाले लोगों के तर्कों में समानता है. सबके तर्कों का खूंटा पचास करोड़ की गर्लफ्रेंड वाले बयान से लेकर मोदी और उनकी सेना के दर्जनों बयानों की ज़मीन पर टिका है.
ऐसे कई बयान गूगल से खोज-खोजकर यहां-वहां चिपकाए जा रहे हैं और पूछा जा रहा है कि क्या ये बयान शर्मनाक नहीं? फलां-फलां ने अगर ऐसे बेशर्म बयान दिए तो मृणाल जी ने मोदी समर्थकों को सिर्फ वैशाखनंदन ही तो कहा.
वैशाखनंदन शब्द की उत्पति पर दर्जनों पोस्ट लिखकर ‘गधा विमर्श’ का ऐसा माहौल बना दिया गया है गोया जो वैशाखनंदन न समझ पाए वो भी उन्हीं के उत्तराधिकारी हैं.
वैशाखनंदन शब्द भाषा के किस गर्भ गृह से क्यों और कब निकला? इसके मायने क्या हैं? वैशाखनंदन कब और क्यों खुश होता है? घास/मौसम और गधे के रिश्तों से जुड़े कई अनुत्तरित सवालों के जवाब पहली बार देश के कोने-कोने से आए हैं.
मृणाल जी की टिप्पणी को व्यंग्य के खांचे में डालकर उन्हें निर्दोष साबित करने पर जोर है.
लोग बता रहे हैं कि राजनीतिक बयानबाजियों में गधे के जिक्र के साथ कब किसने किसको इशारों में गधा बोला. दो पक्षों की साइबर मोर्चेबंदी में मूल सवाल गुम हो गया है. अगर फलां-फलां नेता या उनके समर्थकों ने अमर्यादित बयान दिया तो क्या आपका गुनाह कम हो जाएगा.
ये तर्क तो वैसा ही हुआ कि उसने तो हत्या की.दफा 302 के लायक गुनाह था. हमने तो सिर्फ हत्या की कोशिश की. दफा 307 ही लगेगा न. तो बड़ा गुनहगार तो 302 वाला हुआ न?
मैं ऐसे तर्क से सहमत नहीं. आप भाषा या मर्यादा की दुहाई देकर दूसरों को कठघरे में खड़ा करते हैं, तो फिर अपने लिए समानांतर कठघरा क्यों खड़ा करना चाहते हैं.
उन्हें गिरने दीजिए, जिन्हें गिरना है. चाहे वो किसी भी खेमे के पेड/अनपेड ट्रोल हों या नेता. हम क्यों गिरें. एक गड्ढे में दोनों गिरेंगे तो क्या डूबते-उतराते वक्त एक-दूसरे को आईना दिखाएंगे कि तुम पहले गिरे कि हम पहले गिरे.
तुम इतना गिरे. हम इतना गिरे. गिरे तो गिरे. बस! दोनों बराबर. मेरा ऐतराज इसी बुनियाद पर टिका है और टिका रहेगा.
हम सबको पता है कि बीते तीन-चार सालों के दौरान करीब-करीब हर पार्टी के नेताओं ने एक-दूसरे पर हमले करते वक्त न्यूनतम मर्यादा के भी चीथड़े उड़ाए हैं.
दूध का धुला कोई नहीं हैं. सबके बयान गूगल के अंतरलोक में दर्ज है. नेताओं के नाम टाइप करिए. नाम के साथ विवादास्पद बयान टाइप करिए. सर्च के नतीजे देखिए. आपको बहुतों के ऐसे बयान मिल जाएंगे. तो क्या ऐसे शर्मनाक या अवांछित बयानों की बिनाह पर हम कुछ भी कह-बोल या लिख दें और कहें कि जब फलां-फलां बोल सकते हैं तो मैंने क्या गुनाह किया?
