संजय त्रिपाठी: एक और मिशनरी फोटोग्राफर दम तोड़ गया
कुमार सौवीर
लखनऊ : लो भई, आज एक मजबूत कैमरा टूट गया। नायाब कैमरा, जो जिन्दगी भर दूसरों की फोटो के विभिन्न एंगेल्स-आयामों को हू-ब-हू परोसता ही रहा। यह दुखद हादसा ही तो है, कि पिछले करीब 31 बरसों से जो शख्स खुद को किसी प्रोफेशनल कैमरा में तब्दील कर चुका हो, वह आज हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो गया। लेकिन मरते-मरते ही संजय त्रिपाठी ने पत्रकारों की दुनिया में एक बार फिर वह सबूत जुटा दे दिये कि कोई भी पत्रकार अपनी पत्रकारिता को तो अपना पूरा खून-पसीना सौंप देता है। लेकिन पत्रकारिता कभी भी किसी भी पत्रकार की जिन्दगी सुधारने का न तो ठेका नहीं देती है, और न ही सुविधा।
संजय अब कभी नहीं मिलेगा, न किसी को दिखेगा और न ही किसी की फोटो खींचेगा। तुम जब भी अपनी आंखों में आंसू भर कर भी आग्रह भी लाख करोगे, कि संजय मेरी फोटो खींच दो। लेकिन तस्वीर पर माला ओढ़े संजय का चिर-परिचित मुस्कुराता चेहरा चेहरा बिना किसी प्रतिक्रिया दिखाये सिर्फ मुस्कराता ही रहेगा। तुम्हारे हर सवाल का जवाब केवल हमेशा की ही तरह मुस्कुराते हुए ही देगा। तुम उलाहना दोगे, तुम उससे आग्रह करोगे, वह शिकायते, उसकी तारीफ, उससे झगड़ा, उससे मोहब्बत, उससे नफरत, और न जाने क्या-क्या। तुम फफक कर रो पड़ोगे। लेकिन संजय पर कोई भी फर्क नहीं पड़ेगा।
अरे यार, हुज्जत मत करो। मर चुका है संजय त्रिपाठी। आज बीती रात उसने अपनी जिन्दगी को दिल पर ले लिया, और हार्ट अटैक हो गया। संजय त्रिपाठी उसी राह पर चला गया, जैसे ब्रह्माण्ड के हर प्राणी विदा हो जाते हैं। मर जाते हैं प्राणी, चुपचाप, खामोश और बिना बताये, न कोई छाप या याद दिलाये हुए विदा हो जाते हैं।
लेकिन संजय त्रिपाठी ऐसा नहीं था। पूरी जिन्दगी फोटोग्राफी के लिए समर्पित रहा है संजय। जागने से लेकर सोने तक, केवल फोटोग्राफी ही फोटोग्राफी के लिए ही जिया है संजय तिवारी और जब आज वह मर गया है, तो वह भी लखनऊ का पूरा फोटोग्राफी जगत संजय की विदाई पर फूट-फूट कर रो रहा है।
ऐसा हर्गिज नहीं है कि संजय ने फोटोग्राफी की दिशा में कोई अनोखे प्रयोग किये हों। न तो वह कभी अपनी किसी फोटो को लेकर समाचार संस्थानों या अखबार जगत में चर्चित हो पाया और न ही उसने फोटोग्राफी की कोई नयी लकीर ही बनायी हो। लेकिन सच बात यह है कि फोटोग्राफरों के लिए सम्मान दिलाने लायक पगडंडी तैयार करने में जो कोशिश अनायास-सायास बना दिया, वह कमाल का शख्स रहा। अपनी पूरी कैमरा-जिन्दगी में उसने शायद ही कभी कोई फोटो छोड़ी हो। अगर कभी छूट भी गयी होगी, तो उसे आनन-फानन जुगाड़ कर लेना उसके बायें हाथ की बात रही थी। उसका व्यवहार ही उसकी जिन्दगी थी। सारे फोटोग्राफर संजय त्रिपाठी को अपना गम्भीर वरिष्ठ साथी मानते रहे हैं।
संजय का नाम शब्दकोष में कम से कम पांच अर्थ दिखता है। मसलन, सक्षम, आधुनिक, हंसमुख, उदार, सक्रिय। हां, एक और प्रमुख अर्थ और भी है, वह है अस्थिर। और हैरत की बात है कि इन छहों नाम संजय पर पूरे के पूरे फिट होते हैं। जिन्दगी के लिए पहले पांच अर्थ, जबकि मौत के लिए छठवां अर्थ, यानी अस्थिर। राष्ट्रीय सहारा में मुख्य फोटोग्राफर के पद से अचानक वीआरएस के नाम पर नौकरी को लात मार देना संजय की अस्थिरता का ही प्रमाण रहा है। और कहने की जरूरत नहीं कि यह छठवां अर्थ ही संजय की मौत का काल बन गया।
