भ्रष्टाचार के कचरे पर ही पलता है ऐसे मीडिया संस्थानों का कीड़ा
पंकज झा-
दिसंबर की एक गुनगुनी धूप वाली सुबह! अखबारों के बण्डल के साथ धूप और दिमाग सेंकने सोसाइटी के उद्यान में चला गया था. अनायास कथित बड़े अखबार में अपने ही नाम पर नज़र गयी. बाकायदा बड़ी सी खबर छपी थी. लेखों के साथ अपना नाम देखने की तो पुरानी आदत रही है. लेकिन समाचारों में अपना नाम देखने का कभी अभ्यास या शौक रहा नहीं. सो ज़रा अटपटा लगा था वह.
पूरी खबर यह थी कि पिछली सरकार में सलाहकार के नाते मैंने अपनी पत्रिका के लिए विज्ञापन आदि के नाम पर मोटी रकम लिया है सरकार से. (जबकि पत्रिका ने डेढ़ दशक से घोषित तौर पर तय किया हुआ था कि कोई भी सरकारी विज्ञापन नहीं लिया जाएगा) इसके अलावा ‘सलाहकार’ होने के नाते दिल्ली में गाड़ी-बंगला आदि लेने समेत अन्य अनियमितताओं के साथ मेरे तमाम ‘भ्रष्टाचार’ दर्ज थे उसमें.
उबकाई सी आने लगी थी उस अखबार पर. संपादक और संबंधित रिपोर्टर दोनों के नाम पर उतनी गालियां और बद्दुआ निकली जितनी गालियां जानता था. पर सारे अकेले में ही. आप सरेआम जा कर तो गरिया नहीं सकते थे. गालियां इसलिए भी अधिक निकल रही थी क्योंकि वे सभी निजी तौर पर जानते थे मुझे. फिर भी किसी के ‘हाथ’ को लकवा नहीं मारा ऐसा लिखते हुए, सोच कर ही पागल हुआ जा रहा था.
घर आया. खुद से ही आंखें चुरा रहा था. लगा कि फूट-फूट कर रोने या अपना सर दीवाल पर पटकने लगूं. या सड़क पर जा कर गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाने लगूं कि झूठ बोल रहा है यह हरामखोर अखबार. एक प्रतिशत भी उसकी बातों में सच्चाई नहीं है. मन किया जा कर मुकदमा कर दें. वकीलों से विमर्श भी किया लेकिन अपने संस्थान से इजाज़त नहीं मिली हालांकि निजी खर्चे पर ही केस लड़ना चाह रहा था. बड़ी मुश्किल से उस आरोप की तकलीफ से खुद को निकाल पाया.
मैं जानता हूं कि सार्वजनिक जीवन जीने वाले लोगों के लिए ऐसी ख़बरें रूटीन ही होती हैं. उन्हें फर्क तो क्या पडेगा, नकारात्मक मामलों में भी अपना नाम देख कर भ्रष्टों को आनंद ही आता है. गोया-बदनाम हुए तो क्या नाम न हुआ. खुद के खिलाफ बड़ी-बड़ी ख़बरें छपने के बावजूद उसे लिखने वालों के साथ ही गलबहियां करते, खीसें निपोड़ते अनेक को अपन ने देखा ही है. फर्श से अर्श तक पहुंच जाने, ख़ाक से लाख और फिर करोड़ों कमा लेने की यह कीमत होती है, जिसे अदा करने वालों को भी आनंद आता है और शायद कराने वालों को भी. ज़ाहिर है, ऐसा भ्रष्टाचार नहीं होगा तो ऐसी पत्रकारिता भी नहीं बचेगी, आखिर फिर किस फंड से दाऊ के बेटे के जन्मदिन पर भी लाखों का विज्ञापन उन्हें मिलेगा. सो भ्रष्टाचार अकेली वह गंदगी है जिस पर ऐसी मीडिया का कीड़ा पैदा होता है. केक कटेगा सबमें बंटेगा.