मैंने क्या गलत किया? हां, आपने गलत किया क्योंकि आप उन्हें गलत बोलते हैं. हां, आपने गलत किया क्योंकि आपने-हमने हमेशा ऐसे बयानों या बयानवीरों की लानत-मलामत की है.
सोशल मीडिया में तो सरकार के हर अच्छे-बुरे कामों या बयानों को सही ठहराने के लिए ऐसे हजारों साइबर सिपाही/ ट्रोल/भक्त/समर्थक सक्रिय हैं.
खेमा सरकार विरोधी दलों और विचारधाराओं का भी है. तादाद में वो ज़रूर कम और कमजोर हैं, लेकिन हैं.
छोड़ते वो भी नहीं हैं किसी को. एक तरफ राहुल गांधी को पप्पू साबित करने वाला खेमा है तो दूसरी तरफ पीएम मोदी को फेंकू साबित करने वाला खेमा. पप्पू खेमा और फेंकू खेमा के बीच तीसरा-चौथा और पांचवा खेमा भी है. अगर आपको यही करना है तो आप बता दीजिए कि हम इस खेमे में हैं.
इसके खंभे-खूंटे से हम बंधे हैं तो हम भी उन्हीं ‘अश्लील और अमर्यादित’ हथियारों का इस्तेमाल करेंगे, जो फलां खेमा करता है. फिर कम से कम मुझे कोई ऐतराज नहीं.
फिर कल को आप पर भी वैसे हमले हों तो आप चीख-पुकार मत मचाइएगा कि देखो-देखो क्या हो रहा है. बोने दीजिए जो बबूल के पेड़ बो रहे हैं. आप क्यों बबूल लगाना चाहते हैं. और अगर यही लगाना चाहते हैं तो आम की चाहत मत रखिए.
मृणाल जी के समर्थन में उतरे साथी लोग उनके लिखे की सप्रसंग व्याख्या करके समझाने में लगे हैं कि उन्होंने तो पीएम मोदी को नहीं कहा, उनके समर्थकों को कहा, जो उनकी जयंती का जश्न मना रहे हैं. ये तो और बड़ी बात है.
भक्त और अंधभक्त के बाद तीसरा खांचा बनाने में कोई हर्ज नहीं लेकिन इंसानों की बस्ती को चौपाया की बस्ती तो घोषित मत करिए. वो भी वैसा चौपाया, जिससे कोई खुद रिलेट न करना चाहे. जो किसी के लिए अपमान का पैमाना हो.
गधे को भी अगर अपने गधे होने का अहसास हो जाए तो वो भी चीख-पुकार मचाकर अपने गधे होने से इंकार कर दे. मेरे कहने का मतलब ये है कि अगर आपने पीएम मोदी के समर्थक नेता/जनता/कार्यकर्ता के लिए भी गधे की तस्वीर लगाकर वैशाखनंदन लिखा तो ये ठीक नहीं.
फिर तो अपने नेता की जयंती के जश्न में डूबी लाखों-करोड़ों की पूरी जमात को ही आपने वैशाखनंदन कह दिया. कह दिया तो जवाबी हमले में जब सारी सीमाएं टूटेंगी तो उसके लिए भी तैयार रहना चाहिए क्योंकि दौर मर्यादा की सीमाओं को नेस्तनाबूद करने का है.
हम सब उसके शिकार होते हैं. तो थोड़ी सावधानी क्यों न बरती जाए. सबसे बड़ी बात आपकी सहनशीलता की. मैं मानता हूं कि आप किसको फॉलो करें. किसको ब्लॉक करें. किसको पढ़ें. किसको न पढ़ें.
ये सब आपके अधिकार के दायरे में हैं लेकिन अगर आप किसी नेता या उसके समर्थकों की पूरी जमात को जुमला जयंती पर पुलकित वैशाखनंदन घोषित कर दें. ऐसा करके आप अभिव्यक्ति की अपनी आज़ादी के अधिकारों का इस्तेमाल करें तो फिर कुछ सुनने को भी तैयार रहें.