बाराबंकी में हैदरगढ़ के एक निहायत ईमानदार परिवार का सबसे बड़ा बेटा था संजय। तीन भाई। सबसे बड़ा हैदरगढ़ में अभी भी रहता है। संजय बीच का, जबकि विनोद छोटा। विनोद की मौत कई बरस पहले ही हो गयी थी। पिता रामनरेश त्रिपाठी विधायक बन गये। एनडी तिवारी के जमाने में। अपनी काबिलियत के चलते रामनरेश त्रिपाठी प्रादेशिक दुग्ध संघ के अध्यक्ष बन गये। लेकिन सूत्र बताते हैं कि उस दौर में रूस से आये पांच करोड़ रूपयों के दूध-पाउडर पर हंगामा हुआ। अफसरों ने पूरा दूध मुम्बई बंदरगाह में बेच लिया था। अफसरों ने घूस की रकम दी, करीब ढाई करोड़। बाकी हिस्सा भी मुख्यमंत्री तक के पास जाना था। लेकिन रामनरेश त्रिपाठी ने घूस लेने से इनकार किया और अफसरों को खूब लताड़ा, फाइल पर बेईमानी की टिप्पणियां दर्ज कर दीं। नतीजा यह हुआ कि अफसरों ने केंद्र के नेताओं को पैसा खिलाया, और रामनरेश जी को ही फंसा दिया।
लब्बालुआब यह कि पूरा खानदान की जड़ें ईमानदारी में सनी थीं। संजय ने शुरूआत में अपना डेरा हसनगंज के उमराव कोठी के उस हिस्से पर किया, जहां श्रमिक-कर्मचारी रहते हैं। ट्रेनिंग दी राम खिलावन यानी आरके गुप्ता ने। स्वतंत्रभारत वाले। गाड़ी चल गयी। बाद में सहारा ज्वाइन किया संजय ने। फिर अपना एक छोटा मकान भी बना लिया जानकीपुरम में। लेकिन विनोद वहीं उमराव कोठी के हिस्से में ही टिका रहा। और वहीं पर उसकी मौत हो गयी।
संजय ने कभी भी दलाली, झूठ या कमीनापन का दामन नहीं पकड़ा। बेहद सरलता के साथ अपना काम करता था संजय। हां, हंसमुख होना, मदद करना और खाली वक्त में ठठाकर हंसना और अपनों के साथ मस्ती-मौज करना संजय की खासियत थी। रात-बिरात कभी किसी मित्र को कोई दिक्कत हो जाए, तो संजय अपना सारा कामधाम छोड़ कर सड़क पर निकल जाता था।
करीब चार महीना पहले संजय ने मुझे फोन किया था, और उसके बाद सीधे मेरे घर आ गया। बातचीत का मौसम पत्रकारिता पर ही रहा। संजय को पीड़ा इस बात पर थी कि वक्त पत्रकारिता अब हमारे लायक शायद नहीं रह बची है। संजय बोला कि:- लोग हम लोगों की सबसी बड़ी दिक्कत है कि हम एकजुट नहीं हो पाते। और हो भी जाएं, तो बाजार का दबाव हमें जीने नहीं देगा। उम्र इतनी ज्यादा हो चुकी है, कि नया किया जा पाना मुमकिन ही नहीं। अब तो इसी में मरना और जीना होगा। हो हो हो।
वरिष्ठ फोटोग्राफर आरबी थापा के अनुसार तीन दिन पहले संजय का फोन आया था, जिसमें उसने थापा से अपनी व्यथा बताते हुए कहा था कि कोई अगर कोई अखबार ऐसा मिल जाए, जो मुझे दस-बारह हजार तक की नौकरी दिला दे, तो उसमें भी मुझे संतोष हो जाएगा।
लेकिन ऐसा नहीं हो पाया।
संजय को न तो ऐसा कोई अखबार मिल पाया, और न ही संजय जिन्दा रह पाया।
खैर, तुम बहुत याद आओगे संजय।
फोटोग्राफर क्लब के एसएम पारी के अनुसार संजय त्रिपाठी के निधन पर एक बड़ी श्रद्धांजलि-सभा में सभी फोटो पत्रकारों ने संजय को अपनी भावभीनी विदाई दी है।