तो उन्हें भले दिक्कत नहीं हो लेकिन हम जैसों को काफी दिक्कत हो जाती है जिन्होंने तपस्या की तरह से जीया है अभी तक के जीवन को. अवसर निस्संदेह अपने पास भी रहे ही होंगे. दशकों से आंखों के सामने क्या से क्या हो गए लोगों को देखते रहने के बावजूद भी खुद के लिए कठिन संयम को कायम रखा. न तो अर्थ और न ही यश-शोहरत की कामना से खुद को झुकने दिया. आगे अवसर मिलने पर हो सकता है अपन भी उन जैसे ही हो जाएं. हो सकता है हम भी दलाल-भ्रष्ट हो ही जाएं अन्यों की तरह लेकिन, ये पंद्रह वर्ष या अभी तक के जीवन को तो बेदाग़ बना कर रखा हुआ है. आगे का भविष्य के गर्त में है सो उस के लिए दावा करना कठिन है. बहरहाल.
अपनों ने भी समझाया कि ऐसा छप जाना कोई ऐसी बात नहीं है. भूलो और आगे बढ़ो. मीडिया वालों से उलझना ठीक नहीं. लेकिन बड़ी बेबसी पर आत्मविश्वास के साथ मेरा जवाब होता था कि अपने पास कुछ ऐसा है ही नहीं तो क्या बिगाड़ लेंगे ये. क्यों न उलझा जाए इनसे. समूचे करियर में सबसे अधिक इनसे ही तो उलझे हैं अपन. निजी तौर पर बिलकुल नहीं लेकिन सांस्थानिक रूप से बाजारू मीडिया का कटु आलोचक रहा हूं. अनेक ऐसों की मुद्दों के आधार पर ऐसी-तैसी की है अपन ने. आखिर क्यों न इस निजी दाग को भी लड़ कर धोया जाय. लेकिन अपनी सोच हर बार व्यावहारिक भी हो, ज़रूरी नहीं. मैं मुकदमा कर नहीं पाया इन अभागों पर.
उसी दरम्यान एक दिन मेरी भतीजी ने कहा कि उसकी ननद को उसकी एक दोस्त कह रही थी कि तुम्हारी भाभी के अंकल (यानी मेरे) के पास तो काफी पैसे हैं यार. अखबार में छपा था कि कितना ‘कमाया’ है उन्होंने. सोच लीजिये कि एक खबर कहां तक घुसती है समाज में. एक बार और बेबसी के साथ अपनी मुट्ठी भींच लिया था. फिर लगा था कि मानो दौरा सा पड़ गया हो खुद पर. बाद में हालांकि बिजली प्लांट वाले अखबार में खबर प्लांट कराने वालों ने बाकायदा कोई शासकीय कमिटी भी बनायी जांच के लिए, ऐसा अखबारों में ही पढ़ा. जिस तरह कांग्रेस के खिलाफ मुखर रहता हूं, उस हिसाब से जानता था कि अगर एक चिंदी भी अपने खिलाफ मिल गया तो नाप देंगे ये मुझे. जिन पर इस जांच को करने का दायित्व रहा था, वे भी खैर जानते ही रहे होंगे कि कितना विधि-निषेध का पालन करते रहे हैं अपन. यहां तक कि सामान्य यात्रा व्यय तक जेब से करना, टिकट आदि के लिए भी कभी बिल देने का अपना स्वभाव नहीं रहा. यही कारण है कि अपने खिलाफ कुछ भी नहीं मिला होगा लाख खोजने पर भी. जबकि आज कितने लोग सलाहकार बन के कैबिनेट मंत्री का सुख भोग खजाने पर बोझ बने हुए हैं, उन्हें देखा जा सकता है. खैर.