अगर कोई अजीत अंजुम आपसे असहमत होते हुए मर्यादा के दायरे में रहकर अपनी बात कहे तो उसे तुरंत ब्लॉक कर देना आपके घोर अलोकतांत्रिक होने का सबूत है. अगर मैं कहता-वाह वाह मृणाल जी, क्या बात कही है आपने, तो शायद आप रिट्वीट कर देतीं.
कोई गाली दे. अश्लील टिप्पणी करे. मर्यादा लांघे तो ब्लॉक करना भी चाहिए लेकिन असहमति भी आपको मंजूर नहीं. जब आपको मामूली असहमति मंजूर नहीं तो फिर अभिव्यक्ति की आज़ादी का एकतरफा इस्तेमाल किस विमर्श को जन्म देता है?
मृणाल जी तो बहुत पढ़ी-लिखी विदुषी महिला हैं. हम जब बोलने-पढ़ने-लिखने लायक भी नहीं थे, तब वो बड़े प्रतिष्ठान की संपादक थीं. उनके सैकड़ों लेख मैंने पढ़े हैं. तो उन्हें तो निंदक को भी नियरे रखने में यकीन करना चाहिए था.
कुछ साथी लोग शंकर के कार्टून में नेहरू की चुटकी से लेकर परसाई और शरद जोशी के लेखन की मिसालें दे रहे हैं. व्यंग्य/कार्टून और लेखन में चुटकी लेने की परंपरा और उस दौर के सहनशील नेताओं की तुलना में ये दौर भी अलग है. माहौल भी अलग है. आलोचना सुनने और सहने को कौन तैयार है.
तब बहुधारी तलवार से आभासी कत्लेआम मचाने वाला ये माध्यम नहीं था, आज है. बेलगाम प्रतिक्रियावादी साइबर सिपाही नहीं थे, जो बाल की खाल निकालकर छवियों पर कालिख पोतने में मिनट नहीं लगाते. आखिर हुआ भी वही न? मृणाल जी पर हमले के लिए साइबर किलर्स की फौज भाषाई बेहूदगियों की सीमाएं लांघने में जुटी है.
अब मुझे तकलीफ इन हमलों की भाषा से भी है. लेकिन हम सब इन बेलगाम ट्रोल और अंध भक्तों के सामने लाचार हैं. गालियों के क्षेत्र में इन सबने बहुत आविष्कार किए हैं. रोज कर भी रहे हैं. सबका इस्तेमाल असहमति की आवाजों को डराने/दबाने या ज़लील करने के लिए करते हैं.
ऐसे ज्यादातर लोग अपने ‘नेता’ को आलोचनाओं से परे मानते हैं. अवतारी मानते हैं. ऐसे समर्थक हर तरफ हैं. हर धारा के साथ हैं. मेरी टाइमलाइन पर भी हर रोज गालियों की बौछार होती है.
हर रोज बिकाऊ/दलाल/ देशद्रोही और न जाने किस-किस तरह के तमगे लेकर सोता हूं. उठता हूं. एक शब्द लिखा नहीं कि हमलों की बारिश से नहाने में देर नहीं लगती. ये कौन लोग हैं?
कौन सी जमात है ये? इस पर बात होनी चाहिए. इनका विरोध भी होना चाहिए. इन्हें एक्सपोज भी करना चाहिए. लेकिन हम उस जमात का हिस्सा न बनें, कोशिश ये भी होनी चाहिए.
हमारे बहुत से साथी किसी भी चू** लिख देते हैं. अगर लिखते हैं तो जवाब में महाचू** कोई लिख दे तो आप विरोध का हक खो देते हैं. मैं विरोध का हक अपने पास रखने की आखिर तक कोशिश करूंगा. चाहे मेरी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह ही क्यों न हो?
जब अजीत अंजुम ने इस पोस्ट को नत्थी कर ट्वीट किया तो मृणाल पांडेय ने उन्हें ब्लॉक कर दिया।