पत्रकारों के वी.पी. बने सुरेश बहादुर
मान्यता बचाने की लड़ाई में आगे आने का उद्देश्य पत्रकारों की राजनीति में फायदा लेना भी हो सकता है। लेकिन सुरेश जी पत्रकारों कि राजनीति से दूर रहते हैं। उप्र राज्य मुख्यालय संवाददाता समिति से लेकर प्रेस क्लब (अग्रणी संगठन) के हर पद के आसमान से कहीं ऊंचा कद है सुरेश बहादुर का इसलिए उन्हें पत्रकारों की राजनीति के लिए पत्रकारों का दिल जीतने का स्वार्थ कदापि नहीं है।
लखनऊ के पत्रकारों की पंचायतों और चौपालों में एक सिंह की दहाड़ की खूब चर्चा हो रही है। अस्सी-नब्बे के दशक में अमिताभ बच्चन बड़े पर्दे पर ग़रीबों का हक़ मारने वाले अमीरों के सामने गरीबों के हक़ की बात करते थे और और देश भर के ग़रीबों की तालियां गूंजने लगतीं थी।
इन दिनों लखनऊ के चर्चित पत्रकार सुरेश बहादुर सिंह अमिताभ बच्चन की तरह कम संसाधनों वाले स्थानीय छोटे अखबारों के कमजोर पत्रकारों की ताक़त बने हैं।
छोटे अखबारों के पत्रकारों की मान्यता के खिलाफ मुखर मान्यता समिति के दूसरे सदस्य का प्रतिरोध करने वाले सुरेश बहादुर का कभी भी छोटे अखबारों से वास्ता नहीं रहा। ना वो किसी छोटे अखबार में रहे और ना ऐसे किसी अखबार से उनकी कभी मान्यता रही।
मान्यता बचाने की लड़ाई में आगे आने का उद्देश्य पत्रकारों की राजनीति में फायदा लेना भी हो सकता है। लेकिन सुरेश जी पत्रकारों कि राजनीति से दूर रहते हैं। उप्र राज्य मुख्यालय संवाददाता समिति से लेकर प्रेस क्लब (अग्रणी संगठन) के हर पद के आसमान से कहीं ऊंचा कद है सुरेश बहादुर का इसलिए उन्हें पत्रकारों की राजनीति के लिए पत्रकारों का दिल जीतने का स्वार्थ कदापि नहीं है।
बता दें कि भविष्य में कई पत्रकारों की राज्य मुख्यालय की प्रेस मान्यता ख़तरे में है। जिन छोटे अखबारों का प्रसार कम है या अधिक संस्करण है। या जिनकी लोकल न्यूज एजेंसियों से मान्यता है तो ऐसे पत्रकारों की मान्यता पर तलवार लटक रही है। शिकायतों का सिलसिला तेज होज्ञगया था। नतीजतन उ.प्र.सूचना विभाग ने छंटनी के इरादे से रिव्यू किया और अब नई मान्यता पॉलिसी तैयार करने के लिए मान्यता समिति के सदस्यों से प्रस्ताव और सुझाव मांगे गए हैं।
बड़े संस्थानों के सदस्य ऐसे सुझाव दे रहे हैं कि छोटे अखबारों की मान्यताओं पर कैंची चल जाए। सुरेश बहादुर बहादुरी के साथ मान्यताएं बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं तो उन्हें पत्रकारों का वी पी सिंह कहा जाने लगा। इसका बात का एक तर्क दिया जा रहा है-
देश की राजनीति में कोई दलित नेता दलितों की लड़ाई लड़ा, कोई यादव, यादव समाज, पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक समाज के लिए लड़ता है तो कोई पार्टी सवर्णों पर अपना एकाधिकार मानती है। वी.पी.सिंह क्षत्रीय थे, उनका ताल्लुक राजघराने से था, वो राजा कहलाते थे। उनको किसी चीज की कमी नहीं थी।लेकिन फिर भी उन्होंने दलितों-पिछड़ों को समाज की मुख्यधारा में लाने की लड़ाई लड़ी। वो ना शक्तिशाली कांग्रेस से डरे और ना भाजपा के आगे झुके। कमंडल के आगे मंडल की राजनीति शुरू करके पिछड़ों को हाशिए से बाहर लाए। वीपी सिंह मंडल कमीशन को राजनीतिक फलक पर इतनी शिद्दत से ना उठाते तो शायद मुलायम सिंह यादव, मायावती, नीतीश कुमार,लालू प्रसाद यादव जैसे तमाम नेता इतने लम्बे समय तक सियासत और हुकुमत के शीर्ष पर ना पंहुच पाते।
पत्रकारों की पंचायतों में चर्चाएं हो रही हैं- उ.प्र.मान्यता समिति की बैठक में वीपी सिंह जैसे एक शेर पत्रकार की दहाड़ ने बड़े-बड़ों की बोलती बंद कर दी। मान्यता कमेटी का एक वरिष्ठ सदस्य उन कमज़ोरों की लड़ाई लड़ रहा है जिन कमज़ोरों को ताकतवर तबका दरकिनार करना चाहता है।
उत्तर प्रदेश राज्य मुख्यालय के मान्यता प्राप्त पत्रकारों में आधे से ज्यादा पत्रकारों की मान्यता लघु, मंझोले और कम संसाधनों वाले अखबारों से है। शिकायतों के मद्देनजर पहले मान्यताओं का रिव्यू होने के लिए मान्यता प्राप्त पत्रकारों से तमाम दस्तावेज मांगे गए। फिर नई मान्यता पॉलिसी पर विचार शुरू हो गया। सूचना विभाग की नवगठित मान्यता समिति में इस बार बड़े मीडिया संस्थानों के संपादकों को भी शामिल किया गया है। ऐसे सदस्यों की राय है कि जो छोटे अखबार दिखते और बिकते नहीं हैं उन अखबारों से राज्य मुख्यालय की प्रेस मान्यता दी जाना ही गलत है, ऐसे अखबार बहुत संस्करण दिखाकर कई प्रेस मान्यताएं ले लेते हैं। जो अनुचित है। ऐसे सुझाव पर यूपी के एक शीर्ष अखबार के संपादक से सुरेश बहादुर बार-बार भिड़ रहे हैं। प्रतिरोध करते हुए वो बोले- क्यों ना मल्टी एडिशन वाले बड़े अखबारों के तमाम संस्करणों की जांच से इसकी शुरुआत की जाए। छंटनी हो तो सबकी हो, जांच हो तो सबकी हो, सिर्फ छोटों पर भी क्यों गाज़ गिरे…