लम्बी कहानी है…….. इस पोस्ट का हालिया कारवाई से कोई संबंध होने का तो खैर सवाल ही नहीं पैदा होता. क्या हुआ है यह भी संबंधित विभाग ही जानता होगा केवल. लेकिन यह पोस्ट इस आम सी कारवाई पर बौखलाए हुए लोगों पर सवाल है. सवाल यही कि न जाने ऐसे कितने टेबल न्यूज करते हुए इन खबरंडियों ने शासन के साथ मिल कर लोगों की चरित्र ह्त्या की होगी. लेकिन आज दर्ज़नों व्यवसायों को अखबार की आड़ में चलाते हुए आठ हज़ार करोड़ सालाना वैध-अवैध इन कमाई करने वालों पर आयकर की रेगुलर सी कारवाई हुई तो समूची पत्रकारिता खतरे में आ गयी?? अभिव्यक्ति की आज़ादी को संविधान ने किसी सस्था के बाप की जायदाद नहीं बनाया है भाई. वह अधिकार हम सभी भारतीयों का बराबर है. फिर भी कंगरेडियों-राडियाओं ने संसद तक बाधित कर दी इस आम छापे के विरोध में.
क्यों भाई. तुम नए सामंत या फिरंगी लाट पैदा हो गए हो क्या लोकतंत्र में? तुम राजतंत्र की तरह या परिवार विशेष की तरह हर क़ानून से ऊपर हो गए हो? अगर तुम पर छापा समूची पत्रकारिता पर हमला हुआ, तब तो किसी राजनीतिक कार्यकर्ता पर कारवाई तो लोकतंत्र पर ही हमला माना जाएगा जैसे कल ही एक भाजपा विधायक के यहां भी छापे पड़े हैं. किसने तुम्हें ऐसा संविधान और क़ानून, न्यायिक एजेंसी, जांच एजेंसी सबसे ऊपर बना दिया हुआ है? नेताओं को तो फिर भी हर पांच वर्ष पर (अक्सर उससे पहले भी) सीधे जनता से अपना परीक्षण कराना होता है. लेकिन तुम्हारी कसौटी तो बस बाज़ार और विज्ञापन है. तुम्हें किसने जनता के प्रति जिम्मेदार या उसका ठेकेदार बनाया है? संविधान ने कहां तुमको कोई स्तम्भ-वस्तम्भ बनाया है कि घुस गए तुम असली तीनों संवैधानिक स्तंभों को सुपरसीड करने, उन पर भी डंडा चलाने.
तेरे हाथ में की-बोर्ड है तो तू कुछ भी कर देगा? तू हर क़ानून-नियम से परे हो गया? ऐसी गुंडागर्दी बिलकुल चलने नहीं दी जायेगी. नागरिक अधिकार चाहिए तो एक आम नागरिक की तरह विनम्रता, संवैधानिक संस्थाओं का आदर, चुने हुए प्रतिनिधियों के बनाए क़ानून के भीतर रहना सीखो. तुम्हारे लिए अलग कोई क़ानून नहीं बना है न बनने दिया जाएगा. कांग्रेसी कलंकों के दिन गए जब तुम मंत्रिमंडल का पोर्टफोलियो तक डिसाइड करते थे. यहां तमीज से कतार में नागरिकों के साथ लगना सीखो. क़ानून का सम्मान और उसका सामना करो. ग़लती की है तो लालू यादव की तरह जेल जाना होगा. नहीं की है तब भी कोर्ट से निर्दोष साबित हो कर अपनी दुकान खोलना होगा. यही देश का तय नियम और विधान है.
याद रखो हमेशा…. तू इस मशीन का पुर्जा है, न कि मशीन, जैसा कि दुष्यंत ने कहा है. अगर धंधा करते हो तो उतनी ही तमीज से करो जितनी तमीज से कोई रिक्शा चालक अपनी सवारी से पेश आते हैं. जितनी तमीज कोई पान ठेला वाले सज्जान अपने ग्राहक को पान-बीडी बेचते हुए दिखाते हैं….
समझे कि नहीं?
(डिस्क्लेमर : यह अपनी निजी अभिव्यक्ति है. निराधार ख़बरें किस तरह नागरिक जीवन को तबाह कर सकती है, इस पर हाल के घटनाक्रम के बहाने लिखने की कोशिश की है. कृपया इसे किसी सस्थान या दल से जोड़कर ने देखा-पढ़ा जाए. धन्यवाद.)