36 घण्टे लागातार एक-एक मीडिया कर्मियों से मिले सहाराश्री फिर 1850 रुपये की जगह सेलरी हो गई 2750

अखबारी कागज पर करीब 10 पेज की चिट्ठी लिखा, जिसमें आर्थिक स्थिति और अतिरिक्त रकम जुटाने को प्रयासों की जानकारी के साथ ही काम पर पड़ने वाले असर की बातें लिखी थी।

दिनेश पाठक
साल 1992 की बात है। मेरा नया-नया करियर शुरू ही हुआ था। पहला संस्थान था राष्ट्रीय सहारा, लखनऊ। शुरुआती झंझावत थे। कभी मन न लगे कभी कोई और दिक्कत। रहने का ठिकाना नहीं। खाने का समय नहीं। सुबह शुरू होने का समय पता था लेकिन रात का कुछ पता नहीं। कभी तीन बजे सो रहे हैं तो कभी चार बजे। 1850 रुपये के आसपास मिलते थे।
मैं, पत्नी, बेटा, लखनऊ में मेरा खर्च पूरा नहीं हो रहा था। कुछ पाँच-छह सौ रुपये का इंतजाम हर महीने अतिरिक्त करना पड़ता। सहारा परिवार के मुखिया श्री सुब्रत रॉय से तब तक मेरी मुलाकात नहीं थी। तब वे बड़े साहब कहे जाते थे। हाँ, शनिवार की असेम्बली में उन्हें सुना जरूर था। इसमें वे जीवन से जुड़ी बातें शेयर करते। धीरे-धीरे समझ आने लगा। जिंदगी कुछ आसान भी हुई। यह हिम्मत भी आई कि उन तक पहुंचकर अपनी बात कहना है।
अखबारी कागज पर करीब 10 पेज की चिट्ठी लिखा, जिसमें आर्थिक स्थिति और अतिरिक्त रकम जुटाने को प्रयासों की जानकारी के साथ ही काम पर पड़ने वाले असर की बातें लिखी थी।
अब मुलाकात कैसे हो, इसकी चिंता सताने लगी। पर, बात बन गयी। मैं उनके सामने पहुँचता, उससे पहले मेरा पत्र पहुँच गया था। दोपहर का समय था। बुलावा आया। डरते हुए पहुँचा। नौकरी बचेगी या जाएगी? यह सवाल मन में था। खैर, पहुँचा। कमरे में दाखिल हुआ तो वहाँ मेरे अलावा कोई और नहीं था। खड़े होकर उन्होंने अपने एक कर्मचारी का इस्तकबाल किया। फिर कमरे में घूम-घूमकर बातें करते रहे। मुझे सुनते रहे। पाँच-सात मिनट बाद कुर्सी पर बैठे और कुछ मेरी ओर उछाला। मैंने लपका। हाथ में पचास रुपये की एक गड्डी थी। बाद में गिना तो पाँच हजार रुपये थे, जो उस जमाने में बड़ी रकम थी। बोले-तुमने पत्र में अपनी सारी बात लिखकर कम्पनी पर उपकार किया है। अब जाओ। इस पैसे से तुम्हारे कुछ महीने आसानी से चल जाएँगे। इधर दो-तीन दिन में मैं सब ठीक कर दूँगा। मैं खुश था।
अगली सुबह दफ्तर पहुँचा तो एक नोटिस लगी थी, जिसमें एक-एक आदमी से मुलाकात का समय लिखा था। करीब 36 घण्टे वे दफ्तर से बाहर नहीं गए। सबसे मिले और उसके 36 घण्टे बाद जो हुआ वह किसी चमत्कार जैसा था। 1850 रुपये की जगह मेरी सेलरी 2750 हो चुकी थी। तीन महीने का एरियर भी मिलना था। अजब सा खुशी का माहौल था दफ्तर में। शायद ही कोई हो जिसकी सेलरी न बढ़ी हो। फ़िर अगली असेम्बली का समय आया तो उन्होंने पूरे मामले का खुलासा कर दिया और सारी क्रेडिट मेरे खाते में रख दी।
साल 1996 में जब मैंने सहारा छोड़ा और हिंदुस्तान जॉइन किया तो एक दिन लैंडलाइन पर फोन आया। उधर से किसी ने कहा कि बड़े साहब बात करेंगे। एक भारी सी आवाज आई। कहाँ है तू? फटाफट मुझे आकर मिल। मैंने अगले दिन का समय तय किया और पहुँच गया।
मेरे सामने मेरा इस्तीफा था। बोले फाड़ दे। जो चाहिए सब मिलेगा लेकिन तू कहीं नहीं जा रहा है। इसके पहले थोड़ी डांट भी पड़ी थी। क्योंकि छोड़ने से पहले करीब दो साल तक मेरी स्थिति ऐसी थी कि जब चाहता मुलाकात हो जाती। अक्सर बुला लिया जाता था।
बोले-तुम्हारे लिए मैं हिंदुस्तान टाइम्स मैनेजमेंट से बात कर लूँगा। जब मैंने कहा कि यह कदम उचित नहीं होगा तो बोले तू ठीक कह रहा है। अभी जा लेकिन जल्दी लौट आना और हाँ मिलते जरूर रहना। कोई दिक्कत हो तो बेझिझक आ जाना। काम की चिंता करने की जरूरत नहीं है। यह दरवाजा तुम्हारे लिए खुला मिलेगा। कुछ दिन तक मेरी मुलाकातें होती भी रहीं। फिर मैं एडिटर बना तो लखनऊ छूट गया। अलग-अलग शहरों में तैनाती की वजह से मुलाकातें-बातें ठप सी हो गईं।
आज सुबह उठा तो पहली मनहूस खबर यही मिली। मेरे लिए वे एक अभिभावक ही थे। मेरी मुलाकातें भले इधर न हुई हों लेकिन भरोसा था कि एक ऐसी जगह है, जहां सुरक्षा की गारंटी है। उनका सिर पर हाथ रखना, पीठ ठोंकना मेरे मन को सुकून देता था।
उनकी जिंदगी को लेकर जितने भी विवाद सामने आए, मैंने उन्हें हमेशा अलग ही रखा। लिखने को अनेक कहानियाँ हैं। पर, आज बस इतना ही।
उन्हें सादर नमन
Loading...
loading...

Related Articles

Back to top button